
स्वतंत्रता आंदोलन (Freedom Movement) और उसके बाद लगभग दो दशकों के दौर में निकलने वाली तमाम उत्कृष्ट पत्र-पत्रिकाओं (Excellent NewsPapers And Magazines) के चरित्र और स्वभाव(Character And Nature) में जो एक बदलाव का दौर शुरू हुआ, वह अब अधोगति तक जा पहुंचा है। 90 के दशक के बाद (After The 90s) इलेक्ट्रॉनिक मीडिया (Electronic Media) के प्रादुर्भाव ने तो पत्रकारिता की सुचिता और विश्वसनीयता (Integrity And Credibility of Journalism) पर आग में घी डालने जैसा काम किया है।
जहां तक मीडिया से जुड़ी यूनियनों या संगठनों की बात है तो, अब वे भी आप्रसांगिक होती जा रही हैं। नेशनल यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट आई एवं पीटीआई फेडरेशन जैसे कुछ संगठन पत्रकारों एवं कर्मचारियों की समस्याओं को लेकर अभी भी न केवल आवाज उठा रहे हैं, बल्कि पत्रकारों के उत्पीड़न, हमलो और छटनी जैसे मुद्दों को लेकर जद्दोजहद करते दिख रहे हैं। पर, यह सब प्रयास नक्कार खाने में तूती की आवाज बनकर रह गए हैं।
एक दौर वह भी था, जब गुलामी के दौर में अपना सब कुछ गवां देने वाले संपादक हुए। तब जज्बा, जोश और जुनून वाले लोग ही पत्रकारिता के क्षेत्र में आया करते थे। पत्रकारिता में पिछले कुछ दशकों से तीन तरह के लोगों का प्रवेश हो रहा है। पहले वे जो प्रशासनिक सेवाओं या उच्च शिक्षा के क्षेत्र में असफल होते हैं, वह पत्रकारिता में आ जाते हैं। दूसरे जो कहीं कुछ नहीं कर पाते, पत्रकारिता में आ टपके और तीसरी श्रेणी में वे लोग आते हैं जो पत्र पत्रिकाओं और यूट्यूब में पूंजी लगाने वाले व्यक्ति हैं अथवा उनके परिवार के सदस्य रिश्तेदार या उनके कम खास मित्र मंडली से संबंधित हैं।
इनमें कुछ तो अपवाद स्वरूप या संयोगवश पत्रकारिता के लायक निकल आते हैं, अन्यथा अधिकांश ऐसे होते हैं, जिन्हें भले ही कुछ आता जाता न हो, उनके अंदर देश-समाज के विकास की कोई सार्थक दृष्टि न हो लेकिन, कुछ ही दिनों में पत्रकारिता को अपने हाथ का खिलौना या घर की खेती समझने लगते हैं। ऐसे लोग कुछ विशेष करने के बजाय अधीनस्थों पर रोव ग़ालिब करने और अपनी पत्रकारीय हैसियत के सहारे अन्य महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने की कोशिश में हमेशा लगे रहते हैं। यदि पत्रकारिता के क्षेत्र में कुछ नया सोचते भी हैं, तो शायद ही कर पाते हैं। क्योंकि उनके पत्रकार बनने का मूल उद्देश्य जुदा होता है। दूसरी तरफ वे लोग दूसरी तरह के लोगों में कुछ विशेष कर सकने की क्षमता ही नहीं होती। पहले तरह के पत्रकार बहुतायत में हैं।
आज के दौर में अपवाद छोड़कर संपादक नाम की संस्था खत्म हो गई है। समाचार पत्रों एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में पूंजी लगाने वाले धनपशु अच्छे लाइसेंस लाकर संपादक पद की जिम्मेदारी दे देते हैं। ऐसे लोगों से सुचिता निष्पक्षता और जनसरोकारो की पत्रकारिता की अपेक्षा करना संभव ही नहीं है।
इसके अलावा साहित्य एवं विचार जगत के कुछ अच्छे लोग भी पत्रकारिता में आकर इसे धन्य करते रहे हैं। लेकिन, ऐसे लोगों का पत्रकारिता में लंबे समय तक टिक पाना मुश्किल होता है। कोई टिक पाया तो उसका अपने ढंग से काम कर पाना मुश्किल होता है। अखबारी प्रतिष्ठान की और से उनके अधिकार सीमित कर दिए जाते हैं। पहले की पत्रकारिता में संपादक के रूप में मूल्यों का एक आदर्श स्तंभ होता था, जिसके साथ मूल्यनिष्ठ लोग काम करने मे सुकून महसूस करते थे।
संपादक नाम की संस्था को खत्म होने के बाद ऐसे लोगों की क्षमता एवं प्रतिबद्धता का अखबारों के व्यावसायिक हितों में शोषण एवं इस्तेमाल आसान हो गया। दूसरी और व्यावसायिक अखबारी प्रतिष्ठानों से इतर लघु पत्र पत्रिकाओं में अभी भी समर्पित और प्रतिबद्ध ऐसे तमाम लोग हैं, जो मूल्य की मशाल को निरंतर जलाए हुए हैं। विडंबना यह है कि व्यावसायिक या बड़े मीडिया प्रतिष्ठानों से जुड़े पत्रकार इन्हें पत्रकार ही नहीं मानते हैं। ऐसे लोग आज पत्रकारिता की मुख्य धारा में हासिए पर हैं। यह देश एवं लोकतंत्र के लिए अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि यहां मुख्य धारा का पत्रकार वही माना जाता है, जो मोटी तनख्वाह के साथ बड़ी व्यावसायिक पत्रिकाओं से संबद्धता रखता है। अब अव्यावसायिक पत्र पत्रिकाओं से सम्बद्ध पूर्ण प्रतिबद्धता के साथ काम करने वाले पूर्ण कालिक पत्रकारों को भी बड़े अखबारों के पत्रकार, पत्रकारिता की मुख्य धारा में शामिल नहीं मानते हैं।
लोकतांत्रिक व्यवस्था के चार स्तंभ माने जाते हैं। संवैधानिक रूप से तो कार्यपालिका, न्यायपालिका और व्यवस्थापिका का ही उल्लेख है पर, मीडिया को चौथे स्तंभ के रूप में माना जाता है। यह बात दीगर है कि अब चारों स्तंभों की जड़ों में दीमक लग चूका है और मीडिया तो खुले रूप से दलीय आधार पर बटा नजर आ रहा है। विडंबना यह है कि संपादक पत्रकारों एवं रिपोर्ट को लोग दलीय आधार पर सपाई पत्रकार कांग्रेसी या भाजपाई पत्रकार कहने लगे हैं, जो लोकतंत्र के लिए गंभीर चिंता का विषय है।
अधो गति की तरफ बढ़ रही पत्रकारिता का एक यह भी प्रमुख कारण है कि जन सरोकारों की पत्रकारिता अब विचारधारा केंद्रित होती जा रही है। आजादी के बाद की पत्रकारिता में विचारशील लोग तो रहे, मगर धीरे-धीरे मूल्यनिष्ठ लोगों की कमी होती गई। अभी पत्रकारिता में कुछ विचारशील लोग हैं और वह पत्रकारिता जगत में अच्छा सम्मान भी रखते हैं। लेकिन इनमें से ज्यादातर लोग किसी न किसी विचारधारा के शिकार हैं। यह किसी न किसी विचारधारा से जुड़े हैं और पत्रकारिता में रहते हुए अमुक विचारधारा के लिए वैचारिक या संपादकीय बेईमानी कर लेने को ही विचार जगत की बड़ी सोच समझते हैं। सच में ऐसे बुद्धिजीवी या पत्रकार विचार जगत के साथ शाश्वत मूल्यो के साथ अन्याय कर रहे होते हैं या शाश्वत मूल्य के मार्ग से विचलन के शिकार हो रहे रहे हैं। कई बार ऐसे पत्रकार अपनी विचारधारा या अपने वैचारिक आग्रहों के पक्ष में शाश्वत मूल्यों को दांव पर लगा देते हैं अथवा उनके बालि चढ़ा देते हैं।
इस समय ज्यादातर संपादक जो अच्छी छवि के साथ पत्रिकारिता जगत में विशेष स्थान रखते हैं, मान्यता केंद्रित या विचारधारा केंद्रित पत्रकारिता ही कर रहे हैं। मूल्य केंद्रित पत्रकारिता हांसिये पर आ गई है इ.स कारण समाज में वैचारिक विमर्श या वैचारिक सोच बढ़ने के बजाय वैचारिक टकराव की आशंका बढ़ती जा रही है। समाज में एकता के बजाय विघटन को बढ़ावा मिल रहा है। ऐसे पत्रकार समाज की वैचारिक विविधता का सकारात्मक उपयोग देश समाज के विकास में करने के बजाय अपने-अपने वैचारिक आग्रहो की कट्टरता पूर्वक वकालत करने एवं वैचारिक भेद की खाई को बढ़ाने में ही अपने को तीस मार खां समझते रहते हैं। सच में यह लोग अपने व्यक्तिगत आग्रह पूर्वाग्रह के हिसाब से समाज को गढने का दुराग्रह कर रहे होते हैं।
नक्सली गतिविधियां, आतंकवादी हिंसा, अशांति या सरकार प्रायोजित पुलिसिया आतंकवाद ऐसे ही नहीं बढ़ रहे हैं। इसके लिए पत्रकारिता जगत में कार्यरत दोनों पक्षों के वैचारिक समर्थन भी जिम्मेदार हैं, जो एक मूल्य को साधने के बजाय अपनी-अपनी मान्यताओं की वैचारिक सत्ता स्थापित करने के अभियान में जुटे हुए हैं।
आज की पत्रकारता में कोई लेनिन व मार्क्स को ढो रहा है तो कोई जेपी, लोहिया को ढो रहा है, तो कोई गांधी द्वारा 6-7 दशक पूर्व खींची गई लकीर से हिलने को तैयार नहीं है, तो कोई संगीत ढोल पीटने में मस्त है। अब इसको ढोने वालों की संख्या घटती जा रही है। मौलिक सोच वाले पत्रकारों का एक तरह से अकाल से पड़ गया है। ऐसे पत्रकारों की संख्या बहुत कम रह गई है, जो उपयुक्त वैचारिक आग्रहों पूर्वाग्रह से ऊपर उठकर सर्व सम्मत मूल्य की स्थापना को अपने पत्रकारीय जीवन का मुख्य लक्ष्य बनाए हुए हो। अपने व्यक्तिगत आग्रह के अहंकार में पत्रकार देश के एक-एक नागरिक के वैचारिक स्वतंत्रता की चिंता करना ही भूल गए हैं। अतः पत्रकारिता से समाज का जितना भला होना चाहिए, उतना नहीं हो पा रहा है। अनेक स्थानों पर तो भला होने के बजाय नुकसान ज्यादा हो रहा है।
दलनिष्ठ पत्रकारिता की दुर्गंध पूर्व प्रधानमंत्री एवं वरिष्ठ भाजपा नेता स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेई को दशको पहले लग गई थी। उनका मानना था कि लोकतंत्र में पत्रकारों का सत्ता या दलों से हाथ मिलाना नैतिक अपराध है। आज उल्टा हो गया है। आज पत्रकार राजनीतिक दलों के प्रति ज्यादा निष्ठावान हो गए हैं और जन सरोकारों से पीछे हट गए हैं। इसी को वह अपना नैतिक कर्तव्य समझने लगे हैं।
पत्रकारिता में जब शब्दों का सौदा और खबरों का एजेंडा तय होगा तो राष्ट्रीय के बजाय मीडिया अगर स्वहित पोषण में लग जाएगा। पूंजीपतियों एवं नेताओं के इशारों पर चलेगा तो न राष्ट्र हित होगा और न ही लोकतंत्र मजबूत होगा और पत्रकारिता भी अधोगति में चली जाएगी। शायद यह कहना गलत ना होगा कि मीडिया की स्थिति आज महात्मा गांधी के तीन बंदरों जैसी हो गई है। ना देखता है, ना बोलता है और ना ही सुनता है। मीडिया को वॉच डॉग कहा जाता है, पर आज वाच हट गया है।
मैनेजमेंट और यूनियन का तालमेल संवेदनशील संतुलन के वातावरण को बनाए रखता था, जिसमें दोनों ही पक्ष एक दूसरे की कार्य प्रणाली एवं हितों के प्रति सजग रहते थे। जिसके चलते अभिव्यक्त की स्वतंत्रता का संरक्षण होता था। वहीँ प्रबंधन पक्षपाती पत्रकारिता की निगरानी करता था। इससे तथ्यात्मक पत्रकारिता को बल मिलता था।
मीडिया के क्षेत्र में ठेकेदारी प्रथा की शुरुआत होने से पत्रकारों को पेशेवर पत्रकारिता से बेदखल कर व्यावसायिक पत्रकारिता में तब्दील कर दिया। इसके लिए मीडिया से जुड़ी यूनियनो की भूमिका भी काफी हद तक जिम्मेदार है। अगर, ठेकेदारी प्रथा का प्रभावी विरोध किया जाता, जो किया जा सकता था, मालिको अथवा मैनेजमेंट के प्रलोभनों या चाटुकारिता में यूनियन ऐसा करने में विफल रही। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि यूनियनें निष्प्रभावी होती चलीं गई। प्रबंध तंत्र व सत्ता का गठजोड़ बन जाने से चौथा स्तंभ कमजोर हो गया। अब जरूरत इस बात की है कि कारपोरेट और पूंजीवादी पत्रकारिता के खिलाफ एक जुट होकर खड़ा हुआ जाए।