Breaking News

जाने स्पेस स्टेशन में एस्ट्रोनॉट्स कैसे करते है टॉयलेट ?

भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) 2022 तक गगनयान के जरिए इंसानों को अंतरिक्ष में भेजने की तैयारी में जुटा है. भारतीय एस्ट्रोनॉट अंतरिक्ष में तो चले जाएंगे. सात दिन घूमकर चले भी आएंगे. लेकिन सवाल यह उठता है कि वे लोग जितनी भी देर अंतरिक्ष में रहेंगे, उस दौरान अगर उन्हें पेशाब करना हो तो वे क्या करेंगे. कहां जाएंगे? इसका जवाब है…और संभवतः इसरो उस टेक्नोलॉजी का उपयोग जरूर करेगा जिससे भारतीय एस्ट्रोनॉट्स को मल-मूत्र में दिक्कत न हो.क्या आपको पता है कि अमेरिका द्वारा 1969 में भेजे गए मानव मून मिशन में भले ही नील आर्मस्ट्रांग ने चांद की सतह पर पहली बार कदम रखा था. लेकिन, चांद की सतह पर पेशाब करने वाले पहले अंतरिक्ष यात्री बज एल्ड्रिन थे. पृथ्वी से करीब 400 किमी की ऊंचाई पर स्थित इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन में एस्ट्रोनॉट टॉयलेट कैसे करते हैं? क्या होता है उनके मल-मूत्र का?

1. सबसे पहला अंतरिक्ष यात्री पेशाब से भीगे कपड़ों में अंतरिक्ष तक गया और लौटा

19 जनवरी 1961 को अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने पहला मानवयुक्त मिशन मर्करी रेडस्टोन-3 लॉन्च किया. एलन शेफर्ड स्पेस में जाने वाले पहले अमेरिकी अंतरिक्ष यात्री बने. पूरा मिशन सिर्फ 15 मिनट का था. शेफर्ड को अंतरिक्ष में सिर्फ कुछ ही मिनट बिताने थे. इसलिए इस मिशन में टॉयलेट के लिए कोई व्यवस्था नहीं की गई थी. लेकिन लॉन्च में देरी होने से शेफर्ड को पेशाब लग गई. तब उन्होंने मिशन कंट्रोल से पूछा कि क्या वे स्पेस सूट में पेशाब कर सकते हैं. मिशन कंट्रोल ने परमिशन दे दी. इसके बाद शेफर्ड भीगे कपड़ों में ही अंतरिक्ष यात्रा करके वापस आए. बाद में वे 1971 में अपोलो-14 मिशन नें चांद पर भी गए.

2. फिर अंतरिक्ष यात्रियों के लिए बनाया गया यूरिन पाउच

कुछ सालों के बाद अंतरिक्ष यात्रियों के लिए कंडोम की तरह दिखने वाला पाउच बनाया गया. ट्रायल में तो यह ठीक था. लेकिन अंतरिक्ष में यह हर बार फट जाता था. बाद में इसका आकार बढ़ाया गया. तब ये काम चलाने लायक बना. वहीं, शौच के लिए यात्रियों को पीछे की तरफ एक बैग चिपकाकर रखना पड़ता था. इन शुरुआती व्यवस्थाओं से कुछ मिशन में एस्ट्रोनॉट्स का काम तो चल गया लेकिन वे अपने मल-मूत्र की गंध से परेशान रहते थे.

3. अपोलो मिशन के लिए शौच की व्यवस्था वही थी, पेशाब के लिए तरीका बदला

अपोलो मून मिशन के लिए पॉटी के लिए पुराना सिस्टम ही रखा गया था. लेकिन पेशाब के लिए तरीका थोड़ा बदला गया. पेशाब के लिए बनाए गए पाउच को एक वॉल्व से जोड़ दिया गया. वॉल्व को दबाते ही यूरिन स्पेस में चला जाता था. लेकिन इसमें दिक्कत यह थी कि वॉल्व दबाने में एक सेकंड की भी देरी हुई तो यूरिन अंतरिक्षयान में ही तैरने लगता था. अगर इसे पहले खोल दें तो अंतरिक्ष के वैक्यूम से शरीर के अंग बाहर खींचे जा सकते थे. इसलिए अपोलो मिशन के एस्ट्रोनॉट्स ने पाउच में ही यूरिन डिस्पोज किया.

4. जब महिलाएं स्पेस में जाने वाली थीं, तब बदला गया यूरिन डिस्पोजल का सिस्टम

अपोलो मिशन के करीब एक दशक बाद 1980 में नासा ने महिलाओं को अंतरिक्ष में भेजने का फैसला लिया. तब नासा ने MAG (मैग्जिमम एब्जॉर्बेंसी गार्मेंट) बनाया. यह एक तरह का डायपर था. इसे पुरुष एस्ट्रनॉट भी उपयोग करते थे. यह महिला एस्ट्रोनॉट्स के लिए भी सहज उपयोग की वस्तु थी. इस डायपर का उपयोग पहली अमेरिकी महिला अंतरिक्ष यात्री सैली क्रस्टेन राइड ने 1983 में किया था.

5. फिर नासा ने बनाया जीरो-ग्रैविटी टॉयलेट

अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने जीरो-ग्रैविटी टॉयलेट बनाया. इसमें एस्ट्रोनॉट को पॉटी के लिए अपने पीछे बैग नहीं बांधना पड़ता था. लेकिन इसमें पॉटी करने के लिए एस्ट्रोनॉट को काफी मेहनत करनी पड़ती थी. क्योंकि अंतरिक्ष में मल खुद-ब-खुद बाहर नहीं आता. एस्ट्रोनॉट हाथ में एक विशेष तरीके के ग्लव्स पहनते हैं फिर उसकी मदद से मल को खींच कर जीरो-ग्रैविटी टॉयलेट में डालते हैं. इसके बाद उसमें लगा पंखा उसे खींचकर एक ट्यूब के जरिए एक कंटेनर में डाल देता है. पेशाब के लिए भी लगभग ऐसा ही सिस्टम काम करता है.

About News Room lko

Check Also

समाज को ठीक रखिए और स्वयं भी ठीक रहिए- आचार्य संजय सिंह

लखनऊ। आज डॉ शकुंतला मिश्रा राष्ट्रीय पुनर्वास विश्वविद्यालय लखनऊ के इंस्टिट्यूट ऑफ फार्मेसी, द्वारा पांच ...