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संकीर्ण दायरे

निधि भार्गव मानवी

संकीर्ण दायरे नकार दो न, उस शोर को जो जबरन टकराता है कानों की अंदरूनी सतह पर जाकर…क्यूं सुनते हो बेवजह बेबुनियाद,दलीलों को? तोड़ दो न ये दायरे दखलंदाजी के आख़िर कब तक कैद रहोगे.. दड़बे नुमा… खोखले विचारों के अंधेरे खंडहर में, घुटे और सहमें हुए, गुजारिश है वक्त ...

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