सनातन धर्म में भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि श्री राधाष्टमी के नाम से प्रसिद्ध है। शास्त्रों में इस तिथि को श्री राधाजी का प्राकट्य दिवस माना गया है। श्री राधाजी वृषभानु की यज्ञ भूमि से प्रकट हुई थीं। वेद तथा पुराणादि में जिनका ‘कृष्ण वल्लभा’ कहकर गुणगान किया गया है, वे श्री वृन्दावनेश्वरी राधा सदा श्री कृष्ण को आनन्द प्रदान करने वाली साध्वी कृष्णप्रिया थीं। कुछ महानुभाव श्री राधाजी का प्राकट्य श्री वृषभानुपुरी (बरसाना) या उनके ननिहाल रावल ग्राम में प्रातःकाल का मानते हैं। परन्तु पुराणों में मध्याह्न का वर्णन ही प्राप्त होता है। चांग के अनुसार, भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि 10 सितंबर को रात 11 बजकर 11 मिनट पर शुरू होगी। वहीं, इसका समापन अगले दिन यानी 11 सितंबर को रात 11 बजकर 46 मिनट पर होगा। ऐसे में राधा अष्टमी 11 सितंबर को मनाई जाएगी। पंइस दिन पूजा करने का शुभ मुहूर्त सुबह 11 बजकर 3 मिनट से दोपहर 1 बजकर 32 मिनट तक है।
• राधा अष्टमी 2024 तिथि और शुभ मुहूर्त
मान्यता है कि इस मुहूर्त में पूजा करने से दोगुना फल प्राप्त होगा। जैसे भगवान श्रीकृष्ण को समर्पित जन्माष्टमी का व्रत किया जाता है। ठीक वैसे ही राधा अष्टमी का व्रत किया जाता है। मान्यता है कि इस दिन राधा रानी की सच्चे मन से पूजा करने से वैवाहिक जीवन में खुशियों का आगमन होता है और पति-पत्नी के रिश्ते में मजबूती आती है। इसके अलावा व्यक्ति को धन, ऐश्वर्य, आयु एवं सौभाग्य का आशीर्वाद प्राप्त होता है।
शास्त्रों में श्री राधा कृष्ण की शाश्वत शक्तिस्वरूपा एवम प्राणों की अधिष्ठात्री देवी के रूप में वर्णित हैं अतः राधा जी की पूजा के बिना श्रीकृष्ण की पूजा अधूरी मानी गयी है। श्रीमद देवी भागवत में श्री नारायण ने नारद जी के प्रति ‘श्री राधायै स्वाहा’ षडाक्षर मंत्र की अति प्राचीन परंपरा तथा विलक्षण महिमा के वर्णन प्रसंग में श्री राधा पूजा की अनिवार्यता का निरूपण करते हुए कहा गया है कि श्री राधा की पूजा न की जाए तो मनुष्य श्री कृष्ण की पूजा का अधिकार नहीं रखता।
अतः समस्त वैष्णवों को चाहिए कि वे भगवती श्री राधा की अर्चना अवश्य करें। श्री राधा भगवान श्री कृष्ण के प्राणों की अधिष्ठात्री देवी हैं, इसलिए भगवान इनके अधीन रहते हैं। यह संपूर्ण कामनाओं का राधन (साधन) करती हैं, इसी कारण इन्हें श्री राधा कहा गया है।
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• राधा अष्टमी कब मनाई जाती है
जन्माष्टमी के बाद भाद्रपद माह में ही राधा अष्टमी के त्योहार को मनाया जाता है। यह पर्व श्री राधा रानी को समर्पित है। इस खास दिन पर बरसाना समेत देशभर में खास उत्साह देखने को मिलता है। पौराणिक कथा के अनुसार, भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि पर श्री राधा रानी का जन्म बरसाना में हुआ था। इसलिए इस दिन को राधा अष्टमी के रूप में मनाया जाता है। इस खास पर्व का श्रीकृष्ण भक्त बेसब्री से इंतजार करते हैं। राधा अष्टमी के लिए श्री राधा रानी के मंदिरों को बेहद सुंदर तरीके से सजाया जाता है और राधा रानी की विशेष उपासना की जाती है।
• कमल के फूल पर जन्मी थीं राधा
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार राधा जी के बारे में प्रचलित है कि वह बरसाना की थीं। लेकिन, हकीकत है कि उनका जन्म बरसाना से 50 किलोमीटर दूर रावल गांव हुआ था।
रावल गांव में राधा का मंदिर है। माना जाता है कि यहां पर राधाजी का जन्म स्थान है। श्रीकृष्ण जन्मस्थान सेवा संस्थान के सचिव कपिल शर्मा के अनुसार, 5 हजार साल पहले रावल गांव को छूकर यमुना बहती थी। राधा की मां “कृति” यमुना में स्नान करते हुए अराधना किया करती थीं और पुत्री की लालसा रखती थी। पूजा करते समय एक दिन यमुना से कमल का फूल प्रकट हुआ। कमल के फूल से सोने की चमक सी रोशनी निकल रही थी।
इसमें छोटी बच्ची का नेत्र बंद था। अब वह स्थान इस मंदिर का गर्भगृह है। इसके 11 महीने बाद 3 किलोमीटर दूर मथुरा में कंस के कारागार में भगवान श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था। वह रात में गोकुल में नंदबाबा के घर पर पहुंचाए गए। तब नंद बाबा ने सभी जगह संदेश भेजा और कृष्ण का जन्मोत्सव मनाया गया। जब बधाई लेकर वृषभान अपने गोद में राधारानी को लेकर यहां गए तो राधारानी घुटने के बल चलते हुए बालकृष्ण के पास पहुंची। वहां बैठते ही तब राधारानी के नेत्र खुले और उन्होंने पहला दर्शन बालकृष्ण का किया।
• राधा और कृष्ण क्यों गए बरसाना
कृष्ण के जन्म के बाद से ही कंस का प्रकोप गोकुल में बढ़ गया था। ऐसा कहा जाता है कि कंस श्रीकृष्ण को अपना काल मानता था। इसलिए उसने कृष्ण को मार कर अमर हो जाने के लिए गोकुल के सभी नवजात शिशुओं को मारने का आदेश दे दिया। उसके इस कृत्य से यहां के लोग परेशान हो गए थे। ऐसे में नंदबाबा ने स्थानीय राजाओं को इकट्ठा किया। उस वक्त बृज के सबसे बड़े राजा वृषभान थे। इनके पास 11 लाख गाय थीं। जबकि, नंद जी के पास नौ लाख गाय थी।
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जिसके पास सबसे ज्यादा गाय होतीं थी, वह वृषभान कहलाते थे। उससे कम गाय जिनके पास रहती थीं, वह नंद कहलाए जाते थे। बैठक के बाद फैसला हुआ कि गोकुल व रावल छोड़ दिया जाए। गोकुल से नंद बाबा और जनता पलायन करके पहाड़ी पर गए, उसका नाम “नंदगांव” पड़ा। वृषभान, कृति और राधारानी को लेकर पहाड़ी पर गए, उसका नाम “बरसाना” पड़ा।
• रावल गांव में मंदिर के बगीचे में पेड़ स्वरूप में हैं राधा व श्याम
रावल गांव में राधारानी के मंदिर के ठीक सामने प्राचीन बगीचा है। कहा जाता है कि यहां पर पेड़ स्वरूप में आज भी राधा और कृष्ण मौजूद हैं। यहां पर एक साथ दो पेड़ हैं। एक श्वेत है तो दूसरा श्याम रंग का। इसकी पूजा होती है। ऐसा माना जाता है कि राधा और कृष्ण पेड़ स्वरूप में आज भी यहां से यमुना जी को निहारते रहते हैं।
• गौवंश के लिए लोक परमार्थ सेवा समिति का “प्रार्थना ही आंदोलन” अभियान
बताते चलें कि गाय को राष्ट्रीय पशु या राष्ट्र माता घोषित करने की मांग पुरानी है। उत्तर प्रदेश की सामाजिक संस्था “लोक परमार्थ सेवा समिति” एक लम्बे अरसे से उत्तर प्रदेश में गाय को राज्यमाता घोषित करने का अभियान चला रही है। संस्था के गौसेवक लालू भाई का कहना है कि उत्तर प्रदेश में गाय को राज्य माता का दर्जा दिये जाने की मांग बहुत पुरानी है। इसके लिए राज्य सरकार को अनुरोध पत्र दिए जाने के अलावा समय-समय पर “गौ-पूजन, गौ-भंडारा, बीमार और घायल गौ-वंशों का अपने स्तर पर उपचार करने के प्रयास आदि कार्य किये जाते हैं।
समिति का विश्वास है कि गौवंश के लिए गऊ माता से की गई प्रार्थना ही एकमात्र विकल्प है. इस लिए गाय को राज्यमाता का दर्जा दिए जाने की मांग को लेकर किसी तरह का धरना, प्रदर्शन, अनशन या आमरण अनशन नहीं किया जाता। प्रार्थना ही अंतिम चरण का आंदोलन है। लालू भाई का कहना है कि सम्पूर्ण मानव वंश की रक्षा के लिए गौवंश का बचाया जाना बहुत जरूरी है, इसके लिए राष्ट्रीय नीति बनाई जानी चाहिए। यदि उत्तर प्रदेश में गाय को राज्यमाता का दर्जा हासिल हो जाता है तो इससे गौवंश को बचाए जाने की संभावना बढ़ जाएगी।