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ओटीटी पर रिलीज हो जाती तो ही अच्छा होता, जो भी इसे देखने थियेटर आया, उसकी भूल चूक माफ

काशी सत्य की नगरी है। महादेव अपने लोक से इसकी सतत निगरानी करते हैं। अभिवादन भी यहां महादेव है। प्रणाम भी महादेव है। जीवन भी महादेव और मृत्यु तो महादेव है ही। ऐसी काशी नगरी की गलियों के मुंबई के किसी स्टूडियो में बने सेट्स में रची गई है निर्देशक करण शर्मा की फिल्म ‘भूल चूक माफ’ (film ‘Bhool Chook Maaf’)। फिल्म के पूरे प्रचार में कहीं से ये पता नहीं चलता कि ये उत्तर प्रदेश के किन्हीं दो ऐसे ब्राह्मण परिवारों की कहानी है, जहां के एक पंडित जी इतवार के दिन छत पर बैठकर अपना अलग स्टोव लेकर ‘खीर’ पकाते हैं और उसमें लौंग का तड़का भी लगाते हैं।

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उनका बेटा गाय को रोटी नहीं ‘पूरनपोली’ (महाराष्ट्र का व्यंजन) खिलाने की बात करता है। बनारस में पला बढ़ा 40 साल की उम्र में 25-26 साल की दिखने की कोशिश कर रहा ये बेटा उत्तर प्रदेश में रिश्वत देकर सरकारी नौकरी पाने में कामयाब है। और, काशी में ही ये सारा रिश्वत खाकर सरकारी नौकरी देने का धंधा चल रहा है। समझ रहे हैं ना, निगाहें कहां हैं और निशाना कहां है….?

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दो महीने में सरकारी नौकरी का फार्मूला

खैर अपने को क्या, अपना काम है फिलिम देखना, और आप सबको ये बताना कि फैमिली आउटिंग के लिए जब आप वीकएंड पर निकलेंगे तो क्या गाढ़ी कमाई के ढाई तीन हजार रुपये इस फिल्म को देखने पर लुटाए जा सकते हैं? नेटफ्लिक्स पर एक फिल्म पड़ी हुई है ‘नेकेड’। इसके अलावा एक और अंग्रेजी फिल्म ‘ग्राउंडहॉग डे’। ‘भूल चूक माफ’ मिलाकर इन तीनों फिल्मों की कहानी का गुणसूत्र एक ही है। फिल्म के हीरो का एक टाइम लूप में फंस जाना।

यहां राजकुमार राव को समझ आता है कि शिवजी से उन्होंने जो नेक काम करने की मन्नत मांगी थी, उसके चलते वह अपनी शादी से ठीक एक दिन पहले की तारीख में अटक गए हैं। फिल्म में ये प्रसंग भी इंटरवल से ठीक पहले आता है। उससे पहले की कहानी वही है जो आप फिल्म के ट्रेलर में देख चुके हैं। बनारस के एक लड़का और लड़की घर से भागे हैं। पुलिस उन्हें थाने ले आती है। मामला इस बात पर सुलटता है कि लड़का दो महीने में सरकारी नौकरी पा लेगा। बलिहारी है ऐसी यूपी पुलिस की। और, बलिहारी है ऐसी बेटियों के पिताओं की भी जिन्हें लगता है कि कोई बेरोजगार दो महीने में सरकारी नौकरी पा लेगा।

एक कालजयी फिल्म बनाने से चूके दिनेश

फिल्म ‘भूल चूक माफ’ दरअसल सरकारी नौकरियों को लेकर परेशान देश के करोड़ों युवाओं की एक जबर्दस्त केस स्टडी जैसी फिल्म हो सकती थी लेकिन उसके लिए फिल्म निर्माता दिनेश विजन को एक अलग विजन के साथ साथ एक 25-26 साल के लड़के की जरूरत होती, और इस उमर के जो लड़के हिंदी फिल्म निर्माताओं की आंखें अपनी ‘रौशनी’ से चौंधिया दे रहे हैं, उनमें अगस्त्य नंदा से लेकर वेदांग रैना, शिखर पहाड़िया आदि सबका ऐसे किसी प्रसंग से जीवन में न लेना देना पड़ा है और न ही शायद पड़ेगा।

अमोल पालेकर जैसा कोई युवक ही ऐसा किरदार निभा सकता है जिसने निजी जीवन में भी नौकरी पाने के संघर्ष को जिया हो। तो मजबूरी का नाम इन दिनों हिंदी सिनेमा में राजकुमार राव है। वह फिल्म में वैसी ही जबर्दस्ती फिट कर दिए गए हैं, जैसे संवादों के बीच बीच में ‘बकैती’ शब्द ठूंसा गया है। अरे भाई, बकैती का मतलब दबंगई के आसपास वाले इलाके से है। अनावश्यक बातें करने को बकैती नहीं ‘बक**’ कहते हैं। क्या करण शर्मा? कुछ दिन तो गुजारे होते काशी में..!

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