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चीन से बाघ को बचाना: इंदिरा ने पाला, मोदी ने पोसा

         के. विक्रम राव

भारतीय व्याध्र का क्रूरतम शत्रु है पड़ोसी चीन, केवल हमारी हिमालयी सीमाओं पर ही नहीं। इस कम्युनिस्ट राष्ट्र के बाद इस वनराज का घातक बैरी रहा कुख्यात तस्कर संसारचंद। अलवर के गाजी क्षेत्रवाला, (जेल में निधन : 18 मार्च 2014)। इन दोनों दुश्मनों की खास याद आती है आज (1 अप्रैल 2023), बाघ बचाओ परियोजना की स्वर्ण जयंती पर। त्रासदी रही कि पिछली सदी के प्रारंभ में तीन हजार बाघ भारत के जंगलों में विचरते थे।

आज केवल सत्रह सौ बचे हैं। ऐसी रफ्तार देखकर आशंका होती है कि बाघ कहीं स्कूली किताबों, प्राणी उद्यानों और इतिहास के पन्नों तक ही सीमित न रह जाए। हालांकि गत वर्षों से जनसरोकार सर्जा है। मनभावन बात यह रही कि स्वयं दो प्रधानमंत्रियों ने इन वनजीवों से स्नेह दर्शाया है। इंदिरा गांधी ने पांच दशक पूर्व “बाघ रक्षा परियोजना” रचकर। नरेंद्र दामोदर दास मोदी ने लुप्त चीतों का पुनः भारत में अवतार कराकर। सलाम दोनों को। सिहरन होती है पढ़कर कि गत सदी में केवल तीन प्रतिशत जंगली बाघ ही बचे हैं, करीब तीन हजार में से। कुछ मलेशिया, सुमात्रा, साइबेरिया और वियतनाम में हैं। चीन में तो बाघों का फार्म है जिसमें छः हजार पलते हैं। वे जंगली नहीं है, खेतिहर हैं। उद्योग का हिस्सा है।

हालांकि चीन का ऐसा कृत्य लुप्त वनप्राणी के व्यापार पर लगे वैश्विक प्रतिबंध का सरासर उल्लंघन है। चीन का संघीय कानून भी बाघ के अंगों के व्यापार को वर्जित करार देता है। अनादि काल से इस प्राचीन देश में धारणा रही कि बाघ के शिश्न के मांस को खाने से पौरुष ग्रंथि में शक्ति आती है। कामक्रीड़ा में लुफ्त बढ़ता है। चीन के लोगों का विश्वास है कि बाघ के अंग खाने से गठिया, गंज, दांत का दर्द, मिर्गी, नपुंसकता आदि ठीक हो जाते हैं। बस यही मूल कारण है भारत से बाघों की तस्करी का। नतीजन चीन के लोग भारत से चुराये गये व्याध्र-अंगों को ऊंचे दामों में खरीदते हैं। बारह लाख रुपए तक की बोली लगती है।

👉एक गुलाम एशियाई द्वीप!

बधनखा, गलमुच्छा, पूंछ, रोंयें, हड्डियां, मांस और मज्जा सभी की ऊंची कीमत मिलती है। ऐसे चोरी छिपे निर्यात के पहले पिछली गणना के अनुसार विश्व के 65 प्रतिशत बाघों की संख्या भारत में थी। अब क्रमशः घटती गई। चीन के बाजार में बिकने के बाद से। याद रहे चीन के वुहान क्षेत्र के पक्षी बाजार से चमगादड़ का गोश्त खाने से 2019 में कोविड फैला था। एकदा चीन की अपनी प्रथम यात्रा पर मेरे गाइड ने मुझे बताया था : “हम चीन के लोग हर उड़ती चीज खाते हैं, सिवाय वायुयान के। हर तैरती चीज का भोजन करते हैं, सिवाय नाव के। हर चौपाया चबा जाते हैं, सिवाय टेबुल के।”

इसी विषयवस्तु पर एक बेहतरीन फिल्म बनी थी, “सेव वाइल्ड टाइगर्स” जिसमें आग्रह था अवैध शिकार बंद करो और बाघ का आहार मत करो। इसी भांति गैंडा का सींग, हाथी दांत और भालू आदि पशुओं के खाल की तिजारत की जाती है। वन-धन का निर्लज्ता से शोषण हो रहा है। हांगकांग में तो मैंने रेस्त्रां में देखा कि भोजन की टेबुल पर छेद बने हैं। इनमें जीवित बंदर का सिर फंसाते हैं। उसे छूरी से काट काट कर कांटे से खाते हैं। लज्जतदार भोज्य माना जाता है। पाशविक है।

चीन से बाघ को बचाना

ताबीज और तासीर मानते हैं बाघ के दांतों की माला को, जबकि कोई भी वैज्ञानिक प्रयोगशाला इन्हें सही नहीं मानती। समाधान है केवल व्यापक जन जागरूकता, उपभोक्ता व्यवहार में परिवर्तन, नीतियों में सुधार, और मजबूत कानून में ही है। हाथी दांत और गैंडे के सींग के लिए विविध मांगों में कमी के अभियानों में काफी सफलता मिली है, मगर बाघों के अंगों और उत्पादों की मांग को कम करने के अभियानों में जोर और तेजी की आवश्यकता है। बाघ की खाल का तो आकर्षण बड़ा व्यापक रहा है। साधु संत भी इस हेय कार्य में शरीक हैं। यूरोप में तो बाघचर्म की कीमत एक करोड़ रुपए तक आंकी जाती है। सालाना करीब दो सौ अरब रुपयों का व्यापार होता है।

अब उल्लेख हो निकृष्टतम तस्कर मरहूम संसारचंद का। राजस्थान के अलवर के इस साधारण व्यापारी की ही करामत थी कि उसने अपने ही जिले के सरिस्का टाइगर रिजर्व क्षेत्र से सारे बाघों को मारकर उनके अंगों का व्यापार किया था। राजीव गांधी सपरिवार सरिस्का जाया करते थे। आश्चर्य यह है कि चालीस साल तक संसारचंद ऐसा काला घिनौना धंधा करता रहा। उसकी बीवी रानी, बेटी सीमा, समस्त कुटुंब ही लगा था। सीबीआई ने जांच शुरू की, वह भूमिगत हो गया। भला हो रेलवे पुलिस के दरोगा शैतान सिंह का जिसने चेतक एक्सप्रेस से संसारचंद के गुर्गे बलवान को माल सहित पकड़ा।

👉जान के दुश्मन बनते आवारा कुत्ते

संसारचंद की धरपकड़ भी बड़ी रोमांचित रीति से हुई। उसने दिल्ली के सदर बाजार में बिक्री केंद्र खोला था। पश्चिम पटेल नगर में एक लंगड़े भिखारी का इस्तेमाल करता था। वह जयपुर के एक हिंदी दैनिक का नियमित ग्राहक था। पुलिस को शक हुआ कि दिल्लीवासी किसी राजस्थानी समाचार पत्र का नियमित पाठक हो। छापा मारा तो संसारचंद तब मां दुर्गा की आरती उतार रहा था। शेरांवाली मां की कृपा चाहता था। पकड़ा गया। उसका व्यापार नेपाल और तिब्बत तक फैला था, चीन मुख्य मार्केट रहा। उसे “उत्तर का वीरप्पन” कहते थे।

दक्षिण का वीरप्पन तो चंदन की तस्करी करता रहा। संसार चंद पर कभी भी कोई चार्जशीट नहीं दायर हुई। अंततः नसीब उसका था कि वह कैंसर से ग्रसित हो गया था। काल कवलित हो गया। मगर हजारों बाघों को मारकर। राष्ट्र की आन, बान, शान है बाघ, राष्ट्रीय पशु है। उसकी दहाड़ दहलाती है। इसी दहाड़ को खामोश करने की साजिश संसारचंद रचता रहा। कैंसर ने उसी को खामोश कर दिया।

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