दहेज एक ऐसी कुप्रथा है जिससे लड़कियों की मानसिक स्थिति पर गहरा असर पड़ता है. कहते हैं देश बदल रहा है, समाज बदल रहा है, नित्य तरक्की के नए-नए प्रतिमान गढ़े जा रहे हैं, बड़े-बड़े स्लोगन, भाषण और संगोष्ठियां आयोजित हो रही हैं. लेकिन क्या जमीन पर ऐसा दिखता है? क्या समाज की मानसिकता में बदलाव आया है? हैरत की बात यह है कि आज के इस बदलते दौर में भी दहेज जैसी कुप्रथा का चलन बदस्तूर जारी है. यह कुप्रथा शहरों में भी देखने को मिलती है. लेकिन शहरों की अपेक्षा देश के ग्रामीण क्षेत्रों में दहेज़ के नाम पर अत्याचार अधिक देखने को मिलती है. हालांकि क़ानूनी रूप से न केवल दहेज़ लेना बल्कि देना भी अपराध है. इस प्रथा को रोकने के लिए सरकार ने दहेज निषेध अधिनियम कानून भी बनाया है जिसे 1961 में लागू किया गया था. इस कानून के अनुसार दहेज लेन-देन या इसके लेन-देन में सहयोग करने पर भी सश्रम कठोर सजा व जुर्माने का प्रावधान है. लेकिन इस कानून का कोई पालन नहीं करता है. अभिभावक इस बात से डरते हैं कि अगर हमने लड़के वाले के विरुद्ध आवाज उठाई तो वह बाद में लड़की को परेशान करेंगे. ऐसी स्थिति का सामना कर रही लड़कियों का दर्द शिक्षित कहे जाने वाले समाज को मुंह चिढ़ाती हैं.
देश के लगभग सभी राज्यों की तरह बिहार के मुजफ्फरपुर जिला स्थित साहेबगंज प्रखंड अंर्तगत सुदूर गांव हुसेपुर की लड़कियां भी दहेज जैसी कुप्रथा को लेकर काफी चिंतित हैं. यह इलाका नारायणी नदी किनारे का है. जहां जागरूकता की कमी के कारण महिलाओं में शिक्षा का स्तर बिल्कुल ही निम्न है. यहां दहेज के कारण अभिभावक लड़कियों को बेहतर शिक्षा दिलाने से हिचकते हैं. इसके पीछे उनकी मंशा यह होती है कि उनकी पढ़ाई में खर्चें और उसके बाद दहेज के लिए पैसे कहां से लाएं?
नकल विरोधी कानून: मेहनत की सिसकियां, नकल माफिया और राजनीतिक बैसाखियां
जब पढ़ा कर भी दहेज़ देनी है तो शिक्षा पर पैसे क्यों खर्च करें? इस संबंध में गांव की वृद्ध महिला लक्ष्मी देवी कहती हैं कि मां बाप लड़की के जन्म लेते ही उसके पालन-पोषण, पढ़ाई-लिखाई के बारे में नहीं सोचकर उसकी शादी में होने वाले खर्चे और दहेज के बारे में सोचने लगते हैं. अगर दहेज़ नहीं देंगे तो वह (ससुराल वाले) लड़की को तंग करेंगे, उसके साथ अत्याचार करेंगे और हो सकता है कि उसे जला कर मार दिया जाए.
क्यों झेल रही निराशा, स्वास्थ्य कार्यकर्ता आशा?
दहेज़ के कारण होने वाली हत्या का ज़िक्र करते हुए 35 वर्षीय मंजू देवी कहती हैं कि कुछ साल पहले दहेज के कारण उनकी ननद राधा (बदला हुआ नाम) को जलाकर मार दिया गया था. लड़के वालों को दहेज के तौर पर और अधिक पैसा चाहिए थे. वह इसके लिए उनकी ननद के साथ शारीरिक और मानसिक अत्याचार करते रहते थे. आखिरकार एक दिन उन्होंने उसे जला कर मार दिया. जब घरवाले उसके ससुराल पहुंचे तो उनसे कह दिया गया कि राधा ने आत्महत्या कर ली है. लेकिन शिक्षा और कानून की जानकारी नहीं होने के कारण राधा के घरवाले उसके ससुराल वालों के खिलाफ कोई कदम नहीं उठा सके.
यह कितनी शर्म की बात है कि कुछ पैसों के लिए मासूम राधा की जान ले ली गई. दहेज के कारण लड़कियों को बहुत कुछ सहना पड़ता है. चिंता की बात यह है कि यह बुराई मिटने की जगह स्टेटस सिंबल बनता जा रहा है. जिसे जितना अधिक दहेज मिलता है, उसे समाज में उतना ही ज़्यादा ऊंचा दर्जा दिया जाता है. शादी से पहले लड़का और लड़की के गुण और शिक्षा पर बात करने से पहले दहेज़ की बात की जाती है. तभी जाकर शादी की बात आगे बढ़ेगी. अगर शादी में जो तय पैसा है उसे पूरा न किया जाए, तो लड़की के साथ बहुत बुरा बर्ताव किया जाता है.
देश के विभिन्न राज्यों में दहेज हत्या के मामले आये दिन अखबार और टेलीविजन की सुर्खियों में रहते हैं. कभी दहेज की खातिर बहुएं जलाई जाती हैं, तो कभी दहेज की रकम पूरी नहीं मिलने की वजह से उसे प्रताड़ित किया जाता है. राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार दहेज हत्या के मामले में उप्र प्रथम और बिहार दूसरे स्थान पर है. बिहार में जितना अधिक दहेज उतनी अधिक प्रतिष्ठा मानी जाती है. लड़की वालों के समक्ष दहेज के लिए लड़के वाले मनचाहा डिमांड करते हैं.
यदि दहेज में किसी वस्तु की कमी रह गई तो ससुराल वाले लड़की को मानसिक व शारीरिक यातना और यंत्रणा देते हैं. यह हाल कमोबेश शिक्षित-अशिक्षित समाज में दृष्टिगत होता है. यही कारण है कि लड़की के जन्म से पहले ही उसे कोख में मार दिया जाता है. समाज में आज भी लड़कियों को कमतर आंका जाता है. हालांकि आज की लड़कियां सरकारी, गैर-सरकारी, व्यावसाय आदि कार्यों में पुरुषों से आगे निकल रही हैं. अब महिलाएं सुनहरे भविष्य के सपने भी संजोने लगी हैं, परंतु पिछड़े इलाकों में महिलाओं के प्रति समाज का नजरिया नहीं बदलना दहेज जैसी हिंसा को जन्म दे रहा है.
जागरूकता है नशा के खिलाफ कारगर हथियार
हालांकि 1961 में बनी दहेज निरोधक कानून में दहेज लेना और देना जुर्म माना गया है. 1983 में आइपीसी में संशोधन कर धारा 498 (दहेज प्रताड़ना) बनाई गई. इस धारा के तहत पत्नी को प्रताड़ित करने के मामले में सजा का प्रावधान किया गया है. धारा-498ए के तहत पत्नी को प्रताड़ित करने पर पति और रिश्तेदारों के खिलाफ कार्रवाई करने का प्रावधान वर्णित है. दहेज प्रताड़ना का मामला गैर-जमानती और संज्ञेय अपराध की श्रेणी में रखा गया है.
दोषी पाए जाने वाले को 3 साल कैद का प्रावधान है. वहीं दहेज हत्या का मामला भी गैर-जमानती व संज्ञेय अपराध की श्रेणी में आता है. दोषी पाए जाने वाले मुजरिम को 7 वर्षों की सजा और उम्रकैद का भी प्रावधान वर्णित है. ज्ञात हो कि किसी भी लड़की की शादी के 7 वर्षों के भीतर अगर महिला की संदिग्ध स्थिति में मौत होती है, तो आइपीसी की धारा-304बी के तहत दहेज हत्या का मामला दर्ज किया जा सकता है.
यह भी विचारणीय है कि दहेज के कुछ फर्जी मामले भी दर्ज होने लगे हैं. कानून का दुरुपयोग भी खूब हो रहा है. ऐसे फर्जी मामले लड़के वालों को तंग करने के लिए भी दर्ज हो सकते हैं. लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि दहेज़ के नाम पर अत्याचार ख़त्म हो जाते हैं. बहरहाल, समाज और देश से यह कुप्रथा जड़ से खत्म हो सकती है. इस लड़ाई में सभी महिलाओं को अपनी चुप्पी तोड़नी पड़ेगी. उन्हें अपने पैरों पर खड़ा होकर दहेज़ लोभियों को जवाब देना होगा. तभी खत्म होगी यह घृणित प्रथा. अन्यथा बहुएं रोज़ इस बुराई की भेंट चढ़ती रहेंगी. (चरखा फीचर)