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बीहड़: डाकुओं से मिली निजात, लेकिन अबतक नहीं हुआ विकास!

औरैया। जिले में करीब 30 किमी लम्बे यमुना के बीहड़ों में बसे दर्जनों गांवों के बाशिंदों ने 5 से 6 दशकों तक डाकुओं की गोलियों की गूंज सुनी और उनकी दास्तां स्वीकार कर चुनाव के दौरान उनके फरमानों पर मतदान किया। मगर अब जब पिछले करीब एक दशक से डाकुओं से मुक्ति मिली और अपनी स्वेच्छा से अपना जनप्रतिनिधि चुनने का मौका मिला तो जिसे भी जनप्रतिनिधि चुना उसने भी विकास पर कोई ध्यान न देकर उनकी भावनाओं को लूटने का ही काम किया है।

औरैया जिले में यमुना किनारे बीहड़ों में बसे दर्जनों गांवों जिनमें सिकरोढ़ी, बढ़ेरा, भूरेपुर कलां, जाजपुर, मलगवां मंदिर, गौहानी खुर्द, गौहानी कलां, कैथौली, असेवा, ततारपुर, असेवटा, बबाइन, सेंगनपुर, जुहीखा, कुआं गांव, फरिहा, बटपुरा, त्यौरलालपुर, भूरेपुरा, पाकर का पुर्वा, करके का पुर्वा, भरतौल, सिखरना, बीजलपुर, सिहौली, सढ़रापुर, गंगदासपुरा, रहटौली, भासौन, अस्ता, मई मानपुर, रोशनपुर, रम्पुरा आदि में 5 से 6 दशकों तक सिर्फ डाकुओं की गोलियों और चुनाव के दौरान फरमानों की गूंज सुनाई देती थी, जिससे यहां के निरीह निवासी पचासों साल पीड़ित रहे और कई बार अपनों को खोने का दंश झेला है, जब विना किसी कारण उनके अपनों को डाकुओं की गोली का शिकार होना पड़ा।

बीहड़ों में डाकुओं के आतंक व उत्पात देश की गुलामी के समय से शुरू हो गया था यों कहें कि वागी मान सिंह के समय से शुरू हुआ और बाद मोहर सिंह, माधव सिंह, मलखान सिंह से फूलन देवी, विक्रम मल्लाह, लाला राम, कुसुमा नाईन, श्री राम, फक्कड़ तिवारी, सलीम गुर्जर, निर्भय गुर्जर तक के नाम से इलाके की जनता थर्रा उठती थी। चम्बल घाटी से लेकर यमुना के बीहड़ों में डाकू गिरोहों के जातीय संघर्षों व मुखबिरी की शक के चलते बीहड़ में बसे गांवों में ना जाने कितने परिवार उजड़ गए। अपने को बादशाह साबित करने के लिए खूंखार डाकू गिरोहों के खतरनाक असलहे कई बार आमने सामने हुए, मगर बदमाशों के असलहों से निकली गोलियों का शिकार इलाके की गरीब और निरीह जनता ही हुयी।

1980 के दशक में आये दिन डाकू गिरोहों द्वारा किये जाने वाले नरसंहार को सुन सूबे की सरकार का भी पसीना छूट जाता था। डाकुओं की दरिंदगी के चलते कई गाँव खाली हो गए थे, कई परिवारों का सामूहिक कत्लेआम कर बीहड़ में ठहाके लगाने वाले डाकू राजनीति की सीढ़ी के सहारे देश की संसद में पहुँच गए। लेकिन इन्साफ की आस में सैकड़ों पीड़ित परिवार आज भी कोर्ट कचहरी का चक्कर लगा रहे हैं। जवानी में बिधवा हुयी महिलाए बूढी हो गयीं, मगर सरकार का कोई भी नुमाइंदा उनकी खोजखबर लेने नहीं पहुंचा।

बदले की भावना से हुए बेहमई व अस्ता कांड

घटना 14 फरवरी 1981 की है जब कानपुर देहात में यमुना के बीहड़ों में बसे गांव बेहमई में बैंडिट क्वीन फूलन देवी ने अपने साथ हुए दुष्कर्म का बदला लेने के लिए एक साथ 21 निर्दोष निरीह ठाकुरों की हत्या कर दी थी। जिसका बदला लेने के लिए फूलन देवी की शरणगाह माने जाने वाला औरैया जिले के घनघोर बीहड़ में यमुना के किनारे बसा गांव “अस्ता” 26 मई 1984 को डाकू लालाराम व श्रीराम गैंग की दरिंदगी का शिकार हुआ था। जहां पर गोलियों के निशान आज भी मिटे नहीं हैं और गोलियों के यही निशान आज भी पीड़ित परिवारों को बिचलित कर देते हैं।

80 के दशक में यूपी की राजनीति में कई बार उथल पुथल मची। यह वह दौर था जब चम्बल/यमुना घाटी के डकैतों की क्रूरता के चलते सूबे की सरकार का कई बार पसीना छूटा। चम्बल के इलाकों में रहने वाले ग्रामीणों की दशा दाँतों के बीच में रहने वाली जीभ के समान ही रही। आये दिन डकैतों द्वारा बेगुनाहों की हत्या, फिरौती के लिए ग्रामीणों का अपहरण और लूट की घटनाओं से इलाके की पुलिस पसीना छोड़ती रहती थी। लेकिन औरैया जिले के अस्ता गांव में डाकू लालाराम श्रीराम के कारनामे से सूबे की सरकार की भी नींद हराम हो गयी थी। 26 मई 1984 सूरज पश्चिम की दिशा में पहुँच कर अस्त होने की तैयारी में था। गाँव के लोग भी खेतों से अपना काम निपटा कर घरों की राह पकड़ चुके थे, तभी नाव के सहारे यमुना नदी पार कर अस्ता गांव में दर्जनों डाकुओं के साथ घुसे लालाराम व श्रीराम डाकू गिरोह के तमतमाते चेहरों को देख वहाँ के ग्रामीणों की सांसें थम गईं, वे डाकुओं के इरादों को जान चुके थे।

विशेष सहयोग-सुरेश मिश्रा   (वरिष्ठ पत्रकार, औरैया)

डाकूओं के आते ही गाँव में हाहाकार मच गया, गांव के मर्द अपनी जान बचाने के लिये घरों में, तो घर की चाहर दीवारी में कैद रहने वाली महिलाएं अपनी आबरू बचाने के लिये खेतों में जाकर दुबक गयी। लेकिन बेगुनाहो के खून के प्यासे डाकू लालाराम-श्रीराम और उसके साथी डकैत भला किसको छोड़ने वाले थे।

डकैतों ने घरों से खीच कर गांव वालो को एक स्थान पर खड़ा किया और पलक झपकते ही 15 मल्लाहों के सीनों को गोलियों से छलनी कर दिया और बाद में समूचे गांव को आग के हवाले कर पल भर में ही राख में तब्दील करने के बाद सारे के सारे डकैत पास के बीहडों में गुम हो गये। गांव में सन्नाटे की आहट पाते ही जब महिलाएं खेतों से घरों को लौटी तो उनकी आंखे फटी की फटी रह गयी। उनकी आखों के सामने थी एक के ऊपर एक पडी लाशें। इन्ही लाशों में कोई पति था तो कोई पुत्र, कोई ससुर था तो कोई देवर और किसी-किसी घर का तो कोई मर्द ही नही बचा था। डाकू लालाराम-श्रीराम की निगाह में अस्ता गाँव उसके विरोधी महिला डाकू फूलन देवी गिरोह का शरण स्थली था और यही एक मात्र कारण था जिसकी वजह से अस्ता की निरीह जनता से डाकू लालाराम-श्रीराम दुश्मनी मान बैठा था। डाकू गिरोह द्वारा 15 बेगुनाह लोगों के खून की होली खेलने से सूबे ही नहीं बल्कि समूचे देश में हा-हा कार मच गया था। इस घटना से यूपी की तत्कालीन विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार की नींद उड़ गयी थी। डकैतों की गिरफ्तारी के लिए पुलिस भी सक्रिय हुयी लेकिन डकैतों के खौफ के चलते पुलिस के पाँव भी बीहड़ की ओर जाने से डगमगाने लगे।

वक्त बीतता गया और उसी के साथ पुलिस की सुस्ती भी बढ़ती गयी, पुलिस स्टेशन में मुकद्दमा लिखा गया। अदालती कार्रवाई भी शुरू हुयी लेकिन मुल्जिम पुलिस की गिरफ्त से दूर ही रहे।

डाकुओं की दरिंदगी इस घटना के बाद भी खत्म नहीं हुई। उनके खौफ के चलते पंचायत चुनाव हो या फिर विधान सभा या लोक सभा का चुनाव, सभी में बीहड़ के दर्जनों गांवों में डाकुओं के फरमानों पर ही वोट डाले गए। खाकी का इकबाल जागा और साल 2010 तक इलाके के सभी डाकुओं का सफाया हो गया। अस्ता गांव के निवासियों को भी बीहड़ के डाकुओं से तो निजात भी मिल गई, लोगों को उम्मीद थी कि अब वह अपने मन से वोट डालकर अपना प्रतिनिधि चुनेंगे जो भोर की नयी किरण की तरह गांव का विकास करायेगा। लेकिन दुर्भाग्य कि पिछले दस वर्षों में उन्होंने जिसे अपना जनप्रतिनिधि चुना उसने विकास कराना तो दूर मुंड कर गांव की ओर नहीं देखा।

अस्ता गांव का नहीं हुआ विकास

सदर ब्लाक क्षेत्र की ग्राम पंचायत मई मानपुर के मजरा अस्ता में विकास दूर-दूर तक नहीं ‌दिखता है। गांव के लोग आज भी झोपड़ियों को आशियाना बनाकर परिवार सहित रहने को मजबूर हैं। गांव की गलियों में पानी भरा है, नालियां बजबजा रही हैं, शौचालयों के अभाव में ग्रामीण आज भी जंगल का ही सहारा ले रहे है। केन्द्र व प्रदेश सरकार की विभिन्न योजनाओं का उन्हें लाभ भी नहीं मिल पाया है। 26 अप्रैल को होने जा रहे पंचायत के चुनाव में ग्रामीणों का मूड भांपने पर गाँव के लोगों में अभी तक चुने गए लगभग सभी ग्राम प्रधानों और अन्य जनप्रतिनिधियों के प्रति नाराजगी देखने को मिली। उनका कहना है कि अब ऐसे प्रत्याशी को वोट करेंगे जो उनके गांव का विकास करा सके।

गांव निवासी रामचन्द्र, भूप सिंह, मान सिंह, कन्हैयालाल, हरिश्चन्द्र, रामबेटी, कृष्णादेवी, रामादेवी आदि की शिकायत है कि उन्हें सरकार की योजनाओं का कोई लाभ नहीं मिला। यहां तक कि उन लोगों ने जो काम मनरेगा में किया उसका तक पैसा नहीं मिला, प्रधान ने सब फर्जी तरीके से निकाल लिया। प्रधानमंत्री आवास पक्के मकान वालों को मिले हम झेापड़ी में रहने वालों को आवास भी नहीं मिले, यदि किसी को आवास मिला भी तो उससे प्रधान ने पैसे लिए, जिससे कालौनी को पूरा कराने के लिए उन लोगों को अपने मवेशी तक बेंचने पड़े। बताया कि गांव के अधिकांश लोग मूंज काटकर बान बनाने का काम करते है साथ ही यमुना की रेत में खीरा, ककड़ी खरबूजा आदि की पैदावार कर अपना और अपने परिवारों को भरण पोषण करते है। अधिकांश लोग फूस की झोेपड़ी डाल कर उसमें रहने को मजबूर हैं।

गांववासी कहते है कि प्रधान, बीडीसी, जिला पंचायत सदस्य, विधायक व सांसद जब वोट मांगने आये उस समय सब्जबाग दिखाये मगर जीतने के बाद फिर मुड़कर नहीं देखा। उन लोगोें को पहले डाकुओं ने लूटा व मारा और अब इन जनप्रतिनिधि सिर्फ कोरे आश्वासन देकर ठगा है। बताया कि उन लोगों को न शौचालय मिले न आवास, गांव की गलियां कच्ची है जिनमें गर्मियों में भी पानी भरा रहता है वारिश व सर्दी में तो यहां के रास्तों से निकलना मुश्किल हो जाता है। जिन बच्चों को स्कूलों में पढ़ना चाहिए हांथ में किताबें होनी चाहिए वो हांथें में झाडू ले साफ सफाई करते है और बान बनाने में सहयोग करते हैं। गांव में रोजगार का कोई साधन नहीं है।

उनका कहना था कि उनके पास सफेद राशन कार्ड भी है पर फिर भी सरकार की योजना का कोई लाभ नहीं मिला, कुछ एक लोगों को गैस सिलेण्डर मिला है पर गरीबी के चलते वह भी गैस नहीं भरा पाते है, जिस कारण गांव की महिलाएं चूल्हे पर खाना बनाने को मजबूर है। किसी किसी के पास तो राशन कार्ड भी नहीं है। गांव में सफाई तो कहीं दिखती ही नहीं है। डाकुओं से निजात मिली पर विकास से हम लोग अभी भी अछूते हैं।

शिव प्रताप सिंह सेंगर

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