बिहार विधानसभा चुनावों के लिए राजनीतिक बिसात बिछ गई है। ऐसे में सबके अपने अपने दावे हैं। कोई एनडीए की सरकार बनती दिखा रहा है, तो कोई RJD के नेतृत्व वाले महागठबंधन की सरकार बनाने का दावा पेश कर रहा है। अगर मतदान पूर्व कराये गए ओपिनियन पोल पर नजर डाला जाये तो बिहार में एक बार फिर ‘नीतीश कुमार’ की सरकार बनती दिख रही है। फिर भी इस सवाल का सही जवाब 10 नवंबर को मतगड़ना के बाद मिल जायेगा। सीएसडीएस-लोकनीति के ओपिनियन पोल में एनडीए को 133 से लेकर 143 सीटें मिलने का अनुमान है। जबकि, आरजेडी के नेतृत्व वाले महागठबंधन को 88-98 सीटें मिलने की उम्मीद जताई गयी हैं। वहीं, बीजेपी के साथ सरकार बनाने का दावा करने वाली चिराग पासवान की पार्टी लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) महज 2-6 सीटों पर सिमटी दिख रही है।
अन्य दलों की बात करें तो उन्हें ओपिनियन पोल में 6-10 सीटें दी गई हैं। बता दें कि बिहार विधानसभा की 243 सीटों में बहुमत का आंकड़ा 122 है। यानी बहुमत के आंकड़े तक नीतीश कुमार आराम से पहुंच सकते हैं। सर्वे में मतदाताओं से पूछा गया कि वो किसे वोट देने की संभावना रखते हैं, तो 38 फीसदी लोगों का जवाब एनडीए था। जबकि, महागठबंधन के पक्ष में 32 फीसदी लोग हैं। इसके अलावा, छह फीसदी लोगों की चाहत है कि राज्य में अगली सरकार एलजेपी की बने। ओपिनियन पोल में जहाँ नीतीश कुमार को सत्ता में आने की संभावना तो दिखी लेकिन उनकी लोकप्रियता में गिरावट हुई है। साल 2015 में 80 प्रतिशत लोग नीतीश सरकार के कामकाज से संतुष्ट थे, जबकि 2020 में ये आंकड़ा गिरकर 52 प्रतिशत हो गया है।
वैसे तो बिहार के चुनावी समर में सभी दल पूरे जोर-शोर से सत्ता हथियाने की भरसक कोशिश में जुटे हुए हैं। इस बार बिहार में किसकी सरकार बन रही है? सब बेसब्री से यह सवाल भी पूछ रहे हैं। अगर बात चुनावी मुद्दों की करें तो विकास का मुद्दा पिछली बार की तरह ही इस बार भी पहले स्थान पर है, जिसे सीधी टक्कर बेरोज़गारी वाले मुद्दे से मिल रही है। बेरोज़गारी एक अहम चुनावी मुद्दा बनने और मुद्दों की श्रेणी में दूसरे स्थान पर पहुंचने का एक मुख्य कारण युवा मतदाता और उनकी अपेक्षाएँ हैं। बिहार में 18 से 25 साल की आयु के मतदाता दूसरे आयु वर्ग के मतदाताओं की अपेक्षा रोज़गार के मसले में अधिक चिंतित दिखे। इस आयु वर्ग और कुछ हद तक 26 से 35 साल की आयु के मतदाताओं की वजह से रोज़गार का मुद्दा बिहार में अहम मुद्दा बन कर उभरा है।
बिहार चुनाव में राजद काल की बदहाली और राजग के विकास कार्यों की चर्चा भी चुनाव में खूब देखने को मिली। विकास का मुद्दा अन्य मुद्दों की तुलना में बड़े अंतर के साथ राज्य में पहले की तरह ही मतदाताओं की पहली पसंद है। विकास की यह मांग अपेक्षित ही है क्योंकि अन्य राज्यों की तुलना में बिहार विकास के सूचकांकों में सबसे नीचे है। इस लिहाज से साल 2020 का चुनाव भी मुद्दों को लेकर पिछले चुनावों से भिन्न नहीं है, क्योंकि बिहार के मतदाताओं में विकास की भूख पूर्व के चुनावों की तरह ही बनी हुई है।
मुद्दों की राजनीति को लेकर आरजेडी महागठबन्धन सुशासन को चुनावी चर्चा से बाहर रखना चाहते थे। इसीलिए राहुल गांधी ने यहां चीन का मुद्दा उठाया, और तेजस्वी यादव ने पहली कैबिनेट मीटिंग में दस लाख लोगों को नौकरी का वादा कर दिया। वस्तुतः यह मुद्दे राजग सरकार के सुशासन से ध्यान भटकाने के लिए थे। लेकिन यह दांव उल्टा पड़ गया। चीन के मुद्दे पर राहुल को करारा जबाब रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने दिया। जबकि दस लाख लोगों को रोजगार की बात तो समझ आती है,लेकिन इतनी बड़ी संख्या में सरकारी नौकरी तुरंत देना असंभव है। बिहार में अभी करीब तीन लाख सरकारी नौकरी है। मान लीजिए अगर विपक्ष को सत्ता की चाभी मिल भी गयी तो पहली कैबिनेट मीटिंग में इसे तीन गुना से अधिक बढ़ाना असंभव है।
बिहार में महागठबन्धन ने तेजस्वी यादव को भावी मुख्यमंत्री के रूप में पेश किया है, जो वर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को चुनौती दे रहे हैं। ऐसे में बिहार के मतदाताओं के समक्ष विकल्प बिल्कुल स्पष्ट है। नीतीश कुमार की छवि सुशासन बाबू की रही है। जबकि राजद का पन्द्रह वर्षीय शासन जंगल राज के रूप में चर्चित था। कुछ समय के लिए तेजस्वी यादव भी उप मुख्यमंत्री रहते हुए अपना ट्रेलर बिहार की जनता को दिखा चुके हैं। जिसको देख कर नीतीश कुमार ने राजद से गठबंधन तोड़ लिया था। शायद यही कारण है कि नरेंद्र मोदी ने राजद नेतृत्व को जंगलराज का युवराज कहा था। बिहार में कांग्रेस व राजद को सर्वाधिक समय तक शासन का अवसर मिला है। इनकी समानता का दूसरा पहलू वर्तमान नेतृत्व है।
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी व राजद संस्थापक लालू यादव चुनाव से अलग दिखे। ऐसे में इन पार्टियों के युवराजों के हाँथ में कमान रही। तीसरी समानता यह कि दोनों ही अपनी पुरानी सरकारों पर चर्चा से बचते रहे। वह जानते है कि ऐसा करना नुक़सानदेह होगा। क्योंकि नीतीश कुमार के क्षेत्रीय दल जेडीयू की राजनीति अलग है, इसमें परिवारवाद नहीं है। इसलिए वह राजद और कांग्रेस की विरासत से सामंजस्य स्थापित नहीं कर सके। जबकि भाजपा जैसी कार्यकर्ता व विचारधारा आधारित पार्टी के साथ ही वह सहज होकर काम कर सकते हैं, शायद यही वजह उनको अब तक भाजपा के साथ सम्बन्ध बनाये रखने के लिए काफी है। इस प्रकार विचार के आधार पर राजग और राजद गठबंधन बिल्कुल अलग धरातल पर हैं। यही आधार विकास व सुशासन को लेकर है।
राजद ने भी पन्द्रह वर्षो तक बिहार पर शासन किया। लेकिन विवशता यह कि विकास के नाम पर इनके पास कहने को एक शब्द भी नहीं है। जबकि नीतीश के नेतृत्व वाली राजग सरकार अपनी उपलब्धियों का ब्यौरा दे रही है। चुनाव में विचार व विकास के नाम पर राहुल गांधी भी खाली हाँथ हैं। लोकसभा चुनाव प्रचार में नाकाम हो चुके कई मुद्दे वो बिहार विधानसभा चुनाव में भी उठाते दिखे। शायद वो नोटबन्दी के दर्द से अभी भी पूरी तरह से मुक्त नहीं हो सके हैं। कुर्ते की जेब में हाँथ डालते ही उनकी यह पीड़ा उभर आती है। जीएसटी तो यूपीए के समय ही लागू होना था। लेकिन तब कांग्रेस ने सहमति बनाने का कोई प्रयास नहीं किया। मोदी सरकार ने जो सहमति बनाई उसमें कांग्रेस के मुख्यमंत्री भी शामिल थे। राहुल का अपना एजेंडा रहता है, कुछ बातें अभी जुड़ी हैं। वह बिहार में कह रहे हैं कि कृषि कानून के विरुद्ध पंजाब के किसानों का गुस्सा बढ़ता जा रहा है। कौन बताए कि यह कानून पूरे देश के लिए है। पिछली व्यवस्था में किसान परेशान थे। उनकी परेशानी दूर की गई है। इस नए कृषि कानून से केवल बिचौलिए ही बेहाल हैं। जब से नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने है तब से राहुल उन्हें गरीब विरोधी साबित करने में जुटे हैं। आपको याद होगा सूटबूट की सरकार से उन्होंने मोदी पर हमले की शुरुआत की थी, जिसे अब वह राफेल तक खींच कर लाये। चौकीदार…… के नारे लगवाए। न्यायपालिका में इस पर क्या हुआ,राहुल को याद होगा।
राहुल बिहार में भी दोहरा रहे हैं कि अम्बानी अडानी को सब कुछ मिल जाएगा। लेकिन वो यूपीए सरकार की चर्चा नहीं करते। बिहार चुनाव में पाकिस्तान व चीन के विषय को उठाने का मौका कांग्रेस ने ही दिया है। राहुल चुनाव सभा में पूंछते हैं कि मोदी जी चीन के कब्जे से जमीन कब छुड़ाएंगे। कांग्रेस के नेता पाकिस्तान की तारीफ में कसीदे पढ़ते हैं। अनुच्छेद 370 को हटाने की बात करते हैं। इसके लिए चीन का सहयोग लेने की बात करने वाले के साथ उनका गठबंधन है। जाहिर है बिहार चुनाव में राजद व कांग्रेस को इसका जबाब तो मिलना तय है। असल में कांग्रेस व राजद स्वयं विकास के मुद्दे से बचना चाहते हैं। राजद शासन के दौरान बिहार में कृषि की औसत विकास दर रसातल में पहुंच रही थी। सच कहा जाये तो उनके शासन काल में विकास दर माईनस में थी। राजग सरकार में कृषि विकास की औसत दर छह प्रतिशत से अधिक रही। पहले कृषि का बजट दो सौ इकतालीस करोड़ रुपये था, जो बढ़कर तीन हजार करोड़ से अधिक हो गया है।
बिजली, सड़क और पानी के मुद्दे पर एनडीए सरकार की उपलब्धियाँ अभूतपूर्व हैं। पहले के मुकाबले साक्षरता दर में बीस प्रतिशत वृद्धि हुई है। राजद के समय तेरह सरकारी पोलिटेक्निक कॉलेज थे। आज लगभग हर जिले में पोलिटेक्निक कॉलेज हैं। शिक्षा के बजट में एक हजार करोड़ रूपये से ज्यादा वृद्धि हुई है। पहले की तरह घोटाले नहीं हुए। राजद काल में बिजली की उपलब्धता मात्र बाइस प्रतिशत थी, आज शत प्रतिशत बिजली की उपलब्धता है। पुल, सड़क और हाइवे के निर्माण में भी अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। स्पष्ट है, भाजपा व जेडीयू इन्हीं उपलब्धियों के साथ जनता के बीच में है। जिसका असर बिहार के चुनाव परिणाम के रूप में देखने को मिलेगा।