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4 लाख कश्मीरी पंडितों की आपबीती है शिकारा की कहानी

इतिहास के पन्नों में कई पन्ने ऐसे भी होते है जिनसे धूल का हटना भी सौ चीखे सुना जाता है. इंडियन हिस्ट्री में ऐसे कई पन्ने है जो आजादी, बहादुरी,बलिदान की मिसालें देते है, लेकिन एक पन्ना सिर्फ ऐसा है जो हर पल खुद के साथ हुई नाइंसाफी की कहानी कहता है हम बात कर रहे हैं कश्मीरी पंडितों की.

कश्मीर में जन्में विदु विनोद चोपड़ा जो खुद कभी कश्मीरी पंडितों के साथ हुए नाइंसाफी के गवाह रह चुके हैं वो फिल्म लेकर आ रहे हैं शिकारा, जो 7 फरवरी को रिलीज हो रही है .

कहानी है कश्मीरी कपल की, जो कश्मीर की वादियों में अपनी हसीन जिंदगी बीत रहा होता है लेकिन एक रात वो अपने घर की खिलाड़ी से देखते है की किसी का घर जल रहा है. दूसरे दिन सभी कश्मीरी पंडितों के घर के बाहर नोटिस लगे होते है कि या तो कश्मीर छोड़ दो या फिर मरने के लिए तैयार रहो

फिल्म की जो खास बात है वो ये कि फिल्म हिंदू मुस्लिम पर नहीं कश्मीरी और कश्मीरियत पर बेस्ड है. कहानी सिर्फ कश्मीरी पंडित की है जिसे वो एक पल के लिए भी फोकस आउट नहीं होती है. आतंक से लेकर पॉलिटिक्स और कैंपस में हुई आपबीती को बयां करती है शिकारा. और सुनाती है 4 लाख कश्मीरी पंडितों के दर्द की कहानी.

फिल्म कैसी है क्या अच्छा है क्या कमियां है ये तो फिल्म रिलीज पर पता चलेगा, पर इस फिल्म को देखने से पहले चलिए कश्मीरी पंडितों के इस दर्द को समझने की कोशिश करते हैं ताकि जब ये फिल्म देखें तो आपके मन में कोई सवाल न रह जाए.

19 जनवरी 1990, कश्मीर की किताबों में कश्मीर का ब्लैक डे कहा जाता है. बंदूक की नोंक पर 4 लाख कश्मीरी पंडित को उनके घरों से बेघर कर दिया गया.

इसकी शुरुआत कहां से हुई, क्या ये एक रात का खेल था नहीं, 1947 में आजादी के साथ ही भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मीर को लेकर खींचतान शुरु हो गई थी, लेकिन फिर भी कश्मीर के हालत कभी इतने खराब नहीं थे जितने 1980 के बाद होने लगे. जहां से कश्मीर ए जन्नत आतंक के साये में पलने लगी.

1980 का वो दौर जहां भारत अपने आतंरिक मसलों में बिजी था वहीं आफगानिस्तान के मुजाहिदीनों को पाकिस्तान पीओके में ट्रेनिंग दे रहा था, ये वो वहिशी दरिंदे थे जिन्हें ना धर्म से कोई लेना देना था ना अपने देश से, इनके लिए जान लेना ताकत का एक जरिया था और ये जाल कश्मीर तक फैलने लगा था.

अब पुलिस कार्रवाई करें तो, इन्होंने धर्म के नाम पर लोगों को बहलाना शुरु कर दिया. वो कहने लगे कि हम पहले से ही कहते न थे कि कश्मीरी काफिर हमारे दुश्मन हैं! इन्हें यहां रहने न दिया जाए

मुजाहिदीन की धर्म को लेकर लगाई आग अब पूरे कश्मीर में फैलने लगी थी, 1980 तक कश्मीर की ज्यादातर बड़ी पोस्ट पर कश्मीर पंडित हुआ करते थे, जिन्हें मारा जाने लगा था.

कश्मीरी पंडितों को धमकाया जाने लगा, घरों पर हमले होने लगे, कश्मीर छोड़ने के लिए मजबूर किया जाने लगा. कश्मीरी पंडितों की जान थोक के भाव बिकने लगी.जान के साथ लूट और रेप आम कहानी हो गई.

ऐसा नहीं था कि इन सब में मुस्लिमों ने कुछ नहीं खोया, जाने उनकी भी गई, लेकिन कश्मीरी पंडितों ने जान के साथ आजादी भी खोई. असल में देखा जाए तो कश्मीरी पंडितों के साथ नाइंसाफी धार्मिक संप्रादायिकता नहीं बल्कि terrorism और डर्टी पॉलिटिक्स का उदाहरण थी.

जहां कश्मीरी पंडित घर छोड़ने को मजबूर थे और सरकारें अपने डर के साये में जी रही थी. शिकारा के ट्रेलर में बैनजीर भुट्टो का वो भाषण जिसने कश्मीर के इन हालतों में आग का काम किया वो कश्मीरी पंडितों के साथ हुई नाइंसाफी का बहुत बड़ा कारण बनी.

घर से बेघर हुए और जिंदगी गुजरने लगी शर्णार्थी कैंप में. अपने आपको जन्नत की संतान कहने वाले ही दर-दर भटकने लगे.30 साल का सफर और आज भी बस ये इंतजार की घर कब लौटेंगे. कागज के पन्नों में नाइंसाफी लिखना उतना मुश्किल भी नहीं जितना उसका हिस्सा बनना है और ये दर्द वही समझ सकता है जो उसे गुजरा हो.

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