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अटल सुशासन की प्रेरणा

  डॉ दिलीप अग्निहोत्री

भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी अजातशत्रु थे। इसका कारण यह था कि उन्होंने सदैव सिद्धान्तों को महत्व दिया। किसी के प्रति उनका व्यक्तिगत रागद्वेष नहीं था। विपक्ष और सत्ता धर्म दोनों का उन्होंने बखूबी निर्वाह किया। वह कांग्रेस पार्टी की जम कर आलोचना करते थे,लेकिन जब पाकिस्तान ने भारत पर हमला किया तो वह कांग्रेस नेतृत्व वाली सरकार के साथ खड़े हुए। आज के नेताओं को उनसे प्रेरणा लेनी चाहिए। देश के विकास में आपके योगदान को हमेशा याद रखा जाएगा। भारत को उन्होंने परमाणु शक्ति बनाया। एक नेता के रूप में,सांसद के रूप में, मंत्री के रूप में और प्रधानमंत्री के रूप में अटल जी हमेशा सभी के लिए आदर्श रहे है. वह महान वक्ता अजातशत्रु, उदार लोकतांत्रिक मूल्यों के वाहक,राष्ट्रवादी कवि, कुशल प्रशासक थे. नेतृत्व में राष्ट्र में देश ने सुशासन को क्रियान्वित होते देखा। जहां एक ओर उन्होंने सर्व शिक्षा अभियान, प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना और राष्ट्रीय राजमार्ग विकास परियोजना जैसे विकासशील कार्य किए, वहीं दूसरी ओर पोखरण परीक्षण एवं करगिल विजय से मजबूत भारत की नींव रखी। देश के लिए उनकी दूरदृष्टि आगामी पीढ़ियों को प्रेरित करती रहेगी।

राजनीति और राजनीति शास्त्र दोनों अलग क्षेत्र है। राजनीति में सक्रियता या आचरण का बोध होता है, राजनीति शास्त्र में ज्ञान की जिज्ञासा होती है। अटल बिहारी वाजपेयी ने इन दोनों क्षेत्रों में समान रूप से आदर्श का पालन किया। राजनीति में आने से पहले वह राजनीति शास्त्र के विद्यार्थी थे। कानपुर के डीएवी कॉलेज में नई पीढ़ी भी उनकी यादों का अनुभव करती है।अटल जी उन नेताओं में शुमार थे,जिनके कारण किसी पद की गरिमा बढ़ती है। डीएवी में जाने पर अनुभूति होती है कि यहीं कभी अटल जी विद्यार्थी के रूप में उपस्थित रहते थे।

कालेज के प्रथम तल पर कमरा नम्बर इक्कीस में वह बेंच पर बैठते थे। डीएवी कानपुर में अटल जी के गुरु रहे प्रो. मदन मोहन पांडेय के निर्देशन में मुझे पीएचडी करने का सौभग्य मिला। अक्सर बातचीत में वह अटल जी की चर्चा करते थे। इससे यह पता चला कि अटल जी बहुत होनहार विद्यार्थी थे, उनमें ज्ञान के प्रति जिज्ञासा थी। प्रो.पांडेय के निर्देशन में पीएचडी करने के बाद शिक्षक के रूप में मेरी नियुक्ति इसी विभाग में हुई। यहां प्रवेश करते ही अटल जी की फोटो दिखाई देती है।

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नीचे पूर्व प्रधानमंत्री नहीं,बल्कि पूर्व छात्र लिखा है। यहां बैठने पर ऊपर एक सूची पट्ट दिखाई देता है। उन्नीस सौ सैंतालीस पर नजर टिक जाती है। इसमें विद्यार्थी का नाम लिखा है-अटल बिहारी वाजपेयी..डिवीजन प्रथम, पोजिशन द्वितीय। यह वह समय था जब कानपुर विश्वविद्यालय अस्तित्व में नहीं था। डीएवी आगरा विश्वविद्यालय से संबंद्ध था। इतने बड़े विश्वविद्यालय में अटल जी ने उल्लेखनीय सफलता हासिल की थी। अटल जी ने राजनीति शास्त्र में एमए करने के बाद यहीं अगले वर्ष एलएलबी में दाखिला लिया था। सरकारी नौकरी से अवकाश ग्रहण करने के बाद उनके पिता पंडित कृष्ण बिहारी लाल वाजपेयी ने भी विधि स्नातक करने का निर्णय किया था। डीएवी छात्रावास में पिता-पुत्र एक ही कमरे में रहते थे। कभी पिताजी को देर होती तो अटल से पूछा जाता कि आपके पिताजी कहां हैं।

जब अटल जी को देर हो जाती तो पिताजी से पूछा जाता आपके साहबजादे कहां हैं। लेकिन हंसी मजाक का यह दौर ज्यादा नहीं चला। एक वर्ष बाद ही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से मिले दायित्व को संभालने के लिए अटल जी लखनऊ आ गए। विधि स्नातक की पढ़ाई पूरी नहीं हो सकी।

अटल जी राजनीति शास्त्र में डिग्री हासिल करना चाहते थे। लेकिन उनके पिता आर्थिक रूप से खर्च वहन करने में असमर्थ थे। तत्कालीन राजा जीवाजी राव सिंधिया को जानकारी हुई तो उन्होंने वाजपेयी जी को छात्रवृत्ति देने की व्यवस्था की।छात्रवृत्ति लेकर कानपुर आए और डीएवी कॉलेज से राजनीति शास्त्र में परास्नातक किया। इस दौरान अटल जी को हर माह पचहत्तर रुपए मिलते रहे। डीएवी में प्रो मदन मोहन पांडेय नियमित क्लास लेते थे। अटल भी छुट्टी नहीं लेते थे। लेकिन इतने मात्र से उनकी जिज्ञासा शांत नहीं होती थी। अटल जी कर्मयोगी थे। विद्यार्थी थे, तब ज्ञान प्राप्त करने में पूरी ऊर्जा लगा दी।

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पत्रकारिता में गए तो उसे भी पूरी क्षमता से अंजाम दिया। राजनीति में गए तो उच्च मर्यादाओं की स्थापना कर दी। उन्होंने उस दौर में राजनीति शुरू की थी, जब जनसंघ सत्ता की लड़ाई से बहुत दूर थी। माना जाता था कि यह पार्टी विपक्ष में रहने के लिए बनी है। इसके बाबजूद अटल जी जब बोलते थे, तब प्रधानमंत्री सहित जनसंघ के विरोधी भी ध्यान से सुनते थे। संख्या बल कमजोर था, लेकिन विचार मजबूत थे। शायद यही कारण था कि जवाहर लाल नेहरू ने उन्हें भविष्य का प्रधानमंत्री बताया था।

सात दशक के राजनीतिक जीवन में उनका दामन बेदाग रहा। सत्ता मिली तब भी सहज रहे। सत्ता उद्देश्य नहीं बल्कि दायित्व था। विपक्ष में ही सत्तर वर्ष रहे, राष्ट्र के लिए वैसा ही समर्पण रहा। तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहराव ने उन्हें भारत का पक्ष रखने के लिए जेनेवा भेजा था। अटल जी ने अपने इस दायित्व को बखूबी निभाया। वह अपने लिए नहीं देश और समाज के लिए जिये। उनका जीवन प्रेरणादायक है। अटल जी के राजनीतिक जीवन में लखनऊ का विशेष महत्व है। कानपुर डीएवी से शिक्षा पूर्ण करने के बाद वह लखनऊ आये थे। यहां उन्होंने राष्ट्रधर्म का सम्पादन किया। यह कार्य राष्ट्रभाव के मिशन का ही स्वरूप था। अटल जी ने इसके माध्यम से राष्ट्र व समाज की सेवा का व्रत लिया था। उनकी चुनावी राजनीति की दृष्टि से भी लखनऊ उल्लेखनीय पड़ाव था। यहाँ से वह चुनाव में पराजित भी हुए थे, लेकिन फिर एमपी से पीएम तक का सफर भी लखनऊ से ही तय किया था।

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