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यूपी में आज कांग्रेस वैसी ही ‘अछूत’, जैसे कभी भाजपा हुआ करती थी

     संजय सक्सेना

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी और समाजवादी पार्टी की सियासी ताकत के सामने कांग्रेस काफी ‘बौनी’ नजर आ रही है। कांग्रेस की यूपी प्रभारी प्रियंका वाड्रा की तमाम कोशिशों के बाद भी जमीन से जुड़ा आम कांग्रेसी उत्साहित नहीं नजर आ रहा है। इसकी वजह है पिछले कई चुनावों से कांग्रेस का लगातार गिरता हुआ जनाधार।इसीलिए पुराने कांग्रेसी दिग्गजों का लगता है कि यूपी में कांग्रेस जब तक पुनः मजबूत स्थिति में न आ जाए तब तक वह गठबंधन की सियासत से परहेज नहीं करे।

कांग्रेसी ही नहीं कांग्रेस के रणनीतिकार प्रशांत किशोर भी चाहते हैं कि कांग्रेस एकला चलो की राह पकड़ने की बजाए गठबंधन की राह पकड़ कर चले,लेकिन कांग्रेस की मजबूरी यह है कि यूपी में कांग्रेस आज वैसे ही अछूत हो गई है,जैसे कभी भाजपा हुआ करती थी। कोई भी उससे हाथ मिलाने को तैयार नहीं है। बड़े दलों की बात छोड़िए छोटे-छोटे दल भी कांग्रेस से दूरी बनाकर चल रहे हैं।ऐसे में कांग्रेस को थोड़ी-बहुत उम्मीद बसपा से बची थी। बसपा इस समय सियासी रूप से काफी कमजोर नजर आ रही है। उसके नेता एक-एक कर पार्टी छोड़ते जा रहे हैं,लेकिन दलित वोटरों की आज भी पहली पसंद बसपा ही है।

कांग्रेस को लग रहा था कि हासिए पर नजर आ रही बसपा उसके साथ गठबंधन का प्रस्ताव मान लेगी,इससे दोनों को ही फायदा होगा,लेकिन बसपा सुप्रीमों ने कांग्रेस को आड़े हाथ लेते हुए कांग्रेस की मुहिम की चाहट को ठेंगा दिखा दिया हैै। बसपा किसी भी सूरत में यूपी में कांग्रेस के साथ आने को तैयार नहीं है। इसके लिए बीएसपी नेता जहां पुराने अनुभव को सामने रख रहे है,वहीं अहम रोड़ा पंजाब विधान सभा के चुनाव भी बने हुए है,जिसमें कांग्रेस और बसपा आमने-सामने हैं। यूपी में बसपा यदि कांग्रेस से हाथ मिलाती है तो इसका खामियाजा उसे पंजाब में भुगतना पड़ सकता है।

वैसे राजनीति के कुछ जानकार अभी इस नतीजे पर नहीं पहुंचना चाहते हैं कि कांग्रेस-बसपा गठबंधन किसी भी सूरत में नहीं हो सकता है।यह लोग कह रहे हैं कि यूपी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी के चुनाव पूर्व गठबंधन की संभावनाएं अभी ख़त्म नहीं हुई है।कांग्रेस के लिए संकटमोचक की भूमिका निभा रहे प्रशांत किशोर को बसपा के साथ गठबंधन हेतु कुटनीतिक मुहिम चलाने की जिम्मेदारी भी सौंपी गई है।

पुराने कांग्रेसी और पार्टी के सचिव भक्त चरण दास ने साफ़ तौर पर कहा है कि हम बसपा के साथ गठबंधन की  संभावना पर  खुले मन से काम कर रहे हैं। उधर बसपा के अंदरूनी सूत्रों का भी कहना है कि मायावती किसी भी पार्टी से गठबंधन न करने के अपने फैसले पर पुनर्विचार कर रही है,कांग्रेस के साथ चुनाव पूर्व गठबंधन को लेकर अंतिम तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता ,लेकिन यह तय है कि अगर बसपा को चुनाव पूर्व या चुनाव के बाद गठबंधन की जरुरत पड़ी तो वो कांग्रेस के साथ जायेगी।

बहरहाल,बसपा सुप्रीमो मायावती ,अगर कांग्रेस के साथ चुनाव पूर्व गठबंधन को लेकर उलझन में हैं तो इसके पीछे कई कारण हैं। चुनाव पूर्व सर्वेक्षण के नतीजों से आश्वस्त बसपा को लगता है कि  यूपी में अगले वर्ष होने वाले विधानसभा चुनाव में उन्हें स्पष्ट बहुमत मिलेगा ,वहीँ  साथ में मायावती समेत पार्टी के कुछ वरिष्ठ नेताओं को इस बात का डर भी  है कि नितीश कुमार के महागठबंधन और ओवैसी की पार्टी के चुनाव मैदान में उतरने से कई सीटों पर मुकाबला बहुकोणीय हो सकता है और अगर ऐसा हुआ तो उसका सबसे ज्यादा नुकसान बसपा को होगा।

बात कांग्रेस की कि जाए तो कांग्रेस की मौजूदा रणनीति यूपी में अधिकतम 100 सीटों को हासिल करने की है। भले ही पार्टी सवर्ण सीएम की बात कहकर प्रदेश के सवर्णों के वोटबैंक पर कब्जे का मंसूबा बनाती दिख रही हो ,लेकिन हकीकत यह है कि कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी चुनौती यूपी में अपने दो दशक पुराने मुस्लिम और दलित वोट बैंक को हासिल करना है।इन दोनों में मुस्लिम वोट बैंक पर कब्ज़ा पाना पार्टी के लिए ज्यादा आसान है क्यूंकि यूपी में अखिलेश राज में हुए दंगों और समाजवादी पार्टी की कथित वादा खिलाफी की वजह से  प्रदेश के मुस्लिम बेहतर विकल्प ढूंढ रहे हैं।

ऐसे में उनके पास कांग्रेस और ओवैसी की पार्टी के अलावा कोई तीसरा विकल्प नहीं है।अगर बसपा कांग्रेस का गठबंधन होता है तो बसपा को उन सीटों पर सीधा लाभ मिल सकता है जहाँ वो मुस्लिम वोटों के एकतरफा सपा के पक्ष में पड़ने की वजह से हारती रही है। वहीँ दूसरी तरफ सुरक्षित सीटों पर कांग्रेस के पक्ष में दलित वोटों के शिफ्ट होने की समस्या भी ख़त्म हो जाएगी। कांग्रेस-बसपा गठबंधन न होने का बड़ा कारण है पंजाब विधानसभा चुनाव जो यूपी के साथ ही होने जा रहा है। वहां बसपा का शिरोमणि अकाली दल के साथ गठबंधन है। 117 सीटों में से शिरोमणि अकाली दल ने 20 सीटें बसपा को दी हैं।

इन सभी सीटों पर बसपा का सीधा मुकाबला कांग्रेस से हैं। इनमें से 18 सीटों पर तो हाल में कांग्रेस के ही विधायक हैं। हालांकि, सीटों के बंटवारे को लेकर पंजाब में भी असंतोष है। कुछ बसपाई कह रहे हैं कि अकाली दल ने ऐसी सीटें बसपा को दी हैं, जिनपर बसपा का जनाधार कम है। इनमें पचास प्रतिशत सीटों पर तो उसका काडर वोटर बेहद कम है।

बसपा सुप्रीमों मायावती कांग्रेस के गठबंधन के आफर को क्यों महत्व नहीं दे रही हैं। इसकी गहराई में जाया जाए तो पता चलता है कि कांग्रेस पिछले कुछ महीनों से जिस तरह की सियासत कर रही है,उससे मायावती काफी नाराज चल रही हैं।  इनमें सबसे अहम कारण कांग्रेस द्वारा पंजाब में दलित नेता चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बनाना है।पंजाब में कांग्रेस ने वहां बड़ा दलित कार्ड खेला जबकि वहां कांग्रेस व बसपा आमने-सामने हैं। इतना ही नहीं, लखीमपुर खीरी में चन्नी की जबरदस्त आमद कराई गई और उन्होंने यहां तिकुनिया प्रकरण के पीड़ित किसानों को 50-50 लाख रुपये की आर्थिक सहायता दी। बसपा मानकर चल रही है कि कांग्रेस का यह निशाना पूरी तरह से बसपा के काडर वोटर को साधने के लिए है। इसी तरह से मार्च 2019 में प्रियंका गांधी अचानक भीम आर्मी के मुखिया चंद्रशेखर आजाद से मिलने अस्पताल पहुंच गई थीं। दरअसल चंद्रशेखर ‘बहुजन अधिकार यात्रा’ निकाल रहे थे।

अचानक तबीयत खराब होने पर उन्हें मेरठ के एक निजी अस्पताल में भर्ती कराया गया। वहां अचानक प्रियंका गांधी तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष राजबब्बर व तत्कालीन पश्चिमी यूपी प्रभारी ज्योतिरादित्य सिंधिया को साथ लेकर उनसे मिलने पहुंच गईं और कहा कि चंद्रशेखर का संघर्ष उन्हें पसंद आया। बसपा मानकर चल रही है कि चंद्रशेखर से उनकी यह मुलाकात अनायास नहीं बल्कि बसपा के खिलाफ सुनियोजित थी। इसके अलावा बसपा की निगाह इस विधानसभा चुनाव के साथ-साथ वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव पर भी है। बसपा थिंक टैंक को लग रहा है कि इस चुनाव में यदि कांग्रेस से हाथ मिलाया गया तो इसके दूरगामी प्रतिकूल परिणाम हो सकते हैं। 2024 के लोकसभा चुनाव में कहीं उसका काडर वोटर उससे छिटक न जाए क्योंकि भाजपा भी पूरी तरह से उसके वोटर को रिझाने की कोशिश में है। ऐसे में उसको नुकसान हो सकता है।

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