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अल्फाज़ों का खेल सहज बनाईये

शब्दों के भावार्थ को समझने में दिमाग लगाना पड़े ऐसे लेखन को ज़्यादातर पाठक आधा छोड़ देते है, पढ़ते-पढ़ते लेखक की भावनाओं के साथ बहते चले जाए ऐसा लेखन हर कोई पसंद करता है।

माना कि शब्दों की मायाजाल से उलझते कुछ भी लिख लेना साहित्य शिल्पीयों के बायें हाथ का खेल है पर, एक सवाल बहुत समय से ज़हन में गूँज रहा है क्या शब्दों की जादूगरी, भारी भरकम और गूढ़ार्थ वाला लेखन और आम इंसान की समझ से परे लिखा गया हो उसे ही शानदार, लाजवाब और तार्किक लेखन माना जाता है ?

सीधे सादे तरीकों से सहज सरल भाषा में लिखा गया कुछ भी लोगों के दिल तक नहीं पहुंच पाता क्या? फिर क्यूँ कुछ लेखक खुद को खुद ही महानता के पहले पायदान पर बिठा लेते है और ओरों को तुच्छ समझते है। हर लेखक की शैली, कल्पना शक्ति और हुनर अलग-अलग होते है, कोई चंद शब्दों में बहुत कुछ कहने की कला में पारंगत होते है और कुछ लेखक को विस्तार से लिखना पसंद होता है। लिखने का मकसद तो समाज तक अपने अच्छे विचार पहुँचानेका ही होता है।

भारी और देहाती शब्द हर कोई समझने की समझ नहीं रखता, और शायद जरूरी भी नहीं, लेखन वो होता है जो पाठक के दिल को छू जाए, पढ़ कर लगे की हाँ ये तो मुझसे जुड़ा है,, या यस ये तो मेरे ही मन की बात है। जैसे की मुन्शी प्रेमचंद की हर रचना पाठकों को अपनी सी क्यूँ लगती है ? उनका हर कथन सरल सहज शब्दों में कहा गया होता है।

आज के दौर के नये लेखक चेतन भगत को ही ले लीजिए आम इंसानों के साथ घटती घटनाओं को आम इंसान की भाषा में ही समझाते लिख देते है। एकदम हल्के लहज़े में और प्रवाल से नर्म शब्दों से सजाकर अपने मन की बात लिखकर पाठकों के दिल तक आसानी से पहुँच जाते है। किसी भी द्रश्य का वर्णन सलिके से करते ना कोई शब्दों को समेटने की जद्दोजहद, ना लंबा खींचना और आम ज़िंदगी में घटती हर घटना को बखूबी शब्दों में ढ़ालकर पाठकों को आकर्षित करते है। कुछ-कुछ लेखक खुद को साहित्य की दुनिया में खुद को एक कदम आगे समझते ऐसा अटपटा लिख देते है कि प्रबुद्ध लोग भी आधा पढ़ कर छोड़ देते है। बेशक जानदार लिखें पर आम से लेकर पढ़ने के शौक़ीन तक को समझ में आए और दिल को भी छू जाए ऐसी शैली अपनानी चाहिए।

सच कलाओं में लेखन कला को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। चूँकि इसके लिए बस कागज और कलम की आवश्यकता होती है, इन दोनों की सहायता से कल्पनाओं को परवाज़ देते रचनाकार एक भरा-पूरा संसार रचता चला जाता है। न उसे केनवास चाहिए, न रंग और न तुलिका। वह इनके बिना दृश्य-पर-दृश्य उकेर सकता है। शब्दों की जादूगरी से रंगारंग तस्वीरें गढ़ सकता है। सरल शब्दों के खेल से भी जीवन के सब व्यापार, सारी अनुभूतियों को सजीव कर सकता है। लेखन में मौलिकता को अग्रेसर रखेंगे तो बेशक शानदार रचनाएँ उभरेगी। जरूरी नहीं तोल मोल कर भारी शब्दों से सजाया हुआ ही उत्कृष्ट लेखन कहलाएगा। कल्पनाओं में शब्दों के रंग भरकर पन्नों के कैनवास पर बिछा दो हर कोई रंग जाएगा उस इन्द्रधनुषी रंग में।

     भावना ठाकर ‘भावु’

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