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कबीर साहेब जयंती आज: जाति और धर्म से परे एक महामानव

दया शंकर चौधरी

संसार भर में भारत की भूमि ही तपोभूमि (तपोवन) के नाम से विख्यात है। यहाँ अनेक संत, महात्मा और पीर-पैगम्बरों ने जन्म लिया है। सभी ने भाईचारे, प्रेम और सद्भावना का संदेश दिया है। इन्हीं संतों में से एक संत कबीरदासजी भी हुए हैं।

पूरे देश में आज (24 जून) सद्गरू कबीर साहेब जयंती मनाई जा रही है। सद्गरू कबीर साहिब का आविर्भाव वि.स. 1456 तद्नुसार ईस्वी सन 1398 को ज्येष्ठ पूर्णिमा, सोमवार के दिन हुआ था। ऐसी मान्यता है कि इसी दिन काशी के जुलाहे नीरू अपनी नवविवाहित नीमा का गौना करा के अपने घर लौट रहे थे। लहरतारा सरोवर के निकट से गुजरते समय नीमा को प्यास लगी और वह पानी पीने के लिए तालाब पर गई। नीमा अभी चुल्लू में भर कर पानी पीने ही लगी थी कि उन्हें किसी बच्चे के रोने की आवाज सुनाई दी और उन्होंने कमल दल के गुच्छ पर एक नवजात शिशु को देखा, जो आगे चल कर सद्गुरू कबीर हुए। यह स्थान कबीर जी का प्राकट्य स्थल माना जाता है, जिस के दर्शनों के लिए हर धर्म के लोग देश-विदेश से आते हैं। लहरतारा का यह मंदिर मूलगादी कबीर साहिब की कर्मभूमि है। नीरू और नीमा के निवास स्थान “नीरू टीले” पर ही कबीर का लालन-पालन हुआ था। वर्तमान में उसी स्थान पर इलैक्ट्रॉनिक कबीर झोंपड़ी का निर्माण कराया गया है, जिसे 24 फरवरी, 2021 को भक्तों के दर्शनों के लिए खोला गया।

कबीरपंथियों में इनके जन्म के विषय में यह पद्य प्रसिद्ध है।

चौदह सौ पचपन साल गए, चन्द्रवार एक ठाठ ठए।
जेठ सुदी बरसायत को पूरनमासी तिथि प्रगट भए॥
घन गरजें दामिनि दमके बूँदे बरषें झर लाग गए।
लहर तलाब में कमल खिले तहँ कबीर भानु प्रगट भए॥

कबीर साहेब ने स्वर्ग और नर्क को लेकर समाज में व्याप्त भ्रांतियों को तोड़ने के लिए एक बड़ी मिसाल पेश की। अपना पूरा जीवन काशी में बिताने वाले संत कबीर दास ने अपने अंतिम समय के लिए एक ऐसे स्थान को चुना, जिसे उन दिनों अंधविश्वास कायम था कि वहां पर मरने से व्यक्ति नरक में जाता है। कबीर दास जी ने लोगों को इस भ्रम को तोड़ने के लिए अपने अंतिम समय में उत्तर प्रदेश के गोरखपुर के पास मगहर चले गए और उन्होंने वहीं पर 1518 में अपनी देह त्याग किया।

कबीर की जाति और धर्म

कबीर जी के माता-पिता (नीरू-नीमा) कपड़े बुनने का कार्य करते थे जिसमें कबीर जी भी उनका हाथ बंटाने के साथ-साथ प्रभु भक्ति में लीन रहते थे। लोग उनका सत्संग सुनने को उतावले रहते थे।

बेगर-बेगर नाम धराए एक माटी के भांडे।
इन्होंने जातिवाद पर प्रहार करते हुए कहा कि मानव उस एक भगवान की संतान है परंतु कोई अपने आपको ऊंची और कोई नीची जाति का कहता है। व्यक्ति तो एक माटी का बना पुतला है।

कबीर मेरी जाति को सभु को हसनेहार। बलिहारी इस जाति कऊ जिही जपओ सिरजन हार॥
कबीर साहिब को लोग छोटी जाति का कह कर उनका उपहास उड़ाते थे लेकिन कबीर जी ने इसे बहुत ऊंचा समझा, जिसने भगवान का नाम जपाया और जन्म लेकर भक्ति में लीन हुए।

जुलाहे मुसलमान है, पर इनसे अन्य मुसलमानों का मौलिक भेद है। सन् 1901 की जन-गणना के आधार पर रिजली साहब ने ‘पीपुल्स ऑफ़ इंडिया’ नामक एक ग्रंथ लिखा था। इस ग्रंथ में उन्होंने तीन मुसलमान जातियों की तुलना की थी। वे तीन हैं: सैयद, पठान और जुलाहे। इनमें पठान तो भारतवर्ष में सर्वत्र फैले हुए हैं पर उनकी संख्या कहीं भी बहुत अधिक नहीं है। जान पड़ता है कि बाहर से आकर वे नाना स्थानों पर अपनी सुविधा के अनुसार बस गए। पर जुलाहे पंजाब, उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल में ही पाए जाते हैं। जिन दिनों कबीरदास इस इस जुलाहा-जाति को अलंकृत कर रहे थे उन दिनों, ऐसा जान पड़ता है कि इस जाति ने अभी एकाध पुश्त से ही मुसलमानी धर्म ग्रहण किया था। कबीरदास की वाणी को समझने के लिए यह निहायत ज़रूरी है कि हम इस बात की जानकारी प्राप्त कर ले कि उन दिनों इस जाति के बचे-खुचे पुराने संस्कार क्या थे।

उत्तर भारत के मूलनिवासियों में कोरी मुख्य हैं। बेन्स जुलाहों को कोरियों की समशील जाति ही मानते हैं। कुछेक विद्वानों ने यह भी अनुमान किया है कि मुसलमानी धर्म ग्रहण करने वाले कोरी ही जुलाहे हैं। यह उल्लेख किया जा सकता है कि कबीरदास जहाँ अपने को बार-बार जुलाहा कहते हैं,

(1) जाति जुलाहा मति कौ धीर। हरषि गुन रमै कबीर।
(2) तू ब्राह्मन मैं काशी का जुलाहा।

वहाँ कभी-कभी अपने को कोरी भी कह गए हैं। ऐसा जान पड़ता है कि यद्यपि कबीरदास के युग में जुलाहों ने मुसलमानी धर्म ग्रहण कर लिया था पर साधारण जनता में तब भी कोरी नाम से परिचित थे। सबसे पहले लगने वाली बात यह है कि कबीरदास ने अपने को जुलाहा तो कई बार कहा है, पर मुसलमान एक बार भी नहीं कहा। वे बराबर अपने को ‘ना-मुसलमान’ कहते रहे। आध्यात्मिक पक्ष में निस्संदेह यह बहुत ऊँचा भाव है, पर कबीरदास ने कुछ इस ढंग से अपने को उभय-विशेष बताया है कि कभी-कभी यह संदेह होता है कि वे आध्यात्मिक सत्य के अतिरिक्त एक सामाजिक तथ्य की ओर भी इशारा कर रहे हैं। उन दिनों वयनजीवी नाथ-मतावलंबी गृहस्थ योगियों की जाति सचमुच ही ‘ना-हिंदू ना-मुसलमान’ थी। कबीरदास ने कम-से-कम एक पद में स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है कि हिंदू और हैं, मुसलमान और हैं और योगी और हैं, क्योंकि योगी या जोगी ‘गोरख-गोरख करता है, हिंदू ‘राम-राम’ उच्चारता है और मुसलमान ‘खुदा-खुदा’ कहा करता है।

*गैरदलित कबीर और दलित-लेखन: बहरहाल, अब सीधा प्रश्न है कि क्या कबीर दलित थे? क्या वे अनूसूचित जाति के थे? सीधा उत्तर है कि कबीर दलित नहीं थे। कबीर अनुसूचित जाति के नहीं थे। दलित जातियों का संबंध अस्पृश्यता से रहा है। पिछड़ी जातियाँ अस्पृश्य नहीं रही हैं।

कबीर ने स्वयं को कहीं भी ‘अछूत’नहीं कहा है। यदि कबीर में ब्राह्मण रक्त था तब भी, यदि वे जुलाहा परिवार में जन्मे थे तब भी- वे अछूत नहीं थे। जुलाहा होने का मतलब है- ‘मुसलमान’होना। इस्लाम में अस्पृश्यता की अवधारणा है ही नहीं, इसलिए मुस्लिम समाज में कबीर ‘अछूत’हो ही नहीं सकते थे। ‘जुलाहा’होने के कारण यदि हिंदू समाज कबीर को अच्छी निगाह से नहीं देखता हो, उनके साथ छूआछूत का बर्ताव करता हो; तो यहाँ साफ समझना चाहिए कि छूआछूत का बर्ताव तो हिन्दू समाज प्रत्येक मुसलमान के साथ करता था, चाहे वह सैयद, शेख, पठान ही क्यों न हो। उसकी निगाह में प्रत्येक मुसलमान ‘म्लेच्छ’ था तथा छूआछूत के दायरे में आता था। यहाँ महत्त्वपूर्ण बात यह है कि कबीर को हम किस जाति में जनमा मानते हैं? कबीर स्वयं को किस जाति का बताते हैं? आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, डॉ. धर्मवीर और प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल की पुस्तकों से कबीर की जाति के बारे में उपलब्ध तथ्यों को यहाँ रखा जा रहा है। कबीर को दलित या अछूत या अस्पृश्य बताने वाली व्याख्याएँ भी यहाँ रखी जा रही हैं। इन सबका उद्देश्य यह पता लगाना है कि कबीर की सामाजिक पृष्ठभूमि आखिर क्या थी?

हजारी प्रसाद द्विवेद्वी के कबीर: आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी कबीर को नाथपंथी बताते हैं। कबीर की जाति के बारे में द्विवेदी जी स्पष्ट राय नहीं रखते हैं। उनका सारा फोकस इस बात पर है कि कबीर को मुसलमान न माना जाए। विधवा ब्राह्मणी की अवधारणा को वे खारिज नहीं करते तथा कबीर को मूल रूप से हिन्दू समाज का व्यक्ति बनाए रखना चाहते हैं। वे अपनी पुस्तक ‘कबीर’ (राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, 1993) की पहली पंक्ति लिखते हैं, ”कबीरदास का लालन-पालन जुलाहा परिवार में हुआ था’’, (पृ0-15) मतलब, कबीर का जन्म विधवा ब्राह्मणी से हुआ था! कबीर जन्मना हिन्दू थे, मुसलमान नहीं।

कबीर के समाज को भी द्विवेदी जी मुसलमान मानने के पक्ष में नहीं थे, ”जिन दिनों कबीरदास इस जुलाहे-जाति को अलंकृत कर रहे थे उन दिनों, ऐसा जान पड़ता है कि इस जाति ने अभी एकाध पुश्त से ही मुसलमान धर्म ग्रहण किया था।’’ (वही, पृ0-17) द्विवेदीजी का अनुमान है कि कबीर का समाज सद्य:धर्मांतरित था। कोशिश यही है कि कबीर का संबंध इस्लाम से या मुसलमान बिरादरी से न जुडऩे पाए। इसके लिए साहित्य के इतिहासकार को रचनाकार की तरह इतिहास निरपेक्ष ललित कल्पना भले करनी पड़े कि ‘ऐसा जान पड़ता है’।

एक और उदाहरण, “ऐसा जान पड़ता है कि यद्यपि कबीरदास के युग में जुलाहों ने इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिया था पर साधारण जनता में तब भी कोरी नाम से परिचित थे।… प्रस्तुत लेखक यह नहीं मानता कि कोरियों का ही मुसलमान संस्करण जुलाहा है।… यह उल्लेख किया जा सकता है कि कबीरदास जहाँ अपने को बार-बार जुलाहा कहते हैं, वहाँ कभी-कभी अपने को कोरी भी कह गए हैं।” (वही, पृ0-18)

‘ऐसा जान पड़ता है’की शैली में तथ्य खोजना मुश्किल काम है। द्विवेदीजी के इस छोटे-से उद्धरण में कई तरह की बातें एक साथ आई हैं, जिनमें से कबीर की जाति का पता लगाना टेढ़ा काम है। कबीर अपनी जाति ‘जुलाहा’ (कभी-कभी ‘कोरी’) बताते हैं तो द्विवेदीजी नहीं मानते ‘कि कोरियों का ही मुसलमान संस्करण जुलाहा है’। कोरी और जुलाहा को वे अलग-अलग मानते हैं। अप्रत्यक्षत: वे कह रहे हैं कि कोरी हिन्दू है और जुलाहा मुसलमान। प्रत्यक्षत: यह कह रहे हैं कि ‘कबीरदास के युग में जुलाहों ने मुसलमानी धर्म ग्रहण कर लिया था’मतलब ‘गैर-मुसलमान जुलाहा समाज’कबीर को पृष्ठभूमि के तौर पर मिला था। यह ‘गैर-मुसलमान जुलाहा समाज’कबीर के समय मुसलमान हो गया था, द्विवेदीजी को ‘ऐसा जान पड़ता है’।

द्विवेदीजी इस ‘गैर मुसलमान जुलाहा समाज’को ‘नाथ मतावलंबी गृहस्थ योगियों’की जाति से जोड़ते हैं, ”कई बातें ऐसी हैं, जो यह सोचने को प्रवृत्त करती हैं कि कबीरदास जिस जुलाहा-वंश में पालित हुए थे वह इसी प्रकार के नाथ-मतावलंबी गृहस्थ योगियों का मुसलमानी रूप था।’’ (पृ0 21) द्विवेदीजी कबीर की धार्मिक पहचान को नाथपंथ से जोडऩे पर ज़ोर देते हैं। कबीर को वे मुसलमान होने की धार्मिक पहचान से बचाना चाहते हैं। द्विवेदीजी लिखते हैं, ”सबसे पहले लगने वाली बात यह है कि कबीरदास ने अपने को जुलाहा तो कई बार कहा है, पर मुसलमान एक बार भी नहीं कहा। वे बराबर अपने को ‘ना-हिन्दू ना-मुसलमान’कहते रहे।’’ (वही, पृ0 21) द्विवेदीजी का निष्कर्ष है कि कबीर स्वयं को ‘नाथ-मतावलंबी गृहस्थ योगी’मानते थे यद्यपि कबीर ने ऐसा कहीं कहा नहीं हैं। वे अपनी पहचान ‘जुलाहा’के रूप में बताना चाहते हैं। धर्म और जाति से व्यक्ति की सामाजिक पहचान निर्धारित होती है। कबीर अपनी सामाजिक पहचान ‘जुलाहा’के रूप में स्वीकार करते हैं। द्विवेदीजी ‘जुलाहा’को गौण करके तीसरे धर्म से कबीर का नाता जोडऩे पर ज़ोर देते हैं।

नाथ-पंथ से कबीर का संबंध जोडऩे की कोशिश के बावजूद द्विवेदी जी धर्मांतरण की बात बीच-बीच में करते हैं। यह नया धर्म इस्लाम है तथा इन सद्य:धर्मांतरित जातियों के बारे में द्विवेदीजी का एक निष्कर्ष यह भी है, ”आसपास के बृहत्तर हिंदू-समाज की दृष्टि में ये नीच और अस्पृश्य थे।’’ (वही, पृ. 24) इसी पुस्तक का सुप्रसिद्ध टुकड़ा है कि कबीर ‘जन्म से अस्पृश्य, कर्म से वंदनीय’ (पृ0 134) थे।

द्विवेदीजी के ‘अस्पृश्य’का अर्थ क्या होना चाहिए? ‘अस्पृश्य’का अर्थ ‘अनुसूचित जाति’में जन्मा व्यक्ति यहाँ हो सकता है क्या?केवल हिन्दू धर्म में ‘अस्पृश्यता’को सैद्धांतिक रूप से स्वीकार किया गया है। इस्लाम ‘अस्पृश्यता’ को सैद्धांतिक रूप में नहीं मानता, उसकी कोई भी जाति अस्पृश्य नहीं मानी जाती। आज ‘आजीवक धर्म’की अवधारणा दी जा रही है तथा ज़ोर दिया जा रहा है कि दलित जातियाँ हिन्दू नहीं हैं।

किंतु ‘अस्पृश्यता’ की अवधारणा हिन्दू धर्म में जिन जातियों से जोड़ी गयी थी, उन जातियों को हिंदू माना गया था। द्विवेदीजी कबीर की जाति के प्रश्न को उलझा देते हैं। वे कबीर को जन्मना जुलाहा नहीं मानते, केवल पालित मानते हैं। इस रहस्य का अनावरण किए बिना कि वे जन्मना किस जाति के थे, द्विवेदी जी कबीर के बारे में स्पष्ट लिखते हैं- ‘जन्म से अस्पृश्य’। जब जन्म का ठीक-ठीक पता नहीं, तब उन्हें ‘जन्म से अस्पृश्य’कैसे कहा जा सकता है।

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