दिल्ली सीमा पर चल रहे आंदोलन में वास्तविक किसानों की संख्या पर शुरू से अटकलें थी, लाल किले पर हुए उपद्रव ने इसे और बढा दिया है।
इससे आंदोलनकारियों, उसके नेताओं और समर्थन देने वाली सभी पार्टियों की प्रतिष्ठा धूमिल हुई है। अच्छाई यह है कि देश के किसान ना तो इस आंदोलन में सहभागी थे, ना वह कभी इस प्रकार का आंदोलन कर सकते है,ना उनकी ऐसे आंदोलनों से कोई सहानुभूति हो सकती है।
जबाबदेह है समर्थक
कांग्रेस सहित विपक्ष की अनेक पार्टियां इस पर जबाबदेह अवश्य है। कुछ समय पहले इन्हीं पार्टियों ने शाहीन बाद व घण्टाघर पहुंच कर समर्थन दिया था। जबकि वह आंदोलन कपोल कल्पना पर आधारित था। ऐसा ही इस बार हुआ। किसानों के नाम पर चल रहे आंदोलन के महंगे इंतजाम और वहां लहराते कतिपय झड़े बैनर भी अपने में बहुत कुछ कहने वाले थे। कनाडा पाकिस्तान तक इसकी गूंज पहुंच रही थी। अब तो लगता है कि आंदोलन को गणतंत्र दिवस तक खींचने की योजना पूर्व निर्धारित थी।
छवि धूमिल करने का प्रयास
आंदोलन के नेता जानते थे कि कृषि कानून पर उनका विरोध बचकाना है। सरकार इसे वापस नहीं लेगी। ऐसे में क्या यह आरोप गलत है कि गणतंत्र दिवस पर उपद्रव करके दुनिया में भारत की छवि खराब करने की योजना थी। फिर यह क्यों ना माना जाए कि यह शाहीन बाग व घण्टाघर जैसा आंदोलन था। नागरिकता संसोधन कानून नागरिकता देने के लिए था।
लेकिन शाहीन में नागरिकता छीनने के शिगूफे पर आंदोलन चल रहा था। इसी प्रकार कृषि कांनून में किसानों को अधिकार दिए गए। आंदोलन इसलिए चल रहा था कि अधिकार छीन लिए गए है। इस आंदोलन में किसान शब्द जोड़ कर महिमा मंडन कर दिया गया था। विपक्षी पार्टियां भी चिल्लाने लगी कि किसान परेशान है,जाड़े की रात में सड़क पर है।
किसान शब्द पर सरकार की भी सहानुभूति होती है। यही कारण है कि उसने स्वयं पहल करने ग्यारह बार आंदोलकारियों के नेताओं को वार्ता के लिए बुलाया। लेकिन जब तार कहीं अन्यत्र से जुड़े होते है तो लाख उदारता के बाद भी समाधान संभव नहीं होता। आंदोलन के नेता कृषि कानून वापस लेने की मांग पर अड़े रहे।
निराधार विरोध
कृषि कानून के विरोध में सभी तर्क कपोल कल्पना पर आधारित थे। वह कह रहे थे कि किसानों को पूरी जमीन पर अडानी अम्बानी कब्जा कर लेंगे। जबकि कृषि कानून से तो ऐसा करना संभव ही नहीं था। किसी भी देश का सर्वांगीण विकास कृषि व उद्योग दोनों के समन्वय संतुलन से होता है।
किसानों के ट्रैक्टर खाद आदि भी तो उद्योगों में बनते है। सरकारी क्षेत्र से अधिक रोजगार निजी क्षेत्र है। दिल्ली सीमा पर चल रहे आंदोलन में वास्तविक किसानों की संख्या को लेकर पहले भी अटकलें था। यह बात निराधार भी नहीं थी।
कृषि मंडी व MSP यथावत
तीनों कृषि कानूनों में किसानों से कुछ छीना ही नहीं गया था। किसानों के पास जो कुछ था वह यथावत रखा गया। उन्हें अपनी उपज मंडी में बेचने सुविधा था। नए कानून इसे हटाया नहीं गया। बल्कि कृषि मंडियों को आधुनिक बनाने के प्रयास किये जा रहे है। किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य दिया जाता है, कृषि कानून में इसे भी हटाया नहीं गया। इसके विपरीत अब तक का सर्वधिक न्यूनतम समर्थन मूल्य नरेंद्र मोदी सरकार ने दिया है।
स्वामीनाथन रिपोर्ट को यूपीए सरकार ने लागू नहीं किया था। यह कार्य भी मोदी सरकार ने किया। किसानों को डेढ़ गुना समर्थन मूल्य पहली बार मिला। कॉन्ट्रेक्ट कृषि देश में पहले से चल रही है। कृषि कानून में किसानों के हित को ध्यान में रखते हुए इस पर व्यवस्था की गई। कॉन्ट्रेक्ट केवल फसल का हो सकता है। जमीन को कॉन्ट्रेक्ट से अलग रखा गया। ऐसे में किसानों की नाराजगी तो संभव ही नहीं थी। उनसे कुछ छीना नहीं गया,बल्कि उनके अधिकार बढ़ाये गए।
उन्हें उपज को अपनी मर्जी से बेचने का अधिकार दिया गया। ऐसे में सवाल यह था कि कृषि कानून से नुकसान किसे हो रहा था। चर्चा चली तो पता चला कि इसका नुकसान उस वर्ग को होगा जो किसनों की मेहनत का लाभ उठाते है। यह धनी वर्ग है। आंदोलन का स्वरुप भी अभिजात्य था। गरीब किसान तो ऐसे सुविधा सम्पन्न आंदोलन को इतने समय तक चालने की कल्पना भी नहीं कर सकते है।