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कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्

वसुदेवसुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम्। देवकीपरमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्॥ भारतीय दर्शन में अवतारों के शिशु रूप की बड़ी महिमा है। भगवान शिव जी तो इस रूप के दर्शन करने को भेष बदल कर अयोध्या गए थे, जहां प्रभु राम शिशु रूप में लीला कर रहे थे। श्रीकृष्ण की लीला तो अति आकर्षक है। भक्त कवियों ने उनके इस रूप का खूब गुणगान किया है। मनुष्य को भी प्रभु के इस रूप का ध्यान करना चाहिए।

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इक्यावन और वृंदावन का एकसाथ उल्लेख विचित्र लग सकता है। सतही तौर पर देखें तो इसमें केवल साधारण तुकबंदी दिखाई देगी। तीनों शब्दों में एक समानता है। इनके अंत में वन शब्द है। इसके अलावा अन्य कोई समानता नजर नहीं आती। पहले देवनागरी और रोमन की संख्या है। बाद में स्थान का उल्लेख है। इनका भी कोई आपसी संयोग या संबंध नहीं है। लेकिन कथावाचक अतुल कृष्ण महराज इस तुकबंधी को आज व्यावहारिक आश्रम व्यवस्था से जोड़ते हैं। शास्त्र में सौ वर्ष की सामान्य आयु मानी गई। पहले ऐसा ही था। इसमें पचास वर्ष की आयु के बाद पच्चीस वर्ष तक वानप्रस्थ तथा अंतिम पच्चीस वर्ष संन्यास की व्यवस्था थी। संन्यास में व्यक्ति सभी भौतिक सम्पत्ति, साधनों का त्याग करके तपस्या के लिए वन में चला जाता था।

आज यह व्यवस्था व्यावहारिक नहीं मानी जा सकती। न सौ वर्ष की स्वस्थ आयु रही, न वन जाकर तपस्या करना संभव रहा। ऐसे में आज व्यक्ति को इक्यावन या फिफ्टीवन की अवस्था से ही अपने हृदय को वृंदावन बनाने का प्रयास करना चाहिए। किसी बाहरी वन में जाने की आवश्यकता नहीं है। घर-गृहस्थी के त्याग की भी जरूरत नहीं। मन को वृंदावन बनाने का मतलब है कि अध्यात्म की भावभूमि तैयार की जाए, जिसमें भौतिक जगत में रहते हुए भी उसके प्रति अनाशक्त भाव हो। सबके साथ रहते हुए भी मोहमाया के बंधन न हो। ईर्ष्या, द्वेष, निन्दा, छल-कपट आदि से मुक्त हो। ईश्वर के प्रति समर्पण भाव हो, तो मन में ही वृंदावन निर्मित होने लगेगा। इस भावभूमि में ईश्वर की अनुभूति होगी।

कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्

कलियुग में सरल हुई साधना सतयुग में ईश्वर की आराधना सर्वाधिक कठोर थी। हजारों वर्ष तप करना पड़ता था, अन्न-जल का त्याग करना पड़ता था। किन्तु क्रमश: प्रत्येक युग में साधना सरल होती गई। कलियुग में यह सर्वाधिक सरल है। गोस्वामी जी ने कहा कलियुग केवल नाम अधारा…। अर्थात इसमें ईश्वर का नाम लेना, स्मरण करना, कथा सुनना, स्वाध्याय करना, सत्संग करना आदि ही पर्याफ्त होता है। तप, विशाल यज्ञ आदि आज सबके लिए संभव ही नहीं है। गृहस्थ जीवन में प्रभु के नाम का स्मरण ही भवसागर को पार करा सकता है।
सतयुग में हजारों वर्ष की तपस्या कपोल कल्पना मात्र नहीं है। तब व्यक्ति की आयु इतनी हुआ करती थी।

वह हजारों वर्ष तप में लगा देता था। मनु-शतरूपा ने पच्चीस हजार वर्ष तप किया था। सतयुग में औसत आयु एक लाख वर्ष, त्रेता में दस हजार वर्ष, द्वापर में एक हजार वर्ष तथा कलियुग के प्रारंभिक चरण में मानव की औसत आयु सौ वर्ष थी। आज मेडिकल साइंस के तमाम प्रयासों के बाद औसत आयु सत्तर वर्ष है। ऐसे में पिछले तीन युगों की भांति तपस्या की ही नहीं जा सकती। फिर भी आज धर्म, अर्थ, काम का पालन करते हुए, मोक्ष की ओर बढ़ा जा सकता है। धर्म के अनुकूल अर्थ का उपार्जन किया जाए, तभी वह शुभ या कल्याणकारी होता है।

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भारतीय दर्शन में भक्ति योग ज्ञान योग और कर्म योग तीनों की महत्ता है। इन में किसी भी मार्ग पर चलते हुए मोक्ष तक की यात्रा को पूरा किया जा सकता है। द्वापर युग की कृष्ण लीला में भक्ति ज्ञान और कर्म के सुन्दर प्रसंग दिखाई देते हैं। प्रभु श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कर्म योग का संदेश दिया। श्रीकृष्ण के साथ सर्वाधिक समय तक रहने वाले उद्धव जी ज्ञान योग के प्रतीक है। जबकि गोपियां भक्ति योग के अलावा कुछ नहीं जानती हैं। उनकी भक्ति में प्रभु के प्रति पूर्ण समर्पण है। संत अतुल कृष्ण ने गोपियों को भक्ति मार्ग का विलक्षण प्रतीक बताया। प्रभु रस के सागर है। रास में सम्मलित होने वाले परम भाग्यशाली होते हैं। गोपियां महा भाग्यशाली थीं । प्रभु के साथ हजारों गोपियां नृत्य करती हैं। सभी को लगता हैं की श्रीकृष्ण उनके साथ हैं। गोपियों को अहंकार हुआ कि कृष्ण उनके साथ हैं। यह अहंकार हुआ, ओमकार वहाँ नहीं रहते। प्रभु श्रीकृष्ण और राधा जी अन्तर्ध्यान हो गए। गोपियां व्याकुल हो जाती हैं। श्रीकृष्ण को पुकारती हैं-

कन्हैया तुम्हें देखना है, जहाँ तुम छीपे हो उधर देखना है, अगर तुम हो दिनों की आहों को सुनते हो।

तो हमे अपनी आ हों का असर देखना है,उबारा था जिस हांथ ने जीव गज को। उसी हांथ का अब हूंनर देखना हैं।

अहंकार आह में परिवर्तित हो गया। गोपियों ने रोते हुए उन्नीस श्लोक गाए।

आंसुओं से मन का गुबार निकल जाता है..

अच्युतम केसवं सत्य भामधावं,

माधवं श्रीधरं राधिका अराधितम।

इंदिरा मन्दिरम चेताना सुन्दरम,

देवकी नंदना नन्दजम सम भजे।।

विष्णव जिष्णवे शंखिने चक्रिने,

रुकमनी रागिने जानकी जानए।

वल्लवी वल्लभा यार्चिधा यात्मने,

कंस विध्वंसिने वंसिने ते नमः।।

वस्तुतः जब से गोकुल में प्रभु अवतरित हुए तब से यहां लक्ष्मीजी की कृपा है। श्रेय की प्राप्ति होने लगी है। अष्ट और नव सिद्धियां बिना पुरुषार्थ के सुलभ होने लगी है। प्रभु की लीला दैहिक दैविक भौतिक ताप को शांत कर देती है। विचारों की विकृति का निवारण हो जाता है। कथा के श्रवण से अमंगल दूर हो जाते हैं।

गोपियों का अहंकार दूर हो गया। गोपियां भक्ति की श्रेष्ठ प्रतीक है। उद्धव जी ने गोपियों की चरण रज को पवित्र माना।क्योंकि भक्ति में विलाप करती है । प्रेम का वास्तविक अर्थ निकट रहना मात्र नहीं होता। प्रभु श्रीकृष्ण ने कभी यह प्रकट नहीं होने दिया कि गोकुल वृंदावन के लोग उनके प्रिय है। लेकिन वह गोकुल वृंदावन के लोगों की सुरक्षा चाहते थे। उन्हें अनेक दुर्जनों को समाप्त करना था। गोपियों की भक्ति सर्वोच्च है।

विरक्ति का तात्पर्य कर्म का परित्याग नहीं है। कर्म करता रहे, लेकिन अपने कर्म प्रभु को समर्पित करता रहे। इसके बाद जो भी फल मिले उसे प्रभु का प्रसाद मान कर ग्रहण करे। सुदामा को प्रभु पर पूर्ण विश्वास है। निर्धनता अभाव से विचलित नहीं होते। प्रभु उनके मित्र है। उनसे भी कुछ नहीं मांगते। सुदामा की पत्नि ने कहा कि उत्तम श्लोक अर्थात प्रभु के दर्शन का भी लाभ मिलता है।

रिपोर्ट-डॉ दिलीप अग्निहोत्री 

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