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21 से 27 दिसम्बर: जश्न के दिन या फिर शहादत के…

  दया शंकर चौधरी

यह देश कई व्रत व त्यौहार पर अवकाश घोषित करने का इन्तजार करता रहता है। क्रिसमस पर्व पर मैरी क्रिसमस की तैयारियों में पूरा देश हफ्तों सांताक्लोज बना फिरता है। परन्तु अफसोस है कि हम मुगल शासकों और अंग्रेजी हुकुमत की बरसों-बरस की गुलामी से निजात दिलाने वाले गुरु गोबिंद सिंह जी, उनके पिता गुरु तेगबहादुर जी, चारों बेटे ‘साहिबजादा अजित सिंह, जुझार सिंह, जोरावर सिंह, फ़तेह सिंह और माता गूजरी जी की शहादत को भुला बैठे हैं। देश-धर्म की रक्षा की खातिर अपने प्राणों को न्योछावर करने वाले गुरू साहिबान को याद करने का हमारे पास न तो समय है और न ही जरूरत है। अफसोस तो तब भी होता है जब इनकी शहादत की याद सार्वजनिक अवकाश की मांग नहीं की जाती और न ही सार्वजनिक आयोजन किए जाते हैं।

यह बात अलग है कि सिक्ख परम्परा के अनुयायी गुरुद्वारों में पूरी श्रद्धा और आस्था से इन गुरू साहिबानों को याद करते हैं और कार्यक्रम आयोजित करते हैं। दिसम्बर के आखिरी सप्ताह के इन दिनों का इतिहास इतना पवित्र और प्रेरणादायी है कि उसकी मिशाल अन्यत्र मिलना मुश्किल है। आइये जानते हैं इन पवित्र दिनों के इतिहास के बारे में…।

ये जो सप्ताह अभी चल रहा है यानि 21 दिसम्बर से लेकर 27 दिसम्बर तक, इन्ही 7 दिनों में गुरु गोबिंद सिंह जी का पूरा परिवार शहीद हो गया था। 21 दिसम्बर को गुरू गोविंद सिंह द्वारा परिवार सहित आनंदपुर साहिब किला छोङने से लेकर 27 दिसम्बर तक के इतिहास को आज याद करने की जरूरत है। एक ज़माना था जब पंजाब में दिसम्बर के इस हफ्ते में सभी लोग ज़मीन पर सोते थे। क्योंकि माता गूजर कौर ने वो रात दोनों छोटे साहिबजादों (जोरावर सिंह व फतेह सिंह) के साथ, नवाब वजीर खां की गिरफ्त में – सरहिन्द के किले में एक ठंडी बुर्ज में गुजारी थी। यह सप्ताह सिख इतिहास में शोक का सप्ताह होता है। आज हर भारतीय को, विशेषतः युवाओं व बच्चों को इस जानकारी से अवगत कराना जरुरी है। हर भारतीय को क्रिसमस नही, हिन्द के शहजादों को याद करना चाहिये। यह निर्णय आप ही को करना है कि 25 दिसंबर (क्रिसमस) को तवज्जो मिलनी चाहिए या फिर क़ुरबानी की इस अनोखी शायद दुनिया की इकलौती मिसाल को…।

21 दिसंबर: श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने परिवार सहित श्री आनंद पुर साहिब का किला छोड़ा। 22 दिसंबर: गुरु साहिब अपने दोनों बड़े पुत्रों सहित चमकौर के मैदान में पहुंचे और गुरु साहिब की माता और छोटे दोनों साहिबजादों को गंगू नामक ब्राह्मण जो कभी गुरु घर का रसोइया था उन्हें अपने साथ अपने घर ले आया। चमकौर की जंग शुरू हुई और दुश्मनों से जूझते हुए गुरु साहिब के बड़े साहिबजादे श्री अजीत सिंह उम्र महज 17 वर्ष और छोटे साहिबजादे श्री जुझार सिंह उम्र महज 14 वर्ष अपने 11 अन्य साथियों सहित मजहब और मुल्क की रक्षा के लिए वीरगति को प्राप्त हुए। 23 दिसंबर : गंगू ब्राह्मण ने गद्दारी करते हुए गहने एवं अन्य सामान चोरी करने के उपरांत तीनों (गुरु साहिब की माता श्री गुजर कौर जी और दोनों छोटे साहिबजादे) की मुखबरी मोरिंडा के चौधरी गनी खान से की और तीनो को गनी खान के हाथों गिरफ्तार करवा दिया। गुरु साहिब को अन्य साथियों की बात मानते हुए चमकौर छोड़ना पड़ा। 24 दिसंबर : तीनों को सरहिंद पहुंचाया गया और वहां ठंडे बुर्ज में नजरबंद किया गया। 25 और 26 दिसंबर: छोटे साहिबजादों को नवाब वजीर खान की अदालत में पेश किया गया और उन्हें धर्म परिवर्तन करने के लिए लालच दिया गया। 27 दिसंबर: साहिबजादा जोरावर सिंह उम्र महज 8 वर्ष और साहिबजादा फतेह सिंह उम्र महज 6 वर्ष को तमाम जुल्म सितम के बाद जिंदा दीवार में चुनवाने के उपरांत जिबह (गला रेत) कर शहीद किया गया और खबर सुनते ही माता गुजर कौर ने अपने साँस त्याग दिए।

धन्य है वे लाल जिन्होने अपनी भारत भूमि, अपने धर्म और अपने संस्कार की रक्षा हेतु माँ के दूध का कर्ज चुकाया और यौवन आने के पहले मृत्यु का वरण किया। चमकौर की गढ़ी का युद्ध: एक तरफ थे मधु मक्खी के छत्ते की तरह बिलबिलाते यवन आक्रांता और दूसरी तरफ थे मुट्ठी भर रण बाकुँरे सिक्ख…। सिर पर केशरिया पगड़ी बाधें, हाथ मे लपलपाती भवानी तलवार लिये, सामने विशाल म्लेच्छ सेना और फिर भी बेखौफ। दुष्टों को उनहोंने गाजर मूली की तरह काटा। वीर सपूत गुरुजी के दोनो साहबजादे, 17 साल के अजितसिंह और 14 साल के जुझार सिंह, हजारों हजार म्लेच्छो को मार कर शहीद हुये। विश्व इतिहास में यह एक ऐसी अनोखी घटना है जिसमे पिता ने अपने तरूण सपूतों को धर्म की वेदी पर शहीद कर दिया और विश्व इतिहास मे अपना नाम स्वणृक्षरो मे अंकित करवा दिया। क्या दुनिया के किसी और देश मे ऐसी मिसाल मिलती है…नहीं। मुगल शासक ने उन रण बांकुरों से उनके धर्म और संस्कृति के परिवर्तन की माँग की थी जिसको उन्होंने सिरे से खारिज कर दिया। गुरू महाराज के उन दो छोटे सिंह शावको (बच्चों) ने अपना सर नही झुकाया। इस पर दुष्ट मुगल बादशाह ने 7 साल के जोरावरसिंह और 5 साल के फतेह सिंह को जिंदा दीवाल मे चिनवा दिया। कितना बड़ा कलेजा रहा होगा वीर सपूतों का, कितनी गर्माहट और कितना जोश होगा उस वीर प्रसूता माँ के दूध मे, जो पाँच और सात साल के बच्चों की रगों मे रक्त बन कर दौड़ रहा था कि उन्होने अपने धर्म संस्कृति की रक्षा के लिये इतनी यातनादायक मृत्यु का वरण किया।

गुरुगोबिन्द सिंह जी के शहीद साहिबानों के इतिहास के साथ एक ऐसे श्रद्धालु गुरुभक्त टोडरमल जी का इतिहास भी जुड़ा है जिन्होंने शहीद साहिबानों के अंतिम संस्कार के लिए सिरहिंद पंजाब में दुनिया की सबसे मंहगी जमीन खरीदी थी। दीवान टोडर मल जी , जो कि इस क्षेत्र के एक धनी व्यक्ति थे और गुरु गोविंद सिंह जी एवं उनके परिवार के लिए अपना सब कुछ क़ुर्बान करने को तैयार थे, उन्होंने वज़ीर खान से साहिबज़ादों के पार्थिव शरीर की माँग की और वह भूमि भी ,जहाँ वह शहीद हुए थे और वहीं पर उनकी अंत्येष्टि करने की इच्छा प्रकट की । वज़ीर खान ने धृष्टता दिखाते हुए भूमि देने के लिए एक अटपटी और अनुचित माँग रखी। वज़ीर खान ने माँग रखी कि इस भूमि पर सोने की मोहरें बिछाने पर जितनी मोहरें आएँगी वही इस भूमि का दाम होगा। दीवान टोडर मल जी ने अपने सब भंडार ख़ाली करके जब मोहरें भूमि पर बिछानी शुरू कीं तो वज़ीर खान ने धृष्टता की पराकाष्ठा पार करते हुए कहा कि मोहरें बिछा कर नहीं बल्कि खड़ी करके रखी जाएँगी ताकि अधिक से अधिक मोहरें वसूली जा सकें। ख़ैर, दीवान टोडर मल जी ने अपना सब कुछ बेच-बाच कर और मोहरें इकट्ठी कीं और 78000 सोने की मोहरें देकर चार गज़ भूमि को ख़रीदा, ताकि गुरु जी के साहिबज़ादों का अंतिम संस्कार वहाँ किया जा सके। विश्व के इतिहास में ना तो ऐसे त्याग की कहीं कोई और मिसाल मिलती है ना ही कहीं पर किसी भूमि के टुकड़े का इतना भारी मूल्य कहीं और आज तक चुकाया गया। जब बाद में गुरु गोविन्द सिंह जी को इस बारे में पता चला तो उन्होंने दीवान टोडर मल जी से कृतज्ञता प्रकट की और उनसे कहा कि वे उनके त्याग से बहुत प्रभावित हैं , और उनसे इस त्याग के बदले में कुछ माँगने को कहा।

दीवान टोडर मल जी ने गुरु जी से कहा कि यदि कुछ देना ही चाहते हैं तो कुछ ऐसा वरदान दीजिए की मेरे घर पर कोई पुत्र ना जन्म ले और मेरी वंशावली यहीं मेरे साथ ही समाप्त हो जाए! इस अप्रत्याशित मांग पर गुरु जी सहित सब लोग हक्के-बक्के रह गए! गुरु जी ने दीवान जी से इस अद्भुत माँग का कारण पूछा तो दीवान टोडर मल जी ने उत्तर दिया कि गुरु जी, यह जो भूमि इतना महंगा दाम देकर ख़रीदी गयी और आपके चरणों में न्योछावर की गयी मैं नहीं चाहता कि कल को मेरी आने वाली नस्लों में से कोई कहे कि यह भूमि मेरे पुरखों ने ख़रीदी थी।

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