जब भारत में नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2019 (Citizenship Amendment Act, 2019) पर चर्चा हो रही हो, तब पाकिस्तान के संविधान रचयिता और पहले कानून मंत्री जोगेन्द्र नाथ मंडल की चर्चा करना प्रासंगिक होगा। आइये समझते हैं नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2019 को….!
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ये भारत की संसद द्वारा पारित एक अधिनियम है, जिसके द्वारा सन 1955 के नागरिकता कानून को संशोधित करके यह व्यवस्था की गयी है कि 31 दिसम्बर सन 2014 के पहले पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से भारत आए हिन्दू, बौद्ध, सिख, जैन, पारसी एवं ईसाई को भारत की नागरिकता प्रदान की जा सकेगी। इस विधेयक में भारतीय नागरिकता प्रदान करने के लिए आवश्यक 7 वर्ष तक भारत में रहने की शर्त में भी ढील देते हुए इस अवधि को केवल 5 वर्ष तक भारत में रहने की शर्त के रूप में बदल दिया गया है।
नागरिकता संशोधन बिल को लोकसभा ने 10 दिसम्बर 2019 को तथा राज्यसभा ने 11 दिसम्बर 2019 को परित कर दिया था। 12 दिसम्बर को भारत के राष्ट्रपति ने इसे अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी और यह विधेयक एक अधिनियम बन गया। 10 जनवरी 2020 से यह अधिनियम प्रभावी भी हो गया है। 20 दिसम्बर 2019 को पाकिस्तान से आये 7 शरणार्थियों को भारतीय नागरिकता देकर इस अधिनियम को लागू भी कर दिया गया था।
मुख्य तथ्य
नागरिकता संसोधन विधेयक 2019 के तहत बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से भारत में आने वाले हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी धर्म वाले लोगों को नागरिकता दी जाएगी। नए विधेयक के अंतर्गत यह प्रावधान है कि पड़ोसी देशों के अल्संख्यक, यदि 5 साल से भारत में रह रहे हैं तो वे अब भारत की नागरिकता प्राप्त कर सकते है। पहले भारत की नागरिकता प्राप्त करने के लिए 11 साल भारत में रहना अनिवार्य था। जो प्रवासी 31 दिसम्बर 2014 से भारत में अवैध रूप से रह रहे है अब भारतीय नागरिकता हेतु आवेदन कर सकेंगे।
जोगेन्द्र नाथ मंडल (1904-5 अक्टूबर,1968) पाकिस्तान के प्रमुख निर्माताओं में से एक थे, जो वहाँ के पहले कानून मंत्री और श्रमिक के रूप में सेवा करने वाले विधायक थे। वे राष्ट्रमंडल और कश्मीर मामलों के दूसरे मंत्री भी थे। एक भारतीय और बाद में पाकिस्तानी नेता, जो पाकिस्तान में कानून और श्रम के पहले मंत्री थे। अनुसूचित जातियों (दलितों) के नेता के रूप में, जोगेन्द्र नाथ ने मुस्लिम लीग के पाकिस्तान की मांग के साथ सहभागी बन गये थे। उन्हें विश्वास था कि दलित जातियों को पाकिस्तान बनने का लाभ मिलेगा। वे पाकिस्तान के पहले कैबिनेट में भी शामिल हो गए थे। इसके कुछ ही वर्षों बाद पाकिस्तान के हिंदू-विरोधी पूर्वाग्रह का हवाला देते हुए वे कानून और श्रम मंत्री से अपना इस्तीफा देने के बाद भारत लौट आये थे।
पाकिस्तान के प्रथम कानून मंत्री
पद बहाल-15 अगस्त 1947–8 अक्टूबर 1950 किंग जॉर्ज षष्ठम्, गर्वनर जनरल मोहम्मद अली जिन्ना, ख़्वाजा नज़ीमुद्दीन प्रधानमंत्री लियाकत अली खान
पाकिस्तान के श्रम मंत्री
पद बहाल- 15 अगस्त 1947–8 अक्टूबर 1950, राजा जॉर्ज षष्ठम, राष्ट्रपति लियाकत अली खान, गर्वनर जनरल मोहम्मद अली जिन्ना ख़्वाजा नज़ीमुद्दीन।
जोगेन्द्र नाथ मंडल: जिन्हें पाकिस्तान में ‘देशद्रोही’ और भारत में ‘अछूत’ माना गया।
पाकिस्तान में धार्मिक कट्टरता के उदय और उसके प्रसार के लिए पूर्व सैन्य तानाशाह जनरल जिया-उल-हक की सरकार और उसके बाद मुस्लिम कट्टरपंथियों की ताकत को जिम्मेदार ठहराया जाता है। लेकिन पाकिस्तानी इतिहास के एक अहम किरदार, जोगेन्द्र नाथ मंडल ने 70 साल पहले ही तत्कालीन पाकिस्तानी प्रधानमंत्री को लिखे अपने त्यागपत्र में धार्मिक कट्टरता को बढ़ावा देने की बात कह दी थी। उन्होंने इसके लिए पाकिस्तान के सत्ता प्रतिष्ठान की मजहब को एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल करने और फिर उसके सामने घुटने टेकने की नीति को जिम्मेदार ठहराया था।
पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना ने जोगेन्द्र नाथ मंडल को पाकिस्तान की संविधान सभा के पहले सत्र की अध्यक्षता की जिम्मेदारी दी थी। वह पाकिस्तान के पहले कानून मंत्री भी बने। जोगेन्द्र नाथ मंडल बंगाल के दलित समुदाय से थे। भारत के बंटवारे से पहले बंगाल की राजनीति में केवल ब्रिटिश उपनिवेशवाद से आजादी एक महत्वपूर्ण मुद्दा नहीं था, बल्कि कुछ लोगों की नजर में उससे भी ज्यादा अहम मुद्दा बंगाल में जमींदारी व्यवस्था की चक्की में पिसने वाले किसानों का था। इनमें ज्यादातर मुसलमान थे। उनके बाद दलित थे, जिन्हें ‘शूद्र’ भी कहा जाता था। बाद में उन्हें ‘अनुसूचित जाति’ कहा जाने लगा था।
जमींदारों में से अधिकांश हिंदू ब्राह्मण और कायस्थ थे। जिन्हें स्थानीय भाषा में ‘भद्रलोक’ कहा जाता था। अविभाजित बंगाल की कुल जनसंख्या पांच करोड़ दस लाख थी। इनमें 80 लाख दलितों समेत हिंदुओं की कुल आबादी दो करोड़ बीस लाख थी। जबकि मुसलमानों की आबादी लगभग दो करोड़ अस्सी लाख थी। उच्च जाति के हिंदुओं, यानी ‘भद्रलोक’ की कुल आबादी तीस लाख थी। इस तरह बंगाल में मुसलमानों की आबादी 54 फीसदी थी, उसके बाद दलित और फिर हिंदू ब्राह्मण थे। ईसाई और अन्य धर्मों के मानने वाले बहुत कम तादाद में थे।
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दलितों में सबसे बड़ा जातीय समूह ‘महेशियों’ का था। इनकी आबादी 35 लाख थी। इसके बाद ‘नामशूद्र’ आते थे। जोगेन्द्र नाथ मंडल इसी समूह से संबंधित थे। उन्होंने बंटवारे से पहले की राजनीति में दलितों को मुस्लिम लीग से जोड़ा था। बंगाल के नामशूद्र 1930 के दशक से ही मुस्लिम लीग के मजबूत सहयोगी बन गए थे। पाकिस्तान की संविधान सभा की पहली बैठक औपचारिक स्वतंत्रता से तीन दिन पहले यानि 11 अगस्त 1947 को हुई थी। जब भारत और पाकिस्तान ने 14 और 15 अगस्त की दरम्यानी रात को स्वतंत्रता प्राप्त की, तब तक मुस्लिम लीग दलितों के साथ संबंधों को एक सांचे में ढाल चुकी थी।
भारत और पाकिस्तान दोनों के पहले कानून मंत्री दलित थे
इसके बाद जब भारत में संविधान लिखने की प्रक्रिया शुरू हुई तो नेहरू ने अपने मंत्रिमंडल के एक गैर-कांग्रेसी दलित नेता डॉ. भीमराव आंबेडकर को जगह दी और देश का पहला कानून मंत्री बनाया। उन्हें देश के संविधान का मसौदा तैयार करने की जिम्मेदारी सौंपी गई।
ऐसा कहा जा सकता है कि पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना का पहला भाषण सिर्फ उनकी एक परिकल्पना नहीं थी बल्कि यह एक राजनीतिक रणनीति भी थी। उसी रणनीति के तहत उन्होंने अपने भाषण से पहले बंगाल के एक हिंदू दलित नेता जोगेन्द्र नाथ मंडल से संविधान सभा के पहले सत्र की अध्यक्षता करवाई थी। (यह अलग बात है कि अब पाकिस्तान की नेशनल एसेंबली की वेबसाइट पर पहले अध्यक्ष के तौर पर मंडल का नाम तक मौजूद नहीं है।)
कौन थे जोगेन्द्र नाथ मंडल?
ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार मंडल का जन्म बंगाल के एक कस्बे बाकरगंज में एक किसान परिवार में हुआ था। उनके पिता चाहते थे कि घर में कुछ हो या न हो, उनका बेटा शिक्षा जरूर हासिल करे। मंडल की शिक्षा का खर्च उनके बेऔलाद चाचा ने उठाया। एक स्थानीय स्कूल में पढ़ने के बाद उन्होंने बंगाल के बारिसाल के सबसे अच्छे शिक्षण संस्थान बृजमोहन कॉलेज में दाखिला लिया। बारिसाल ‘पूर्वी बंगाल’ का एक शहर था जो बाद में ‘पूर्वी पाकिस्तान’ बन गया था। अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने बारिसाल की नगरपालिका से अपने राजनीतिक सफर की शुरुआत की। उन्होंने निचले तबके के लोगों के हालात सुधारने के लिए संघर्ष शुरू किया।
वह भारत के बंटवारे के पक्ष में नहीं थे। लेकिन उन्होंने महसूस किया कि उच्च जाति के हिंदुओं (सवर्णों) के बीच रहने से शूद्रों की स्थिति में सुधार नहीं हो सकता। इसलिए पाकिस्तान दलितों के लिए एक बेहतर विकल्प हो सकता है। जब उन्होंने जिन्ना के आश्वासन के बाद पाकिस्तान जाने का फैसला किया, तो उन्हें उनके सहयोगी और भारत के उस समय के सबसे बड़े दलित नेता डॉ. भीमराव रामजी आंबेडकर ने चेताया था। तकदीर का खेल ऐसा हुआ कि डॉ. आंबेडकर भारत के पहले कानून मंत्री बने और जोगेन्द्र नाथ मंडल पाकिस्तान के पहले कानून मंत्री बने। कुछ साल बाद दोनों को ही अपने पद से त्यागपत्र देना पड़ा।
मंडल ने 8 अक्टूबर, 1950 को इस्तीफा दे दिया, जबकि आंबेडकर ने 27 सितंबर, 1951 को त्यागपत्र दे दिया। दोनों के बीच फर्क यह था कि मंडल ने हताशा में त्यागपत्र दे दिया था। वो पाकिस्तान का संविधान बनते हुए नहीं देख सके, जबकि आंबेडकर ने जनवरी 1950 में भारत के संविधान को पूरा करके अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभाई। कहा जाता है कि भारतीय संविधान का मसौदा तैयार होने के बाद आंबेडकर ने हिंदू विरासत कानून में लड़कों के साथ लड़कियों को भी संपत्ति में बराबर का अधिकार दिलाने के लिए कानून बनाने की कोशिश की। इसमे नाकाम रहने पर उन्होंने त्यागपत्र दे दिया।
जिन्ना ने धर्म को निजी मामला बताया था
अल्पसंख्यक इतिहासकारों का मानना है कि 11 अगस्त 1947 को पाकिस्तान के संस्थापक और देश के पहले गवर्नर जनरल मोहम्मद अली जिन्ना ने संविधान सभा की पहली बैठक में अध्यक्ष के तौर पर अपने भाषण में पाकिस्तान के भविष्य का खाका पेश करते हुए रियासत को मजहब से अलग रखने का ऐलान किया था। उसी भाषण में जिन्ना ने यह भी कहा था कि “समय के साथ हिंदू अब हिंदू नहीं रहेंगे और मुसलमान मुसलमान नहीं रहेंगे। धार्मिक रूप से नहीं, क्योंकि धर्म एक निजी मामला है, बल्कि राजनीतिक रूप से एक देश के नागरिक होने के नाते।”
जिन्ना ने यह भी कहा था, “हम एक ऐसे दौर की तरफ जा रहे हैं, जब किसी के साथ भेदभाव नहीं किया जाएगा। एक समुदाय को दूसरे पर कोई वरीयता नहीं दी जाएगी। किसी भी जाति या नस्ल के साथ भेदभाव नहीं किया जाएगा। हम इस मूल सिद्धांत के साथ अपनी यात्रा शुरू कर रहे हैं कि हम सभी नागरिक हैं और हम सभी इस राज्य के समान नागरिक हैं।”
मोहम्मद अली जिन्ना के इस भाषण से एक दिन पहले पाकिस्तान की संविधान सभा के कार्यकारी अध्यक्ष और पहले स्पीकर जोगेन्द्र नाथ मंडल ने अपने पाकिस्तान चुनने की वजह बताई थी। उन्होंने कहा था, पाकिस्तान को इसलिए चुना क्योंकि उनका मानना था कि “मुस्लिम समुदाय ने भारत में अल्पसंख्यक के रूप में अपने अधिकारों के लिए संघर्ष किया है, लिहाजा वो अपने देश पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के साथ न केवल न्याय करेगा बल्कि उनके प्रति उदारता भी दिखाएगा।
अमरीका के जॉन्स हॉपकिंस विश्वविद्यालय की गजल आसिफ ने अपने हालिया शोध पत्र ‘जोगेन्द्र नाथ मंडल एंड पॉलिटिक्स ऑफ दलित रिकग्निशन इन पाकिस्तान’ (जोगेन्द्र नाथ मंडल और पाकिस्तान में दलितों की मान्यता की राजनीति) में कहा है कि “मंडल ने पाकिस्तान के निर्माण में दलित स्वतंत्रता के सपने को साकार होते हुए देखा था, लेकिन नए राज्य में हिंदू अल्पसंख्यक के आंतरिक अंतर को समझे बिना (यानी, एक राज्य की विचारधारा के सामने जो अनुसूचित जाति और उच्च जाति के हिंदुओं के बीच अंतर के बिना अल्पसंख्यकों को एक इकाई मानता है), मंडल का विजन टिक नहीं सका।”
क्या पाकिस्तान ने “मंडल” के साथ ज्यादती की?
इस प्रश्न के जवाब में प्रोफेसर अनिर्बान बंदोपाध्याय ने लिखा है कि यह जानना आसान काम नहीं है कि पाकिस्तान में जोगेन्द्र नाथ मंडल के साथ ज्यादती की गई थी या नहीं। प्रोफेसर बंदोपाध्याय भारत में गांधीनगर के कनावती कॉलेज के इतिहास विभाग के साथ जुड़े हैं। उन्होंने आंबेडकर और मंडल पर एक महत्वपूर्ण शोध पत्र लिखा है। वो कहते हैं, “इसका सही जवाब तभी दिया जा सकता है जब कोई इतिहासकार पाकिस्तान के आर्काइव्स में रखे दस्तावेज खंगाले।”
हालांकि, “(मंडल) ने अपने लंबे टाइप किए हुए इस्तीफे में अपना नजरिया साफ कर दिया था। यह इस्तीफा बहुत स्पष्ट है। वास्तव में सवाल ठीक तरीके से होना चाहिए। यह सच है कि नए राज्य के भविष्य के नागरिकों के लिए समान अधिकारों के जोरदार दावे जिन्ना ने किए थे। लेकिन उनके साथ तो खुद कुछ धोखा हुआ और कुछ बेवफाई की गई।”
प्रोफेसर बंदोपाध्याय का कहना है कि “जिन्ना को इस बात पर पूरा विश्वास था कि धार्मिक राष्ट्रवाद के जिस राक्षस को उन्होंने जगाया था उस पर वो काबू कर लेंगे। उनकी यह सोच गलत साबित हुई। वो (जिन्ना) एक बहुत ही शरीफ आदमी थे लेकिन उन्होंने अपनी ताकत का गलत अंदाजा लगा लिया था। आने वाले दिनों में उनकी अचानक मौत ने पाकिस्तान के चरमपंथियों को लगभग बेकाबू छोड़ दिया था।”
लाहौर यूनिवर्सिटी ऑफ मैनेजमेंट साइंसेज के एक शोधकर्ता और इतिहासकार डॉ अली उस्मान कासमी का कहना है, “देश की पहली संविधान सभा के प्रमुख के रूप में एक हिन्दू दलित को नियुक्त करके कायद-ए-आजम ने पाकिस्तान के दृष्टिकोण के बारे में बहुत साफ संकेत दिया था। यदि वे अल्पसंख्यक नेता को केवल प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व देना चाहते, तो उन्हें एक मंत्रालय देकर खानापूर्ती कर सकते थे।”
अली उस्मान कासमी का कहना है, “जिन्ना (अल्पसंख्यकों के) प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व से ज्यादा अहम बात पेश करना चाहते थे। इसलिए 1949 में ‘उद्देश्यों के संकल्प’ (Objectives of Resolution) की मंजूरी के बाद मंडल का पाकिस्तान छोड़कर चले जाना इतिहास में एक बेहद महत्वपूर्ण मोड़ है। क्योंकि अब वह देख सकते थे कि नए राज्य (पाकिस्तान) का रास्ता जिन्ना के ‘दृष्टिकोण’ से अलग हो चुका है।”
जोगेन्द्र नाथ मंडल को एक दिन के लिए संविधान सभा का अध्यक्ष चुना गया था। अगले दिन मोहम्मद अली जिन्ना को इसका अध्यक्ष चुना गया था। लेकिन पाकिस्तान की पहली कैबिनेट में मंडल को कानून मंत्री बनाया गया। जब तक जिन्ना जीवित थे, उन्होंने उनसे स्पष्ट रूप से कोई शिकायत नहीं की। जिन्ना की मौत के बाद कई ऐसी घटनाएं हुईं जिनसे जोगेन्द्र नाथ मंडल निराश हुए कि इस देश में अब अल्पसंख्यकों से किए गए वादों को पूरा करने वाला कोई नहीं था। बल्कि ऐसे लोग सरकार में आ गए थे जो बहुत शिद्दत के साथ मजहब को रियासत पर थोप रहे थे।
इस पृष्ठभूमि में ‘उद्देश्यों का संकल्प’ पारित किया गया। मियां इफ्तिखारुद्दीन को छोड़कर संविधान सभा के सभी मुस्लिम सदस्यों ने इसके पक्ष में मतदान किया था, जबकि एक को छोड़कर सभी अल्पसंख्यक सदस्यों ने इस प्रस्ताव का विरोध किया था। एक अल्पसंख्यक सदस्य ने तो यहां तक कहा था कि अगर कायदे-आजम जीवित होते, तो ऐसा कोई संकल्प कभी पारित ही नहीं होता। विडंबना यह है कि प्रस्ताव के पक्ष में मतदान करने वाले एकमात्र अल्पसंख्यक नेता स्वयं जोगेन्द्र नाथ मंडल थे।
पाकिस्तान में मंडल को ‘देशद्रोही’ कहा जाने लगा। जोगेन्द्र नाथ मंडल का त्यागपत्र नए पाकिस्तानी राज्य के लिए एक बड़ा राजनीतिक संकट बन गया था। खासकर जब मंडल कलकत्ता चले गए, तो उन्होंने पाकिस्तान पर और अधिक गंभीर आरोप लगाए। गजल आसिफ पाकिस्तान के राष्ट्रीय आर्काइव्स से प्राप्त दस्तावेजों के हवाले से लिखती हैं कि मंडल के बयानों को ‘धोखा’ कहते हुए उन्हें ‘झूठा, गद्दार और कायर’ कहा गया।
उनके बेटे जगदीश चंद्र मंडल ने प्रोफेसर अनिर्बान बंदोपाध्याय से कहा था कि जब उनके पिता कराची में रहते थे, तब भी उनके मंत्री रहते ही उन्हें पूरी तरह अलग-थलग कर दिया गया था। वे आगे बताते हैं, “उन्होंने पाकिस्तान में जिन्ना पर भरोसा किया और दलितों के बेहतर भविष्य की उम्मीद में भारत में अपना सब कुछ त्याग दिया, लेकिन जिन्ना के बाद उसी पाकिस्तान में उन्हें राजनीतिक रूप से अछूत बना दिया गया।”
भारत में ‘राजनीतिक अछूत’
जब मंडल ने इस्तीफा दिया और 1950 में पाकिस्तान छोड़ कर भारत के बंगाल राज्य में शिफ्ट हो गए, तो उन्हें अपनी ही जाति के लोगों ने भी शक की निगाहों से देखा। क्योंकि वह पाकिस्तान से आए थे। हालांकि पाकिस्तान जाने से पहले, वो भारत में दलितों के सबसे बड़े नेता डॉ. आंबेडकर के सहयोगी रहे थे, लेकिन अब मंडल का समर्थन करने वाला कोई नहीं था।
मंडल ने बंटवारे से पहले 1946 में डॉ. आंबेडकर को अपने प्रभाव वाले एक निर्वाचन क्षेत्र से इंडियन लेजिस्लेटिव काउंसिल (संविधान सभा) का सदस्य बनवाने में अहम भूमिका निभाई थी। लेकिन जब 1950 में मंडल भारत लौटे, तो वह अब न केवल एक अछूत दलित थे, बल्कि वो एक ‘राजनीतिक अछूत’ भी बन गए थे।
1950 में पाकिस्तान से भारत आने के बाद 1968 तक उन्होंने अपना अधिकांश समय कलकत्ता के एक बेहद पिछड़े इलाके में बिताया। ये तत्कालीन प्रसिद्ध रवींद्र सरोवर या डकारिया झील का दलदली क्षेत्र था। पहले यहां दलित झुग्गियां थीं। मंडल उन्हीं झुग्गियों में रहा करते थे। अब यहां की जमीन सूख जाने के बाद अमीर लोगों के लिए कालोनी बन गई है। उस समय इस क्षेत्र के लोग बहुत बुरी हालत में रहते थे। मंडल ने भी बेहद गरीबी में दिन बिताए। उनकी झुग्गी के सामने हमेशा दलितों का तांता लगा रहता था ताकि वे उनकी समस्याओं को हल कर सकें।
जोगन अली मुल्ला
मंडल एक प्रसिद्ध व्यक्ति तो थे, लेकिन अब उनके पास लोगों की समस्याएं दूर करने के लिए न तो संसाधन ही थे और न ही उनका राजनीतिक प्रभाव बाकी रह गया था। पाकिस्तान के साथ अपने पिछले संबंधों के कारण, ऊंची जाति के हिंदुओं ने उन्हें बंटवारे और उनके मौजूदा हालात के लिए जिम्मेदार ठहराया। उच्च जाति के हिंदू उनका मजाक उड़ाते और उन्हें जोगेन्द्र नाथ मंडल की जगह ‘जोगन अली मुल्ला’ कह कर पुकारते थे।
प्रोफेसर बंदोपाध्याय के अनुसार 1950 में वे 46 और मृत्यु के समय 64 वर्ष के थे। वह कहीं से कुछ संसाधन जुटा कर चुनाव लड़ते रहे। उन्होंने चार बार चुनाव लड़ा लेकिन चारों बार उनकी जमानत जब्त हुई। उन्होंने एक छोटा समाचार पत्र या पत्रिका प्रकाशित करने की भी कोशिश की। लेकिन छोटा पाठक वर्ग होने की वजह से उन्हें इसमें भी कामयाबी नहीं मिली। उनके अपने कई साथी और अनुयायी उनका आंदोलन छोड़ के देश की प्रमुख पार्टियों में शामिल हो गए थे।
रहस्यमयी मौत या हत्या
जोगेन्द्र नाथ मंडल की मौत 1968 में हुई थी। एक नाव से नदी पार करते समय उन्हें दिल का दौरा पड़ा। नाविक के अलावा उस समय वहां कोई गवाह नहीं था। उनका पोस्टमार्टम भी नहीं किया गया था। यह बात उनके पुत्र जगदीश चंद्र मंडल ने अपनी किताब में कही है। उनके बेटे ने कई साल बाद अपने पिता के लेखन के सात खंड प्रकाशित किए। प्रोफेसर सेन का कहना है कि सब बातों को अगर जमा करके देखें तो ऐसा लगता है कि मंडल ने कभी यह नहीं माना कि पश्चिम बंगाल में दलित राजनीति असंभव है। न ही उन्होंने उन अज्ञात बाधाओं को बहुत मजबूत माना जो हमेशा उनके पैरों में बेड़ियों की तरह पड़ी रहीं। बहरहाल मंडल के करीबी एक वकील ने यह दावा जरूर किया है कि उन्होंने ढलती उम्र में एक बार मंडल को यह कहते हुए सुना था, “मुझे एहसास हुआ है कि मौत से बदतर जिंदगी कैसी होती है।” मंडल ने पाकिस्तान आकर कितनी बड़ी गलती की? या यह गलती थी भी या नहीं? यह तय होना अभी बाकी है। प्रोफेसर सेन के अनुसार, बंगाल में दलित राजनीति उनकी मृत्यु के साथ ही हार गई थी।