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हंगामा-नारेबाजी है आसान, चर्चा में रहता है फंसने का डर

    अजय कुमार

उत्तर प्रदेश विधान मंडल का बजट सत्र पहले ही दिन विपक्ष के हंगामें, नारेबाजी और राज्यपाल के अभिभाषण के बहिष्कार की भेंट चढ़ गया था, पहले दिन गतिरोध का जो सिलसिला शुरू हुआ था, वह दूसरे भी दिन भी बदस्तूर जारी रहा। उम्मीद यही लगाई जा रही है कि यह गतिरोध आसानी से टूटेगा नहीं। दरअसल, विपक्ष के पास योगी सरकार के खिलाफ मुद्दे तो बहुत हैं, जिसके सहारे योगी सरकार को घेरा जा सकता है, लेकिन न जाने क्यों विरोधी दलों के नेता इन मुद्दों पर चर्चा करने की बजाए चर्चा से भागने-बचने की कोशिश करते रहते है। योगी सरकार के चार वर्ष पूरे होने वाले हैं,लेकिन विधान सभा का कोई भी सत्र ऐसा नहीं बीता, जिसमें विपक्ष ने हंगामें से अधिक बहस-चर्चा को महत्ता दी हो। हंगामा भी ऐसा कि लोकतत्र शर्मसार हो जाता है।

मतदाताओं का सिर भी शर्म से झुक जाता होगा कि उसने कैसा जनप्रतिनिधि चुन कर भेजा। यह दुखद है कि विपक्ष द्वारा कभी नागरिकता संशोधन कानून तो कभी हाथरसं कांड या फिर अन्य ऐसी ही घटनाओं को लेकर विधान सभा की गरिमा बार-बार तार-तार कर दी जाती है। खैर, यह अच्छी बात है कि विपक्षी दलों सपा, बसपा, कांग्रेस के विधायक योगी राज में बढ़ती मंहगाई, किसान उत्पीड़न, बेरोजगारी, प्रदेश की बिगड़ी कानून व्यवस्था को लेकर चिंतित हैं, लेकिन इन समस्याओं को सदन में चर्चा के दौरान उठाकर योगी सरकार को घेरने की बजाए विपक्ष हो-हल्ले पर ज्यादा विश्वास करता है। सदन में तख्तियां लहराना, स्पीकर की कुर्सी के सामने आकर हंगामा करना स्वस्थ्य लोकतंत्र की परम्परा का हिस्सा नहीं हो सकता है।

सदन की सार्थकता तभी तक है जब यहां हर विषय और समस्या पर गंभीरता पूर्वक चर्चा होती है। वर्ना हंगामा तो कोई भी कर सकता है। विपक्ष हो या फिर सत्ता पक्ष दोनों को एक-दूसरे की बात सुनना ही चाहिए। वर्ना अच्छे कानून कैसे बनेंगे। सरकार जब हंगामें के बीच कोई विधेयक/कानून बिना बहस के सदन से पास करा लेती है तो उसका प्रभाव उतना व्यापक नहीं रहता है जितना बहस के बाद बने विधेयक/कानून में गंभीरता नजर आती है। लाख टके का सवाल यही है कि विपक्ष बहस/चर्चा से क्यों बचना चाहता है। इसकी सबसे बड़ी वजह यही है कि किसी विषय पर अपने विचार रखने के लिए किसी भी पार्टी के विधायकों को काफी तैयारी करके सदन में आना होता है। आजकल जो माहौल है उसमें बहुत कम ऐसे विधायक हैं जिन्हें किसी विषय को गंभीरता से समझने की महारथ हासिल हो।

जब तमाम राजनैतिक दल प्रत्याशी के चयन के लिए योग्यता के बजाए जाति/धर्म/बाहुबल को अधिक महत्व देंगे तो फिर ऐसे चुने हुए जनप्रतिनिधियों से यह उम्मीद करना बेईमानी होगी कि वह सदन के शिष्टाचार का पालन करेंगे और सदन में आने वाले विषयों पर गंभीरता पूर्वक अपने विचार रख पायेंगे। समस्या यह है कि आज का विपक्ष विरोध के लिए विरोध करने की लाचारी से ग्रस्त हो गया है। इसी लिए तो जिन कृषि सुधार कार्यक्रमों को सरकार किसानों की बेहतरी के लिए ‘मील का पत्थर’ समझ रही है उसी कानून को विपक्ष किसानों के लिए काला कानून करार देने में लगी है। यह स्थिति तब है जबकि मोदी सरकार द्वारा लाए जाने वाले नये कृषि कानून की तरह के ही कृषि  कानून अलग-अलग राज्योें में थोड़े-बहुत फेरबदल के साथ चल रहे हैं, लेकिन वहां कोई हाय-तौबा नहीं हो रही है। इतना ही नहीं जो नया कृषि कानून मोदी सरकार लाई है, वैसा ही कृषि कानून पूर्व में देश की कांगे्रस सहित कई सरकारें लाने का मन बनाए हुए थीं, लेकिन मजबूत इच्छा शक्ति के अभाव में पूर्व की सरकारें उक्त कानून को अमली जामा नहीं पहना पाईं थीं।

लब्बोलुआब यह है कि लोकसभा से लेकर विधान सभा तक और सड़क से लेकर चैपाल तक किसानों के नाम पर विपक्ष जो हंगामा खड़ा किए हुए हैं,उसके पीछे की उसकी मंशा, किसानों का भला नहीं अपनी सियासत चमकाने की है। प्रदेश की चिंता के नाम पर सदन से सड़क तक पर  मनमानी करने वाले जनप्रतिनिधियों का असली मकसद किसी वर्ग विशेष की समस्याओं को सुलझाना नहीं, बल्कि सरकार को झुकाना भर रहता है वास्तव मे विपक्षी दलों के नेता और जनप्रतिनिधि किसी भी मुद्दे पर स्वयं तो अडियल रवैया अपना लेते हैं, लेकिन दुष्प्रचार यह करते हैं कि सरकार नरमी दिखाने को तैयार नहीं है। सच यह है कि कि चाहे जनप्रतिनिधि हों या मौजूदा माहौल में किसान नेता सब के सब अपनी वियासत चमकाने में लगे हैं। इसी यह अपनी बात से जरा भी टस से मस होने को तैयार नहीं।

यह बात भी आइने की तरह से साफ है कि कांग्रेस एवं कुछ अन्य विपक्षी दलों के साथ-साथ संदिग्ध इरादों वाले गैर राजनीतिक संगठनों के हाथों में खेल रहे किसान नेताओं की सरकार से बातचीत में दिलचस्पी ही नहीं रह गई है। किसान नेता मोदी विरोधी सियासतदारों के चलते जानबूझकर टकराव वाला रवैया अपनाए हुए हैं। कृषि मंत्री के साथ प्रधानमंत्री बार-बार कह रहे हैं कि सरकार किसान नेताओं से नए सिरे से बात करने और उनकी उचित आपत्तियों का निस्तारण करने को तैयार है, लेकिन वे किसी की और यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट की भी सुनने को तैयार ही नहीं। वे ऐसा दिखा रहे हैं जैसे देश का समस्त किसान उनके पीछे खड़ा है, लेकिन हकीकत तो यही है कि आम किसानों को संकीर्ण स्वार्थो वाले कृषि कानून विरोधी आंदोलन से कोई लेना-देना नहीं है। वर्ना यह लोग जिद्द की बजाए मोदी सरकार से चर्चा पर ज्यादा ध्यान देते।

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