किसानों के नाम पर चल रहे आंदोलन के नेताओं ने पता नहीं क्या सोच कर काला दिवस मनाया,हकीकत यह है कि इन छह महीनों में इस आंदोलन की चमक पूरी तरह समाप्त हो चुकी है। आंदोलन के नेता कृषि कानून को काला बता रहे थे। सरकार ने ग्यारह दौर की वार्ता में इन नेताओं से पूंछा था कि कृषि कानूनों में काला क्या है।
लेकिन आंदोलन के नेता कुछ नहीं बता सकता। उनकी यही जिद थी कि कानून वापस लिए जाएं। इसके साथ उनका निरर्थक प्रलाप चलता था कि किसान की जमीन छीन जाएगी, कृषि मंडी समाप्त हो जाएगी। छह महीने में ऐसा कुछ नहीं हुआ। इसकी गरिमा तो गणतंत्र दिवस के दिन ही चली गई थी। फिर भी कुछ नेताओं की जिद पर आंदोलन चलता रहा। अब तो इसके आंतरिक विरोध भी खुल कर सामने आ गए है। कोई सरकार से पुनः बात करना चाहता है,कोई इसका विरोध कर रहा है। सच्चाई यह कि इसके नेताओं को आंदोलन में बैठे लोगों उनके परिजनों व उनके गांवों की कोई चिंता नहीं है। अन्यथा कोरोना की इस आपदा में आन्दोलन को स्थगित तो किया जा सकता था।
नए कृषि कानूनों में किसान हितों के खिलाफ कुछ भी नहीं है। पुरानी व्यवस्था कायम रखी गयी है, इसके साथ ही नए विकल्प देकर उनके अधिकारों में बढ़ोत्तरी की गई। ऐसे में किसानों की नाराजगी का कारण नजर नहीं आता। फिर भी किसानों के नाम पर आंदोलन चल रहा है। यह सामान्य किसान आंदोलन नहीं है। इस लंबे और सुविधाजनक आंदोलन के पीछे मात्र किसान हो भी नहीं सकते। आंदोलन केवल किसानों का नहीं है। इसमें वे लोग भी शामिल हैं, जो अबतक किसानों की मेहनत का लाभ उठाते रहे हैं।
कृषि कानून से इनको परेशानी हो सकती है। नरेंद्र मोदी ने कहा भी था कि बिचौलियों के गिरोह बन गए थे। वह खेतों में मेहनत के बिना लाभ उठाते थे। कृषि कानून से किसानों को अधिकार दिया गया है। पिछली सरकार के मुकाबले नरेंद्र मोदी सरकार ने किसानों की भलाई हेतु बहुत अधिक काम किया है। अब तो कृषि कानूनों के लाभ भी दिखाई देने लगे है।