एक गुरुजी थे, प्रतिदिन समय से विद्यालय जाते और अध्यापन कार्य से मुक्त होकर ससमय घर वापस आ जाते थे।यही उनकी प्रतिदिन की दिनचर्या थी। जिस दिन विद्यालय में छुट्टी रहती,उस दिन थोड़ा देर से सोकर उठते। एक दिन रविवार था, सुबह हुए लगभग 2-3 घंटे हो गए थे, गुरु जी अभी सो रहे थे, गुरु जी को सोता हुआ देखकर उनकी सहधर्मिणी ने झकझोरते हुए कहा, आज छुट्टी है, बच्चों को बाहर घुमाने नहीं ले जाएंगे क्या? गुरुजी ने नींद में ही कहा ले जाएंगे! कितना बज रहा है? गुरु जी की पत्नी ने कहा पहले उठिए, फिर बताते हैं कितना बजा है? बच्चे कब से उठ कर नहा धो चुके हैं और अभी आपकी नींद ही नहीं खुल रही है।
जीवनसंगिनी की बातें और बच्चों का कोलाहल सुनकर गुरुजी नींद व बिस्तर को त्याग, धरती माता को प्रणाम करते हुए उठ बैठे, और नित्य क्रिया निवृत्ति हेतु ‘विशेष कक्ष’ की ओर प्रस्थान किए। वहां से निवृत्त होकर ‘बालकनी’ में कुर्सी पर विराजमान हो गए और अपनी वामांगी द्वारा गुनगुना पानी प्राप्त कर जैसे ही एक घूंट पान किया , तभी कानों में एक विशेष ध्वनि सुनाई दी। एक ऐसी ध्वनि जिसको गुरुजी ने पहली बार अपनी श्रवणेंद्रियों के माध्यम से महसूस किया था, और उस ध्वनि ने गुरु जी को अंदर से झकझोर दिया था।
उस ध्वनि में कुछ ऐसी मादकता, सम्मोहन व आकर्षण था कि अनायास ही तन और मन उसी ध्वनि की ओर आकर्षित होता जा रहा था। अनायास अश्रुओं से नयनों में नमी आ रही थी।वह ध्वनि गुरु जी को किसी की याद दिला रही थी,यथा- मीरा के गिरधर गोपाल की , जो अपनी मधुर मुरली की मादकता से मनमोहित कर सभी मानव के साथ-साथ पशुओं, पक्षियों को भी मदमस्त कर देते थे।
उस ध्वनि को सुनकर गुरुजी मन ही मन उस बात की वास्तविकता का अनुभव रहे थे, कि कैसे किसी मनमोहक ध्वनि को सुनकर एक हिरण ठिठक जाता है, रुक जाता है और स्वयं अपने काल का वरण कर लेता है।
इन यादों को जीवंत करने वाली वह ध्वनि एक फेरीवाले की थी। जिसने अपने एक हाथ में रंग -बिरंगे, छोटे- बड़े गुब्बारे और अनेक प्रकार की बांसुरियों से गुथे हुए मोटे डंडे को कंधे के सहारे पकड़े हुए हैं तथा दूसरे कंधे में एक भारी थैला लटकाए हुए है,जिसमें शायद कुछ बिना हवा वाले गुब्बारे व कुछ बासुरियां हैं।
उसी हाथ से फेरीवाला बांसुरी को अपने अधरों पर लगाए हुए ऐसी सुमधुर ध्वनि निकाल रहा है, जो अनायास ही गुरुजी के ध्यान व चित्त को अपनी ओर आकर्षित किए जा रही थी। अब वह फेरीवाला बालकनी के ठीक नीचे आ चुका था और उसके अधरों से निकलने वाली वह ध्वनि सीधे अंतस को जा रही थी। धीरे-धीरे वो आगे बढ़ गया और बंद गली के आखिरी मकान तक जाकर, वही तन मन को सम्मोहित कर देने वालीअत्यंत कारुणिक ध्वनि बजाते हुए वापस जाने लगा।
उसकी सुमधुर ध्वनि ने गुरु जी को विचार व विवेक से शून्य कर दिया था। गुरुजी उसे रोककर बच्चों के लिए कुछ गुब्बारे लेना चाह रहे थे, लेकिन मधुर ध्वनि के आगे ध्यान ही न रहा, फेरीवाला जब दूसरी गली में पहुंच गया,तब गुरु जी का ध्यान भंग हुआ।
गुरुजी पश्चाताप करते हुए उस फेरीवाले के बारे में जानने के लिए छटपटाने लगे। तभी गुरु जी के एक शिक्षक मित्र जो वास्तव में इंसान और इंसानियत के जीते जागते मिसाल हैं,जिनका हृदय सागर से भी बड़ा है, जिन्हें कभी भी छल, दंभ, द्वेष, पाखंड, झूठ, अन्याय ने रंच मात्र भी छुने की हिमाकत नहीं की। सामने ही दूसरी गली में रहते थे, फोन किए और उस ध्वनि के बारे में पूछते हुए बोले, सुबह-सुबह इतनी करुणा से परिपूर्ण ध्वनि कौन निकाल रहा है?
गुरु जी ने अपने मित्र से संपूर्ण घटना का आंखों देखा हाल कह सुनाया और बोले, कमरे से निकलिए और चलिए चौराहे तरफ देखते हैं शायद वह फेरीवाला मिल जाय। अगर वह मिल जाय तो उसके बारे में कुछ जाना जाय कि आखिर कैसे उसके अधरों से हृदय को झंकृत कर देने वाली ध्वनियां निकल रही हैं। दोनों शिक्षक मित्र बाहर निकले।गुरु जी अपने दोनों बच्चों के साथ और गुरुजी के शिक्षक मित्र एक थैला लिए, जिसमें कुछ कपड़े ‘इस्त्री’ करने हेतु देने के लिए हाथ में लिए अपने-अपने आवास से बाहर निकले। दोनों लोग चौक पर पहुंचते हैं, चाय वगैरह पीते हैं, और जैसे ही वापस चलने लगते हैं कि फेरीवाला दिख जाता है। गुरुजी, दौड़ कर उस फेरीवाले को अपने पास बुलाते हैं। चाय की दुकान पर बैठाते हैं, उसे पानी व चाय पिलाते हैं, फिर अपनी जिज्ञासा का शमन करने लगे!
फेरीवाला अपनी सुमधुर ध्वनि का राज़ खोलते हुए कहता है कि- मेरा इस संसार में कोई नहीं है, किसी समय मेरा भी भरा-पूरा, हंसता -खेलता परिवार था। एक बार हम सभी परिवार के सदस्य तीर्थाटन कर रहे थे। जिस बस में हम सभी सवार थे, वह दुर्घटनाग्रस्त हो गई, जिसमें से केवल मैं ही जीवित हूं। बाकी सब काल के गाल में समा गए। मैं अब इन गुब्बारों और बांसुरियों को बेच-बेच कर अपने पेट का पोषण करता हूं, जितने दुख इस हृदय ने सहा है, वही अब अधरों के माध्यम से बांसुरियों का सहारा लेकर ध्वनि के रूप में व्यक्त हो रहा है। यह बात सुनकर गुरु जी की आंखें भर आई और गुरु जी नें सांत्वना भरे शब्दों में उस फेरीवाले को ढाढस बंधाते हुए यथासंभव वित्तीय मदद कर ही रहे थे कि अनायास उनके मुख से निकल पड़ा –‘दुख ही जीवन की कथा रही, क्या कहूँ आज, जो नहीं कही!’