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बॉक्सिंग की दुनिया में भारत की महिलाओं के पावर पंच का कमाल

सातत्य ही विकास का खरा स्तंभ है। नई पीढ़ी हमेशा पिछली पीढ़ी की सफलता की बराबरी करने या फिर उनसे आगे निकलने के प्रयास में रत रहना चाहिए। जिससे भूतकाल की बराबरी या फिर उससे एक कदम आगे वर्तमान की यशोगाथा लिखी जा सके, जो आने वाली पीढ़ी के लिए ऐसी चुनौती बनी रहे और आगे बढ़ने का स्वप्न उनकी आंखों में साहस के साथ बस जाए। जब वर्तमान अपना समृद्ध और सिद्धि भरा होता है तो भूतकाल का प्रभुत्व बीता होने के बावजूद धुधला होने पर भी चमकते हुए सितारे की तरह बना रहता है।

भारतीय बॉक्सिंग जगत में भी वर्तमान पीढ़ी अपनी सख्त मेहनत और परिश्रम के सहारे दुनिया भर में डंका बजा रही है। अपने यहां आयोजित महिला बाक्सिंग की विश्व चैम्पियनशिप में भारत की एक साथ चार बाक्सरों ने स्वर्ण पदक हासिल कर के 17 साल पुराना इतिहास दोहरा दिया है। इसी के साथ विश्वविजेता बनने के लिए प्रतियोगिता में श्रेष्ठता के शिखर को भी प्राप्त कर लिया है। भारत को विश्वविजेता बना कर गौरव दिलाने वाली महिला बाक्सरों में निखत जरीन, लवलीना बोर्गोहेन, नीतू घंघास और स्वीटी बूरा का नाम शामिल है। जिन्होंने अपनी प्रतिभा द्वारा मात्र प्रतियोगी मुक्केबाजों को ही नहीं, परिस्थितियों को भी धूल चटा दिया है। उनकी बाक्सिंग रिंग की सफलता की चमक उनकी जिंदगी की रिंग को जीतने के कारण अधिक ओजस्विता के साथ चमक रही है।

मेरी काम और एल सरिता देवी जैसी बॉक्सरों ने विश्व फलक पर भारत का नाम चमकाया है। उनकी इस सफलता की चर्चा देश की किशोरियों के कानों में गूंजी तो उन्हें एक नई राह मिली। हर नई शुरुआत कभी आसान नहीं होती। पर जो शुरुआत के विघ्नों और मुश्किलियों के बीच टिका रहता है, वही बीज से वटवृक्ष का रूप हासिल कर सकता है। भारत की नई वर्ल्ड चैम्पियन बाकसरों की सफलता चमक और संघर्ष भरी राह आने वाली पीढ़ी के लिए एक मिसाल बनेगी।

महिला बॉक्सर

गांधी से कहते थे कि जो एक के लिए अच्छा संभव है, वह सभी के लिए अच्छा संभव है। राष्ट्रपिता के यही शब्द ज्यादातर लोगों की हर सफलता की कहानी में सार के रूप में दिखाई देता है। निखत जरीन मात्र 26 साल की उम्र में ही दो बार वर्ल्ड चैम्पियन का खिताब हासिल कर चुकी हैं। उनकी इस सफलता का रहस्य यह है कि उन्होंने लगातार दो वर्ल्ड चैम्पियनशिप में दो अलग-अलग कैटेगरी में विश्वविजेता बनने का स्वप्न साकार किया है। इसी के साथ ही वह भारतीय बाक्सिंग के इतिहास में मेरी काम के बाद एकमात्र ऐसी बाक्सर हैं, जिनके पास एक से अधिक विश्व चैम्पियनशिप के गोल्ड मेडल हैं।

आंध्रप्रदेश के निजामाबाद में रहने वाले एक मुस्लिम परिवार में पैदा हुई निखत में बचपन से ही कुछ नया करने की तमन्ना थी। उनके पिता मोहम्मद जमील अहमद एस्टेट एजेंट के रूप में काम करने वाले एक जमाने में अच्छे फुटबालर और क्रिकेटर रह चूके थे। उन्होंने ही छोटी निखत को बाक्सिंग के लिए प्रोत्साहित किया और 13 साल की उम्र से उसकी ढ़ंग से तालीम शुरू हुई। निखत को विशाखापट्टनम में द्रोणाचार्य अवार्ड जीत चुके आई वी राव जैसा कोच मिला। फिर भी निखत की राह आसान नहीं थी।

रूढ़िवादी समाज का सामना उसे ही नहीं, उसके परिवार को भी करना पड़ा। पर उसके मन में बाक्सिंग छोड़ने का विचार तक नहीं आया। उस समय राज्य में महिला बाक्सरों की संख्या अंगुली पर गिनी जा सके, इतनी थी, जिसके कारण निखत को लड़कों के साथ प्रैक्टिस करनी पड़ती थी। जीवन के एक के बाद एक पंच निखत और उसके परिवार पर पड़ रहे थे, पर वह हार मानने को तैयार नहीं थी।

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आखिर 15 साल की उम्र में निखत ने जूनियर वर्ल्ड चैम्पियनशिप में स्वर्ण पदक जीता और अपनी प्रतिभा का चमत्कार पहली बार विश्व स्तर पर दिखाया। इस सफलता से लोग उसे जानने लगे। कल तक जो लोग उसे समाज के लिए कलंक मान रहे थे, अब वही उसकी प्रशंसा करते नहीं थक रहे थे। निखत की सालों की मेहनत अब रंग ला रही थी। उसे 2019 के एशियन गेम्स में कांस्य पदक मिला, जिससे वह संतुष्ट नहीं थी। उसने अपनी प्रैक्टिस के घंटे बढ़ा दिए और उसके बाद 2022 में वर्ल्ड चैम्पियनशिप और कामनवेल्थ गेम्स में डबल गोल्ड मेडल की माइलस्टोन सिद्धि हासिल की। अब उसे अपने इस इस गोल्डन रन को आगे बढ़ाना है, जो आगामी समय में भी जारी रहेगा और लगता है कि भारत को अधिक वर्ल्ड टाइटल मिलेगा।

निखत ने परिस्थिति और समाज से संघर्ष कर के सफलता पाई तो 48 किलोग्राम के वजन की श्रेणी में चैम्पियन बनी नीतू घंघास की सफलता तो स्वप्नसिद्धि के समान है। 22 साल की नीतू की वेट कैटेगरी यह है कि जिसमें बाक्सिंग लेजंड मेरी काम भी भाग लेती हैं। स्वाभाविक है कि इस स्थिति में नीतू के आगे बढ़ने की संभावना कम ही रह जाती है। जब मल्टीपल वर्ल्ड चैम्पियन के सामने राष्ट्रीय चैम्पियनशिप में खेलना होता है तो स्वाभाविक रूप से अच्छों अच्छों को पसीना आ जाता है। जबकि नीतू ने घबराने के बजाय इस परिस्थिति को चुनौती के रूप में स्वीकार कर लिया। उन्हें लगा कि अगर मैं यहां मेरी काम को हरा दूं तो उसके बाद मुझे कोई नहीं हरा सकेगा। 2022 के कामनवेल्थ गेम्स के ट्रायल में नीतू से मुकाबले में मेरी काम घायल हो गईं तो नीतू ने कामनवेल्थ गेम्स का गोल्ड मेडल जीत लिया। चोट के कारण मेरी काम वर्ल्ड चैम्पियनशिप में भी नहीं उतरीं और नीतू ने उनके दबदबे को पीछे कर के विश्वविजेता का खिताब हासिल कर लिया।

महिला बॉक्सर

हरियाणा में नीतू के कैरियर में उनके पिता जय भगवान ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। सरकारी नौकरी करने वाले जय भगवान को बचपन में ही पता चल गया था कि उनकी बेटी अन्य बच्चों की अपेक्षा अधिक प्रवृत्तिशील और जोश रखने वाली है। इसलिए उन्होंने उसे बाक्सिंग की कोचिंग में दाखिल कराने का निर्णय लिया। फिर तो उन्होंने तीन साल का अवैतनिक अवकाश लिया और बेटी के कैरियर को बनाने के लिए लोन लिया। उसे हिम्मत भी दी। उस समय विजेन्दर जैसे ओलम्पिक मेडलिस्ट बाक्सर के कोच जगदीश सिंह की नजर उस पर पड़ी तो उन्होंने उसकी प्रतिभा को तराशा, जिसे आज कामनवेल्थ और वर्ल्ड चैम्पियन कै रूप में दुनिया जानती है।

भारत के ओलम्पिक की महिला बॉक्सिंग के इतिहास में अब तक दो मेडल मिले हैं। दोनों मेडल पूर्वोत्तर की प्रतिभाशाली बाक्सर मेरी काम और आसामिया बॉक्सर लवलीना बोर्गोहेन के नाम हैं। आसाम के गोलाघाट के बारोमुखिया गांव के अत्यंत गरीब परिवार में जन्मी लवलीना के पिता टिकेत चाय की बाग में काम करते हैं। लवलीना अपनी दो बड़ी बहनों और मां के साथ रहती है। उसके पिता सप्ताह में किसी एक दिन घर आ सकते थे। कम आय और परिवार में कोई बेटा न होने से गांव वालों के लिए बोर्गोहेन परिवार दया का पात्र था। टिकेत ने नौकरी की वजह से घर में न रहने पर बेटियों को अपनी सुरक्षा के लिए थाई-बाक्सिंग सिखाने का निर्णय लिया।

पढ़ाई के दौरान मार्शल आर्ट जैसी इवेंट में भाग लेने वाली लवलीना की सफलता लगभग तय होती थी। उसकी ऊंचाई उसके लिए फायदेमंद रहती थी। उसकी कुशलता और तेजी से प्रभावित हुए कोच पदुम चंद्रा बोडो ने लवलीना को बाक्सिंग शुरू करने की सलाह दी। उनकी इस सलाह को लवलीना के परिवार वालों ने सहर्ष स्वीकार भी कर लिया। स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया ने उसकी प्रतिभा को निखारने का फैसला लिया। उसकी तालीम और अभ्यास की जिम्मेदारी स्वीकार कर लेने से परिवार को आर्थिक रूप से थोड़ी राहत महसूस हुई। इसके बाद संध्या गुरुंग ने लवलीना के विकास में अधिक रुचि ली। लवलीना की बाक्सर के रूप में कैरियर जिस साल शुरू हुआ, उसी साल ओलम्पिक में महिला बाक्सिंग का समावेश हुआ और मेरी काम ने ऐतिहासिक ब्रांज मेडल हासिल किया।

महिला बॉक्सर

लवलीना की पांच साल की सख्त मेहनत रंग लाई और उसने सर्वप्रथम मेडल 2017 में एशियन चैम्पियनशिप में कांस्य के रूप में जीता। इसके बाद एशियन और वर्ल्ड चैम्पियनशिप का कांस्य से उसके कैरियर में चमक आई। टोक्यो में 2021 में आयोजित ओलम्पिक के कांस्य पदक ने लवलीना के कैरियर के रेकॉर्डबुक में अमिट स्थान दिलाया। इनका कैरियर कांस्य से आगे नहीं बढ़ सकता, यह सवाल भी उठा। जबकि 25 साल की लवलीना ने यह सवाल करने वालों को जवाब देते हुए अपने कैरियर का पहला एशियन चैम्पियनशिप का और अब वर्ल्ड चैम्पियनशिप का गोल्ड मेडल जीत लिया है।

बुराई तब बढ़ती है जब अच्छे लोग कुछ नहीं करते?

चारों बॉक्सरों में वर्ल्ड चैम्पियनशिप के गोल्ड मेडल के लिए सब से लंबा इंतजार 30 साल की स्वीटी बूरा को करना पड़ा है। हरियाणवी बाक्सर स्वीटी के पिता महेन्द्र सिंह बास्केटबॉल के नेशनल प्लेयर रह चुके थे। उन्होंने अपनी बेटी को कबड्डी में आगे बढ़ने की प्रेरणा दी। राज्य स्तर की कबड्डी प्लेयर रह चुकी स्वीटी की विशिष्ट प्रतिभा को देखते हुए उसके पिता ने उसे बाक्सिंग जैसा व्यक्तिगत खेल अपनाने के लिए प्रेरित किया तो 16 साल की उम्र से स्वीटी ने बाक्सिंग शुरू की।

एशियन चैम्पियनशिप सहित मेजर टूर्नामेंट में सफलता के बाद 2014 में उसने वर्ल्ड चैम्पियनशिप के फाइनल तक का सफर तय किया। वहां उसे सिल्वर से संतोष करना पड़ा। ओलम्पिक खेलने का भी उसका प्रयास सफल नहीं हुआ और यह माना जाने लगा कि उसका कैरियर वर्ल्ड चैम्पियनशिप के सिल्वर से ही पूरा हो जाएगा। लेकिन सात साल के इंतजार के बाद उसे वर्ल्ड चैम्पियनशिप के फाइनल में पहुंच कर स्वर्ण सिद्धि हासिल कर सभी को चौंका दिया। उसकी सफलता में उसके पिता के साथ पति दीपक हुड्डा की महान भूमिका है, जो भारतीय कबड्डी टीम का कैप्टन रह चुका है।

अब वर्ल्ड चैम्पियनशिप के बाद भारत की इन बाक्सरों को पेरिस ओलम्पिक का रुख करना है। बाक्सिंग फेडरेशन और ओलम्पिक कमेटी के बीच के टकराव के कारण वर्ल्ड चैम्पियन होने के बावजूद इन बाक्सरों को पेरिस के लिए क्वालिफाई होना पड़ेगा। पर इनकी सफलता को देखते हुए पेरिस में भारत महिला बाक्सिंग में मेडल मिलना तय माना जा रहा है।

          वीरेंद्र बहादुर सिंह

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