अन्य देशों के नागरिकों के मुकाबले एक आम हिन्दुस्तानी अधिक सामाजिक और मिलनसार होता है। हमारी संस्कृति में रिश्तों का विशेष महत्व होता है। हम सुख-दुख या अन्य कोई शुभ काम करने चलते हैं तो सबसे पहले अपने रिश्तेदारों, मित्रों की लिस्ट तैयार करने बैठ जाते हैं किस-किस को आमंत्रण भेजना है। यह बहुत मुश्किल और संवदेनशील मसला होता है। किसी एक दोस्त या मित्र को अगर भूलवश निमंत्रण नहीं पहुंचता है तो रिश्तों में उम्र भर के लिए तनाव पैदा हो जाता है। भले आपकी हैसियत हो या नहीं,लेकिन शादी-ब्याह या अन्य मौकों पर सब नाते-रिश्तेदारों को बुलाना, उनके लिए अच्छे से अच्छे व्यंजन परोसना,मेहमानों की विदाई के लिए भी समाज ने कुछ मापदंड तय कर रखे हैं। किसी को कपड़े से तो किसी को नगद टीका करके विदा किए जाने की औपचारिकता निभानी पड़ती है। उक्त औपचारिकताओं को पूरा करने के लिए कभी-कभी बाप की जीवन की पूरी पंूजी ही ‘लुट’ जाती है। शादी-ब्याह अन्य मुल्कों में भी होते है,लेकिन ऐसा माहौल कहीं नहीं दिखाई देता है,जहां लड़की के परिवार की ‘बोली’ लगती हो।
शादी-ब्याह या इसी तरह के अन्य किसी मौके पर रीति-रिवाज के नाम पर होने वाले फिजूल खर्च को लेकर अक्सर आम और खास लोगों के बीच विचार-विमर्श भी होता रहता है। इस फिजूलखर्ची को रोकने के लिए कानून बनाए जाने की भी बात होती रहती थी,कई बार ऐसी भी खबरें आईं की सरकार इस फिजूलखर्ची को रोकने के लिए कुछ नियम-कानून बना सकती है,लेकिन यह हो नहीं सका और जो काम सरकार नहीं कर पाई उसे कोरोना ने कर दिखाया।
सरकार ने शादी-ब्याह या से लेकर किसी की मौत के समय कितने लोग एकत्र होंगे इसकी संख्या तय कर दी है। खास बात यह है कि इसका कोई खास विरोध भी नहीं हो रहा है। बल्कि लोग इसे सरकार का सार्थक प्रयास बता रहे हैं। हो सकता है कि देर-सबेर यह कानून भी बन जाए कि शादी-ब्याह या जन्मदिन, शादी की सालगिराह जैसे मौकोे पर आप कितने लोगों को आमंत्रित कर सकते हैं। यह संख्या पचास-तीन कुछ भी हो सकती है।
कौन नहीं जानता है कि एक परिवार के लिए बेटी या फिर बेटे की शादी का खर्चा उठाना कितना मुश्किल होता है। इनमें गोद भराई, तिलक,शगुन अथवा मेहंदी से लेकर संगीत तक कई रंग-बिरंगे समारोह,दोस्तों और रिश्तेदारों के मजमे के बीच होते हैं। बैंड बाजा बारात के साथ लोग नाचते-गाते हुए सड़क पर निकलते हैं तो कहीं रास्ता जाम हो जाता है तो कहीं लोग कानफोड़ू आवाज के चलते घर में भी परेशान हो जाते हैं। कोरोना के बाद माहौल काफी बदल गया है। अब शादी-ब्याह के नाम पर ऐसा कुछ नजर नहीं आता। जो भी शादियां हो रही हैं उनमें सरकारी दिशा निर्देशों के मुताबिक सीमित संख्या शरीक होने वाले लोग आपसी शारीरिक दूरी बनाए और मास्क, ग्लवज पहने और सेनिटाइजर लगाते दिखते हैं। शादी समारोहों की मौजूदा स्थिति से लोगों के अरामानों पर तो जरूर पानी फिरा है लेकिन इससे फिजूलखर्ची में काफी कमी आई है। कोरोना काल की इन शादियों में बैंड, बाजा, बारात की जगह मास्क, सेनिटाइजर्स और सामाजिक दूरी के नियमों ने ले ली है। कई जोड़ों का इरादा किसी बॉलीवुड की तर्ज पर भव्य शादी का था जिनमें सैकड़ों और कभी-कभी दो हजार तक अतिथियों की सूची पहुंच जाती है। कई समारोहों और डिजाइनर कपड़ों पर लाखों रुपए खर्च कर दिए जाते हैं, लेकिन महामारी के कारण अब कई शादियां बिल्कुल सादे स्तर पर हो रही हैं। सात जन्म तक एक दूसरे का साथ निभाने की कसमें अब आलीशान बैंक्वेट हॉल या मैरिज गार्डन में नहीं, बल्कि घर की छतों, घरों, मंदिर, चर्च या कहीं-कहीं तो राज्य की सीमाओं पर खाई जा रही हैं। इस पवित्र रस्म के साक्षी सिर्फ घर के लोग ही बन पा रहे हैं और लोग खुश भी हो रहे हैं। क्योंकि अक्सर शादी-ब्याह के मौके पर जुटाने वाली लोगों को बुलाने वाला और आने वाले दोनों ही औपचारिता निभाते नजर आते थे।
यह सब देखने के बाद लगता है कि जो चीज सादगी सरलता व सहजता से स्वीकार की जानी चाहिए थी, उसे बहुत मजबूरी से माना जा रहा है। वास्तव में उत्सव के जो रूप बन गए हैं, वह स्वयं की बर्बादी की तरफ ले जाने वाले हैं। लेकिन इन्हीं को अपनी हैसियत का पैमाना मान लिया गया है। वास्तव में जो संस्कार सादगी व सरलता से जुड़े होने चाहिए थे, वे अब इस झूठे अहंकार का प्रतीक बन गए हैं कि मुझसे बढ़कर कौन है। मैंने शादी में पैसा पानी की तरह बहा कर दिखा दिया। शादी-ब्याह या इसी तरह के अन्य रीतिरिवाजों को पूरा करने के लिए जुटने वाली भीड़ पर नियंत्रण की एक सच्चाई यह भी है कि इससे शादी में आने वाले और उनको बुलाने वाले दोनों ही खुश नजर आ रहे हैं। क्योंकि अब शादी-ब्याह में औपचारिकता का दायरा काफी छोटा हो गया है। यह हमेशा के लिए हो जाए तो क्या कहने। कम से कम कुछ खास मौकों पर तो अमीर-गरीब का फर्क ही मिट जाएगा।