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थैलेसीमिया दिवस विशेष: हीमोग्लोबिन निर्माण की प्रक्रिया के ठीक से काम न करने से आती है दिक्कत

औरैया। हर साल 8 मई को अंतर्राष्ट्रीय थैलेसीमिया दिवस मनाया जाता है, थैलेसीमिया बच्चों को माता-पिता से अनुवांशिक तौर पर मिलने वाला रक्त-रोग है। इस रोग के होने पर शरीर की हीमोग्लोबिन के निर्माण की प्रक्रिया ठीक से काम नहीं करती है और रोगी बच्चे के शरीर में रक्त की भारी कमी होने लगती है। जिसके कारण उसे बार-बार बाहरी खून चढ़ाने की आवश्यकता होती है।

इस वर्ष इस दिवस की थीम “वैश्विक थैलेसीमिया समुदाय के पार स्वास्थ्य असमानताओं को संबोधित करना ” है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार थैलेसीमिया से पीड़ित अधिकांश बच्चे कम आय वाले देशों में पैदा होते हैं। इसकी पहचान तीन माह की आयु के बाद ही होती है।

बच्चों को माता-पिता से मिलती है यह बीमारी

जिला अस्पताल के बाल रोग विशेषज्ञ डॉ. जीपी चौधरी बताते हैं कि यह एक आनुवंशिक बीमारी है। माता-पिता इसके वाहक होते हैं। देश में प्रतिवर्ष लगभग 10,000 से 15,000 बच्चे इस बीमारी से ग्रसित होते हैं। यह बीमारी हीमोग्लोबिन की कोशिकाओं को बनाने वाले जीन में म्यूटेशन के कारण होती है। हीमोग्लोबिन आयरन व ग्लोबिन प्रोटीन से मिलकर बनता है। ग्लोबिन दो तरह का होता है, अल्फा व बीटा ग्लोबिन। थैलेसीमिया के रोगियों में ग्लोबीन प्रोटीन या तो बहुत कम बनता है या नहीं बनता है जिसके कारण लाल रक्त कोशिकाएं नष्ट हो जाती हैं। इससे शरीर को आक्सीजन नहीं मिल पाती है और व्यक्ति को बार-बार खून चढ़ाना पड़ता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार ब्लड ट्रांस्फ्युसन की प्रक्रिया जनसँख्या के एक छोटे अंश को ही मिल पाती है बाकी रोगी इसके अभाव में अपनी जान गँवा देते हैं।

डा. चौधरी बताते हैं कि यह कई प्रकार का होता है जैसे मेजर, माइनर और इंटरमीडिएट थैलेसीमिया। संक्रमित बच्चे के माता और पिता दोनों के जींस में थैलेसीमिया है तो मेजर, यदि माता-पिता दोनों में से किसी एक के जींस में थैलेसीमिया है तो माइनर थैलेसीमिया होता है। इसके अलावा इंटरमीडिएट थैलेसीमिया भी होता है जिसमें मेजर व माइनर थैलीसीमिया दोनों के ही लक्षण दिखते हैं। उनके अनुसार सामान्यतया लाल रक्त कोशिकाओं की आयु 120 दिनों की होती है लेकिन इस बीमारी के कारण आयु घटकर 20 दिन रह जाती है जिसका सीधा प्रभाव हीमोग्लोबिन पर पड़ता है। हीमोग्लोबिन के मात्रा कम हो जाने से शरीर कमजोर हो जाता है व उसकी प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है परिणाम स्वरूप उसे कोई न कोई बीमारी घेर लेती है।

थैलेसीमिया के लक्षण

इस बीमारी से ग्रसित बच्चों में लक्षण जन्म से 4 या 6 महीने में नजर आते हैं। कुछ बच्चों में 5 -10 साल के मध्य दिखाई देते हैं। त्वचा, आँखें, जीभ व नाखून पीले पड़ने लगते हैं। प्लीहा और यकृत बढ़ने लगते हैं, आंतों में विषमता आ जाती है, दांतों को उगने में काफी कठिनाई आती है और बच्चे का विकास रुक जाता है।
बीमारी की शुरुआत में इसके प्रमुख लक्षण कमजोरी व सांस लेने में दिक्कत है। थैलेसीमिया की गंभीर अवस्था में खून चढ़ाना जरूरी हो जाता है। कम गंभीर अवस्था में पौष्टिक भोजन और व्यायाम बीमारी के लक्षणों को नियंत्रित रखने में मदद करता है।

डॉ. कंचन बताते हैं कि बार-बार खून चढ़ाने से रोगी के शरीर में आयरन की अधिकता हो जाती है। 10 ब्लड ट्रांसफ्यूसन के बाद आयरन को नियंत्रित करने वाली दवाएं शुरू हो जाती हैं जो कि जीवन पर्यंत चलती हैं।

रोग से बचने के उपाय

• खून की जांच करवाकर रोग की पहचान करना।
• शादी से पहले लड़के व लड़की के खून की जांच करवाना।
• नजदीकी रिश्ते में विवाह करने से बचना।
• गर्भधारण से 4 महीने के अन्दर भ्रूण की जाँच करवाना।

प्रतिवर्ष विश्व थैलेसीमिया दिवस मनाने का उद्देश्य

• इस रोग के प्रति लोगों को जागरूक करना।
• इसके रोग के साथ लोगों को जीने के तरीके बताना।
• रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए नियमित टीकाकरण को बढ़ावा देना तथा टीकाकरण के बारे में गलत धारणाओं का निराकरण करना।
• ऐसे व्यक्ति जो इस रोग से ग्रस्त हैं, शादी से पहले डाक्टर से परामर्श के महत्व पर जागरूकता बढ़ाना।

शिव प्रताप सिंह सेंगर

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