वर्ष और दिवस में दो संधिकाल महत्वपूर्ण होते है। दिवस में सूर्योदय व सूर्यास्त के समय संधिकाल कहा जाता है। सूर्योदय के समय अंधकार विलीन होने लगता है,उसके स्थान प्रकाश आता है। सूर्यास्त के समय इसकी विपरीत स्थिति होती है। भारतीय चिंतन में इस संधिकाल में उपासना करनी चाहिए। इसके अतिरिक्त वर्ष में दो संधिकाल होते है। इसमें मौसम का बदलाव होता है। ऋतु के समय संयम से स्वास्थ भी ठीक रहता है।
नवरात्रि आराधना भी वर्ष में दो बार इन्हीं संधिकाल में आयोजित होती है। यह शक्ति आराधना का पर्व है। इसी के अनुरूप संयम नियम की भी आवश्यकता होती है। पूरे देश में इक्यावन शक्तिपीठ पूरे वातावरण को भक्तिमय बना देते है। इस बार घर में रहकर ही व्रत आराधना करना भी एक प्रकार का आत्म संयम था। कुछ समय पहले ही उत्तर प्रदेश सरकार ने मां विंध्यवासिनी शक्तिपीठ, मां ललिता देवी शक्तिपीठ नैमिषारण्य और मां पाटेश्वरी शक्तिपीठ देवीपाटन में नवरात्र पर लगने वाले मेलों को राज्य स्तरीय मेले का दर्जा प्रदान किया था। इस बार मेला नहीं हो सका। लोगों ने आत्मसंयम का परिचय दिया। इसे भी आराधना का अंग कहा जा सकता है। सीतापुर जिले में मां ललिता देवी शक्तिपीठ पर अमावस्या मेला लगता है।
बलरामपुर जिले में मां पाटेश्वरी शक्तिपीठ देवीपाटन तुलसीपुर व मिर्जापुर जिले में मां विंध्यवासिनी शक्तिपीठ पर वर्ष के दोनों नवरात्रि में मेला लगता है। इन्हीं का प्रांतीयकरण किया गया है। शक्तिपीठों में मां विंध्यवासिनी की महिमा भी विख्यात है। एक मान्यता के अनुसार विंध्यवासिनी मधु तथा कैटभ नामक असुरों का नाश करने वाली भगवती यंत्र की अधिष्ठात्री देवी हैं। जनपद मीरजापुर में गंगा जी के तट पर मां विंध्यवासिनी का धाम है। यहां देवी के तीन रूपों का धाम है। इसे त्रिकोण कहा जाता है। विंध्याचल धाम के निकट ही अष्टभुजा और काली खोह का मंदिर है।
अष्टभुजा मां को भगवान श्रीकृष्ण की सबसे छोटी और अंतिम बहन माना जाता है। श्रीकृष्ण के जन्म के समय ही इनका जन्म हुआ था। कंस ने जैसे ही इन्हें पत्थर पर पटका,वह आसमान की ओर चली गयीं थी। अष्टभुजा धाम में इनकी स्थापना हुई। यह मंदिर एक अति सुंदर पहाड़ी पर स्थित है। पहाड़ी पर गेरुआ तालाब भी प्रसिद्ध है। मां अष्टभुजा मंदिर परिसर में ही पातालपुरी का भी मंदिर है। यह एक छोटी गुफा में स्थित देवी मंदिर है। त्रिकोण परिक्रमा के अंतर्गत काली खोह है। रक्तबीज के संहार करते समय माँ ने काली रूप धारण किया था। उनको शांत करने हेतु शिव जी युद्ध भूमि में उनके सामने लेट गये थे। जब माँ काली का चरण शिव जी पर पड़ा। इसके बाद वह पहाडियों के खोह में छुप गयी थी। यह वही स्थान बताया जाता है। इसी कारण यहां का नामकरण खाली खोह हुआ।
डॉ. दिलीप अग्निहोत्री