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फीके पड़ते होली के रंग

पहले की होली और आज की होली में अंतर आ गया है, कुछ साल पहले होली के पर्व को लेकर लोगों को उमंग रहता था, आपस में प्रेम था। किसी के भी प्रति द्वेष भाव नहीं था। आपस में मिल कर लोग प्रेम से होली खेलते थे। मनोरंजन के अन्य साधनों के चलते लोगों की परंपरागत लोक त्योहारों के प्रति रुचि कम हुई है। इसका कारण लोगों के पास समय कम होना है। होली आने में महज कुछ ही दिन शेष हैं, लेकिन शहर में होली के रंग कहीं नजर नहीं आ रहे हैं। एक माह तो दूर रहा अब तो होली की मस्ती एक-दो दिन भी नहीं रही। मात्र आधे दिन में यह त्योहार सिमट गया है। रंग-गुलाल लगाया और हो गई होली। जैसे-जैसे परंपराएं बदल रही है, रिश्तों का मिठास खत्म होता जा रहा है।

होली एक ऐसा रंगबिरंगा त्योहार है, जिसे हर धर्म के लोग पूरे उत्साह और मस्ती के साथ मनाते रहे हैं। होली के दिन सभी बैर-भाव भूलकर एक-दूसरे से परस्पर गले मिलते थे। लेकिन सामाजिक भाईचारे और आपसी प्रेम और मेलजोल का होली का यह त्यौहार भी अब बदलाव का दौर देख रहा है। फाल्गुन की मस्ती का नजारा अब गुजरे जमाने की बात हो गई है।

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कुछ सालों से फीके पड़ते होली के रंग अब उदास कर रहे हैं। शहर के बुजुर्गों का कहना है कि ‘ न हंसी- ठिठोली, न हुड़दंग, न रंग, न ढप और न भंग’ ऐसा क्या फाल्गुन? न पानी से भरी ‘खेळी’ और न ही होली का …..रे का शोर। अब कुछ नहीं, कुछ घंटों की रंग-गुलाल के बाद सब कुछ शांत। होली की मस्ती में अब वो रंग नहीं रहे। आओ राधे खेला फाग होली आई….तांबा पीतल का मटका भरवा दो…सोना रुपाली लाओ पिचकारी…के स्वर धीरे धीरे धीमे हो गए हैं।

फीके पड़ते होली के रंग

फाल्गुन लगते ही होली का हुड़दंग शुरू हो जाता था। मंदिरों में भी फाल्गुन आते ही ‘फाग’ शुरू हो जाता था। होली के लोकगीत गूंजते थे। शाम होते ही ढप-चंग के साथ जगह-जगह फाग के गीतों पर पारंपरिक नृत्य की छटा होली के रंग बिखेरती थी। होली खेलते समय पानी की खेली में लोगों को पकडक़र डाल दिया जाता था। कोई नाराजगी नहीं, सब कुछ खुशी-खुशी होता था। वसंत पंचमी से होली की तैयारियां करते थे। चौराहे पर समाज के नोहरे व मंदिरों में चंग की थाप के साथ होली के गीत गूंजते। रात को चंग की थाप पर गैर नृत्य का आकर्षण था। बाहर से फाल्गुन के गीत व रसिया गाने वाले रात में होली की मस्ती में गैर नृत्य करते थे।

पहले की होली और आज की होली में अंतर आ गया है, कुछ साल पहले होली के पर्व को लेकर लोगों को उमंग रहता था, आपस में प्रेम था। किसी के भी प्रति द्वेष भाव नहीं था। आपस में मिल कर लोग प्रेम से होली खेलते थे। मनोरंजन के अन्य साधनों के चलते लोगों की परंपरागत लोक त्योहारों के प्रति रुचि कम हुई है। इसका कारण लोगों के पास समय कम होना है। होली आने में महज कुछ ही दिन शेष हैं, लेकिन शहर में होली के रंग कहीं नजर नहीं आ रहे हैं। एक माह तो दूर रहा अब तो होली की मस्ती एक-दो दिन भी नहीं रही। मात्र आधे दिन में यह त्योहार सिमट गया है। रंग-गुलाल लगाया और हो गई होली।

जैसे-जैसे परंपराएं बदल रही है, रिश्तों का मिठास खत्म होता जा रहा है। जहां तक होली का सवाल है तो अब मोबाइल और इंटरनेट पर ही ‘हैप्‍पी होली’ शुरू होती है और खत्म हो जाती है। अब पहले जैसा वो हर्षोल्लास नहीं रह गया है। पहले बच्चे टोलियां बनाकर गली-गली में हुड़दंग मचाते थे। होली के 10-12 दिन पहले ही मित्रों संग होली का हुड़दंग और गली-गली होली का चंदा इकट्ठा करना और किसी पर बिना पूछे रंग उड़ेल देने से एक अलग प्यार दिखता था। इस दौरान गाली देने पर भी लोग उसे हंसी में उड़ा देते थे। अब तो लोग मारपीट पर उतारू हो जाते हैं।

फीके पड़ते होली के रंग

पहले परायों की बहू-बेटियों को लोग बिल्कुल अपने जैसा समझते थे। पूरा दिन घरों में पकवान बनते थे और मेहमानों की आवभगत होती थी। अब तो सबकुछ बस घरों में ही सिमट कर रह गया है। आजकल तो मानों रिश्तों में मेल-मिलाप की कोई जगह ही नहीं रह गई हो। मन आया तो औपचारिकता में फोन पर हैप्पी होली कहकर इतिश्री कर लिए। अब रिश्तों में वह मिठास नहीं रह गया है। यही वजह है कि लोग अपनी बहू-बेटियों को किसी परिचित के यहां जाने नहीं देते। पहले घर की लड़कियां सबके घर जाकर खूब होली की हुल्लड़ मचाती थीं। अब माहौल ऐसा हो गया है कि यदि कोई लड़की किसी रिश्तेदार के यहां ही ज्यादा देर तक रुक गई तो परिवार के लोग चिंतित हो जाते हैं कि क्‍यों इतना देर हो गया। तुरंत फोन करके पूछने लगते हैं कि क्‍या कर रही हो, तुम जल्दी घर आओ। क्यों अब लोगों को रिश्‍तों पर भी उतना भरोसा नहीं रह गया है।

दूसरी ओर, होली के दिन खान-पान में भी अब अंतर आ गया है। गुझिया, पूड़ी-कचौड़ी, आलू दम, महजूम (खोवा) आदि मात्र औपचारिकता रह गई है। अब तो होली के दिन भी मेहमानों को कोल्ड ड्रिंक्स और फास्ट फूड जैसी चीजों को परोसा जाने लगा है। वहीं, होलिका के चारों तरफ सात फेरे लेकर अपने घर के सुख शांति की कामना करना, वो गोबर के विभिन्न आकृति के उपले बनाना, दादी-नानी का मखाने वाली माला बनाना, रंग-बिरंगे ड्रेस में अपनी सखी-सहेलियों संग घर-घर मिठाई बांटना, गेहूं के पौधे भूनना और होली के लोकगीतों को गाना। अब यह सब परंपराएं तो मानो नाम की ही रह गए हैं।

होली रोपण के बाद से होली की मस्ती शुरू हो जाती थी। छोटी बच्चियां गोबर से होली के लिए वलुडिये बनाती थी। उसमें गोबर के गहने, नारियल, पायल, बिछिया आदि बनाकर माला बनाती थी। अब यह सब नजर नही आता है। होली से पूर्व घरों में टेशु व पलाश के फूलों को पीस कर रंग बनाते थे। महिलाएं होली के गीत गाती थी। होली के दिन गोठ भी होती थी जिसमें चंग की थाप पर होली के गीत गाते थे। होली रोपण से पूर्व बसंत पंचमी से फाग के गीत गूंजने लगते थे। आज के समय कुछ मंदिरों में ही होली के गीत सुनाई देते हैं। होली के दिन कई समाज के लोग सामूहिक होली खेलने निकलते थे। साथ में ढोलक व चंग बजाई जाती थी, अब वह मस्ती-हुड़दंग कहां?

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