दुनिया में जब सभ्यता का विकास नहीं हुआ था,तब हमारे ऋषि पृथ्वी सूक्त की रचना कर चुके थे। पर्यावरण चेतना का ऐसा वैज्ञानिक विश्लेषण अन्यत्र दुर्लभ है। भारत के नदी व पर्वत तट ही प्राचीन भारत के अनुसंधान केंद्र थे। लेकिन पश्चिम की उपभोगवादी संस्कृति ने पर्यावरण को अत्यधिक नुकसान पहुंचाया है। इसलिए पर्यावरण दिवस मनाने की नौबत आई है। उनकी यह चेतना भी मात्र पांच दशक में बढ़ी है। भारत के ऋषि पांच हजार वर्ष पहले ही पर्यावरण संरक्षण का सन्देश दे चुके थे। यह आज पहले से भी अधिक प्रासंगिक हो गया है-
ॐ द्यौ शांतिरन्तरिक्ष: शांति: पृथ्वी शांतिराप: शान्ति: रोषधय: शान्ति:। वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिब्रह्म शान्ति: सर्वं: शान्ति: शान्र्तिरेव शान्ति: सा मा शान्तिरेधि ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति: ॐ।।
भारतीय ऋषियों ने नदियों को दिव्य मानकर प्रणाम किया,जल में देवत्त्व देखा,उसका सम्मान किया। पृथ्वी सूक्ति की रचना की। वस्तुतः यह सब प्रकृति संरक्षण का ही विचार था। हमारी भूमि सुजला सुफला रही,भूमि को प्रणाम किया,वृक्षों को प्रणाम किया। उपभोगवादी संस्कृति ने इसका मजाक बनाया। आज वही लोग स्वयं मजाक बन गए। प्रकृति कुपित है,जल प्रदूषित है,वायु में प्रदूषण है। इस संकट से निकलने का रास्ता विकसित देशों के पास नहीं है। इसका समाधान केवल भारतीय चिंतन से हो सकता है। विश्व की जैव विविधता में भारत की सात प्रतिशत भागीदारी है।
हमारे ऋषियों ने आदिकाल में ही पर्यावरण संरक्षण का सन्देश दिया था। वह युग दृष्टा थे। वह जानते थे कि प्रकृति के प्रति उपभोगवादी दृष्टिकोण से समस्याएं ही उतपन्न होंगी। इसी लिए उन्होंने प्रकृति की शांति का मंत्र दिया। प्रकृति को दिव्य माना गया। भारत का इतिहास और संस्कृति दोनों जैव विविधता के महत्त्व को समझते है। अथर्ववेद में विभिन्न औषधियों का उल्लेख है। जैव विविधता को बढ़ावा देना और अधिक से अधिक पेड़ और औषधियां लगाना हम सबका कर्तव्य है। जैव विविधता से हमारी पारिस्थितिकीय तंत्र का निर्माण होता है। जो एक दूसरे के जीवन यापन में सहायक होते हैं। जैव विविधता पृथ्वी पर पाई जाने वाली जीवों की विभिन्न प्रजातियों को कहा जाता है।
भारत अपनी जैव विविधता के लिए विश्व विख्यात है। भारत सत्रह उच्चकोटि के जैव विविधता वाले देशों में से एक है। भारत की भौगोलिक स्थिति देशवासियों को विभिन्न प्रकार के मौसम प्रदान करती है। भारत में सत्रह कृषि जलवायु जोन हैं, जिनसे अनेक प्रकार के खाद्य पदार्थ प्राप्त होते हैं। देश के जंगलों में विभिन्न प्रकार के नभचर,थलचर एवं उभयचर प्रवास करते हैं। इनमें रहने वाले पक्षी, कीट एवं जीव जैव विविधता को बढ़ाने में सहायक होते हैं। प्रकृति मनुष्य एवं जीव जन्तुओं के जीवन के प्रारम्भ से अंत तक के लिये खाने पीने,रहने आदि सभी की व्यवस्था उपलब्ध कराती है। मनुष्य खेती कर भूमि से अपने भोजन हेतु अन्न एवं सब्जियां उगाता है। अस्वस्थ होने पर प्रकृति प्रदत्त औषधियों से उपचार करता है। भारत वैदिक काल से ही अपनी औषधीय विविधता के लिए प्रसिद्ध रहा है। अथर्ववेद में औषधीय पौधे एवं उनके प्रयोग का उल्लेख मिलता है। इसी तरह रामायण में भी बरगद,पीपल,अशोक, बेल एवं आंवले का उल्लेख मिलता है।
कोरोना से बचाव हेतु क्लोरोक्विन दवा का प्रयोग कई देशों द्वारा किया जा रहा है। इसका सबसे ज्यादा उत्पादन एवं निर्यात भारत द्वारा पूरे विश्व में किया जा रहा है। इस दवा का प्रयोग मलेरिया बीमारी के लिए होता है। यह चिनकोना पेड़ से प्राप्त होता है। भारतीय संविधान में पर्यावरण संरक्षण के लिये कुछ प्रावधान किए गए हैं। प्रारंभ में पर्यावरण संरक्षण के संबंध में प्रावधान नहीं था। लेकिन अनुच्छेद 47 द्वारा स्वास्थ्य की उन्नति हेतु राज्य का कर्तव्य अधिरोपित कर पर्यावरण सुधार किया गया। संसद द्वारा बयालीसवें संवैधानिक संशोधन द्वारा पर्यावरण संरक्षण के लिये अधिनियमों को पारित करके संविधान के भाग चार में राज्य के नीति निर्देशक एवं मूल कर्तव्यों में सम्मिलित किया गया है। इसके अंतर्गत कहा गया है – राज्य के नीति निर्देशक तत्वों के अनुच्छेद 48 में कहा गया है कि राज्य पर्यावरण सुधार एवं संरक्षण की व्यवस्था करेगा तथा वन्य जीवन को सुरक्षा प्रदान करेगा।
संविधान के भाग 4क के अनुच्छेद 51 में मूल कर्तव्यों में प्राकृतिक पर्यावरण की जिसके अंतर्गत वन, झील, नदी अन्य जीव भी हैं इनकी रक्षा करें और उनका संवर्धन करें तथा प्राणि मात्र के प्रति दया भाव रखें। अनुच्छेद-21 में कहा गया है कि प्रत्येक व्यक्ति को उन गतिविधियों से बचाया जाना चाहिए,जो उसके जीवन,स्वास्थ्य और शरीर को हानि पहुँचाती हो। अनुच्छेदों 252 व 253 पर्यावरण को ध्यान में रखकर कानून बनाने के लिये अधिकृत करते हैं। भारतीय संसद द्वारा भी पर्यावरण संरक्षण के लिये अनेक अधिनियम पारित किए गए हैं। इनमें वन्य जीवन संरक्षण अधिनियम ,जल प्रदूषण नियंत्रण अधिनियम, वायुप्रदूषण नियंत्रण अधिनियम,पर्यावरण संरक्षण अधिनियम शामिल है।
लेकिन पर्यावरण संरक्षण का कार्य केवल अधिनियम से ही नहीं हो सकता। भारत को तो इसके लिए कहीं अन्यत्र से प्रेरणा लेने की भी आवश्यकता नहीं है। हमको तो केवल अपनी विरासत को समझना होगा। भारतीय जीवन शैली में ही पर्यावरण संरक्षण का विचार समाहित है। इसमें वृक्ष काटना पाप है। वृक्ष काटना हो तो उससे अधिक पौधे लगाने का नियम बनाया गया। पौधरोपण को पुण्य माना गया। अनेक वृक्ष पौधों की पूजा की जाती है। आधुनिक विज्ञान भी इनके महत्व को स्वीकार कर रहा है। नदियों व जल को सम्मान के भाव से देखा गया। इसी के अनुरूप भारतीय जीवन शैली रही है। उपभोगवादी सभ्यता ने इसको प्रभावित किया है। इस कारण अनेक विकृतियां दिखाई दे रही है। ऐसे में भारतीय जीवन शैली की तरफ लौटना होगा। भारत ही नहीं दुनिया में पर्यवरण संरक्षण इसी चिंतन से संभव होगा।