फलस्तीनी आतंकी संगठन हमास ने इस्राइल के विरुद्ध संघर्ष की शुरुआत की थी। करीब दो हफ्ते तक संघर्ष चला। जिसमें फलस्तीनियों को भारी नुकसान उठाना पड़ा। यह राहत की बात है कि मिस्र के प्रयास से दोनों पक्षों में संघर्ष विराम हुआ। लेकिन इस पर हमास का जश्न मनाना बेतुका था। इस संघर्ष से हमास को कुछ भी हासिल नहीं हुआ। पूर्वी येरुशलम पर इस्राइल का कब्जा कायम है,अल अक्सा इलाके में यथास्थिति है,इस्राइल के हमलों से फलस्तीनियों के क्षेत्र में तबाही हुई है। उसके कई बड़े कमांडर मारे गए। हजारों घर व अनेक मस्जिद तबाह हुए। बड़ी संख्या में फलस्तीनी मारे गए। उससे अधिक लोग पलायन के लिए विवश हुए। गाजा क्षेत्र में भीषण तबाही हुई है। ऐसे में हमास ने केवल इस्राइल को उकसाने और अपनी शर्मिन्दी छिपाने को जश्न मनाया है। हमास को यह समझना होगा कि अमेरिका ने इस्राइल को और हथियार देने का ऐलान किया है।
ऐसे में बेहतर यही होगा कि हमास इस संघर्ष विराम का पालन करे। वैसे इस्राइली प्रधानमंत्री नेतन्याहू का यह फैसला चौकाने वाला था। किंतु यह निर्णय हमास के प्रति उनके नरम रुख का प्रमाण नहीं है। कुछ बाहरी व कुछ आंतरिक परिस्थिति के चलते ही युद्ध विराम हुआ है। नेतन्याहू अपने देश की संवैधानिक व्यवस्था का भी सम्मान किया है। कुछ दिन बाद दो जून को उनके राजनीतिक भविष्य का निर्णय होना है। वह यह नहीं दिखाना चाहते कि उनका हमास विरोधी अभियान अपनी कुर्सी बचाने के लिए है। बल्कि हमास को जबाब देना जरूरी था। वह उन्होंने किया। इस वर्ष मार्च में चुनाव के बाद नेतन्याहू संसद में बहुमत का गठबंधन बनाने में विफल रहे थे। उनके विरोधियों के पास अब अपनी वैकल्पिक सरकार बनाने के लिए दो जून तक का समय है। यह भी उल्लेखनीय है कि इस्राइल के विपक्ष ने हमास संघर्ष के दौरान नेतन्याहू को पूरा समर्थन दिया। इस नाजुक मौके पर वहां के विपक्ष ने नकारात्मक राजनीति नहीं की। मार्च में हुए चुनाव में नेतन्याहू की लिकुड पार्टी देश के अकेली सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी।
उसे एक सौ बीस सदस्यीय संसद में तीस सीटें मिली थीं। लेकिन एक सरकार बनाने के लिए उन्हें इकसठ सीटों का बहुमत चाहिए था। उनकी विचारधारा वाली राष्ट्रवादी पार्टियों के समर्थन से वह सरकार बना सकते थे। लेकिन न्यू होप पार्टी और धार्मिक जियोनिज्म पार्टी ने उन्हें समर्थन देने से इन्कार कर दिया। इन सभी दलों को गठबंधन में शामिल अरब साझीदारों से एतराज था। नेतन्याहू की पार्टी लिकुड और उसके सहयोगी दलों के गठबंधन को उनसठ सीटें मिली है। जबकि विपक्षी गठबंधन के पास छप्पन सीटें है। कट्टर इस्लामी पार्टी के पांच सदस्य जिसका समर्थन करेंगे उसकी ही सरकार दो जून को बनेगी। वैसे मिस्र के राष्ट्रपति अब्देल फतह अल सीसी ने इजरायल और हमास के बीच मध्यस्था कर रहे थे। अमेरिका व इस्राइल की अभी हुई हथियार डील भी हमास के लिए साफ सन्देश है। हथियार खरीद के सौदे को अमेरिका ने मंजूरी दी है। इस पर अब राष्ट्रपति बाइडन ने अपनी अंतिम मुहर लगा दी है। अमेरिका हमास के खिलाफ इस्राइल का ही साथ देगा। गाजा के एक क्षेत्र में हमास का शासन है।
यह प्रतिबंधित आतंकी संघठन है। यह अमेरिका व फलस्तीन की निर्वाचित सरकार का भी विरोधी है। ऐसे में संघर्ष विराम हमास के रुख पर ही निर्भर रहेगा। हमास फिर उपद्रव करेगा तो इस्राइल संघर्ष विराम पर अमल नहीं कर सकेगा। हमास को ध्यान रखना चाहिए कि इस पूरे क्षेत्र में यहूदियों के दावा सर्वाधिक प्राचीन है। यहां से यहूदियों को पलायन के लिए बाध्य किया गया था। जियोनिज्म विचार के अनुसार यहूदियों ने अपनी मूल व मातृभूमि को पुनः हासिल करने का संकल्प लिया था। इसके माध्यम से इस्राइल का अस्तित्व कायम हुआ था। यहूदी सदैव इसे अपनी मातृभूमि मानते रहे है। मध्यपूर्व में यहूदी राष्ट्र के अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता। अल अक्शा मस्जिद से मुसलमानों की आस्था जुड़ी है। यहूदियों की आस्था यहां के टेंपल माउंट से जुड़ी है। दावा है कि यहां उनके दो प्राचीन पूजा स्थल हैं। जिनमें पहले को किंग सुलेमान ने बनवाया था। बेबीलोन्स ने इसे तबाह कर दिया था। फिर उसी जगह यहूदियों का दूसरा मंदिर बनावाया गया। इसको रोमन साम्राज्य ने नष्ट कर दिया था।
इस्राइलियों का दावा सर्वाधिक प्राचीन है। इस समय यहां इजरायल का कब्जा है।यरुशलम में ही ईसाइयों द चर्च ऑफ द होली सेपल्कर है। मान्यता है कि ईसा मसीह को यहीं सूली पर चढ़ाया गया था। यहीं प्रभु यीशु के पुनर्जीवित हो उठने वाली जगह भी है। इजराइल का वर्तमान भू भाग कभी तुर्की के अधीन था। तुर्की का वह साम्राज्य ओटोमान कहलाता है। जब 1914 में पहले विश्व युद्ध के दौरान तुर्की के मित्र राष्ट्रों के खिलाफ होने से तुर्की और ब्रिटेन के बीच युद्ध हुआ। ब्रिटेन ने युद्ध जीतकर ओटोमान साम्राज्य को अपने अधीन कर लिया। जियोनिज्म विचार के अनुसार यहूदियों ने अपनी मूल व मातृभूमि को पुनः हासिल करने का संकल्प लिया था। संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपनी स्थापना के दो वर्ष बाद फिलिस्तीन को दो हिस्सों में बांटने का निर्णय लिया। इस प्रकार इस्राइल अस्तित्व में आया। 1967 के युद्ध में इजराइल ने पूर्वी यरुशलम पर भी कब्जा कर लिया था। 1993 में इस्राइली नेतृत्व व अराफात दोनों ने लचीला रुख दिखाते हुए ओस्लो समझौता किया था। इसके अनुसार इस्राइल ने पहली बार फलस्तीनी मुक्ति संगठन को मान्यता प्रदान की थी।
यह भी तय हुआ था कि पश्चिमी तट के जेरिको और गाजा पट्टी में फलस्तीनियों को सीमित स्वयत्तता प्रदान की जाएगी। 1996 में गाजा पट्टी क्षेत्र के करीब दस लाख मतदाताओं ने अट्ठासी सीटों के लिए मतदान किया था। इसी परिषद ने बाद में यासिर अराफात को फलस्तीन का राष्ट्रपति निर्वाचित किया था। 1997 में अराफात की पहल पर फिर एक समझौता हुआ। इससे तय हुआ कि पश्चिमी तट का अस्सी प्रतिशत हिस्सा तीन चरणों में फलस्तीन को सौप दिया जाएगा। लेकिन हर बार हमास की गतिविधियों ने शांति प्रयासों को विफल किया है। भारत ने अपने राष्ट्रीय हितों व विश्व शांति की प्रतिबध्दता के अनुरूप इस मसले पर सुझाव दिया है। भारत ने कहा कि इजरायल और फलस्तीन के बीच वार्ता बहाल करने में सहायक माहौल तैयार करने के लिए हर संभव प्रयास किया जाना चाहिए। क्षेत्र में दीर्घकालिक शांति और स्थिरत कायम के लिए अर्थपूर्ण वार्ता का दौर लंबा चल सकता है। पश्चिम एशिया और फलस्तीन की स्थिति पर चर्चा के लिए संयुक्त राष्ट्र महासभा की बुलाई गई बैठक में बोलते हुए भारत के संयुक्त राष्ट्र में राजदूत एवं स्थायी प्रतिनिधि टीएस तिरुमूर्ति ने कहा कि तत्काल तनाव को कम करना इस वक्त की जरूरत है। ताकि हिंसा की कड़ी को तोड़ा जा सके। तनाव को बढ़ाने वाले किसी भी कदम से बचना चाहिए। इसके साथ ही एक तरफा तरीके से यथास्थिति बदलने की कोशिश से भी बचना चाहिए।