जिसकी शायरी अपने बदन पर हिंदी का लिबास ओढ़ती है और जो अपने होंठों पर उर्दू की लाली लगाती है, उस शायर की पहचान न केवल गंगा-जमुनी तहज़ीब की मौजों की हिफ़ाज़ात करना है बल्कि अपने मुल्क की गाँव-गलियों में घटने वाली हर दिन की मुसलसल परेशानियों के सबब को भी ज़ाहिर करना है।
ऐसे अज़ीम शायर को हम और पूरी कायनात बेकल उत्साही के नाम से जानती है। हिंदी और उर्दू इस मुल्क में माँस में फँसी हुई नाखून की तरह है जिसे अलग करने की मुहीम का केवल एक मतलब है-दोनों को मौत इख्तियार करना। और दोनों जबानों को ज़िंदा रखने और उसे पालने-पोसने का काम किया है बेकल साहब की ग़ज़लों, नज़्मों, कतआतों और शेरों ने।
“अब न गेहूँ न धान बोते हैं
अपनी क़िस्मत किसान बोते हैं
गाँव की खेतियाँ उजाड़ के हम
शहर जाकर मकान बोते हैं”
शायर को अपने वक़्त के दुःख-दर्द, मौजूदा सामाजिक संघर्ष, अंतरव्यक्तिक उलझनों और अपनी जिम्मेदारियों को भी उसी कोशिश से लिखनी चाहिए जिस कोशिश से कोई शायर किसी की खूबसूरती और शफाकत को लिखता है। इन दोनों विधाओं में बेकल साहब को महारत हासिल थी। क्या कोई भूल सकता है बेकल उत्साही के उस कलाम को जिसे अहमद हुसैन और मोहम्मद हुसैन ने अपनी आवाज़ में पिरोकर लोगों के सामने प्रस्तुत किया और मोहब्बत की नयी तारीख लिख दी।
“ज़ुल्फ़ बिखरा के निकले वो घर से
देखो बादल कहाँ आज बरसे
मैं हर इक हाल में आपका हूँ
आप देखें मुझे जिस नज़र से
फिर हुईं धड़कनें तेज़ दिल की
फिर वो गुज़रे हैं शायद इधर से
बिजलियों की तवाजो में बेकल
आशियाने बनाये शरर से”
ये जादू है बेकल उत्साही की लेखनी का जो पाठकों के सर पर चढ़ कर बोलता है और आपको किसी और जहाँ में ले जाता है, जिसे आप पाने की कोशिश में थे लेकिन दुनिया के काम-काज में वो इच्छाएँ कहीं सिमट कर रह गई। बेकल साहब न केवल उदास दिलों को गर्माहट प्रदान करते हैं बल्कि जीने के नए शऊर और ज़िंदादिली की नई परिभाषाओं से भी परिचित करवाते हैं। बेकल साहब के पास अगर हुश्नों-इश्क़ पर लिखने की कला थी तो इससे कहीं ज्यादा वो अपनी शायरी से आम लोगों, गाँव , पनघट , खेत , ग्रामीण लोगों की रोजमर्रा की दिक्कतों से भी रू-ब-रू कराने की है मुमकिन कोशिश में आमादा दिखते हैं। इन मुद्दों पर आप बेकल साहब की बेचैनी यक-ब-यक इन शेरों में महसूस कर सकेंगे।
“शहर की बर्बादियों में हाथ है उस शोख का
फिर भी हर बर्बाद घर उसकी तरफ़दारी में है
रेग जिन पौधों में था उनकी दवा-दारू हुई
क्या करोगे अब तो सारा खेत बीमारी में है “
” पहले मुखमल से काम नहीं थी मगर
दोस्ती अब तो मारकीन लगी
खेत जलते हुए जहाँ देखे
वो मिरे गाँव की ज़मीन लगी”
“खेत सावन में जलते रहे
गाँव कपड़े बदलते रहे”
“सुनिए जनाब मेरा ही हिन्दोस्ताँ है नाम
खेती मेरा उसूल है फाका स्वभाव है
शोभा मेरे बदन की यही चीथड़े तो हैं
पैरों के नीचे बर्फ है सर पर अलाव है”
“स्टेशनों पे पानी पिलाते तो हैं अछूत
हाँ पनघटों पे थोड़ा बहुत भेदभाव है
अब उम्र रह गई है गरीबी की दस बरस
बेकल गरीब का ये ख्याली पुलाव है”
“लोग चुनते हैं गीत के अल्फ़ाज़
हम गज़ल की ज़बान बोते हैं
अब हराम में नमाज़ उगे न उगे
हम फ़ज़ा में अज़ान बोते हैं”
बेकल उत्साही आज भी हिंदी मंचों की गरिमा को बनाए हुए हैं। बेकल उत्साही को भी हिंदी मंच के पाठक उतने ही चाव से सुनते हैं जितने चाव से नीरज और दुष्यंत कुमार को। आने वाली तारीख़ में बेकल उत्साही की शायरी का सही मूल्यांकन किया जाएगा और उसकी प्रसांगिकता भी तय की जाएगी। कोई भी शायर अपनी दूरदर्शिता से ही ज़माने भर में ज़िंदा रहता है। अगर कोई शायर अपनी लेखनी से आने वाली नस्लों को भविष्य की चुनौतियों से आगाह ना कर पाए तो उसकी ख्याति पानी के बुलबुले की तरह है जिसके जीने की उम्र क्षणभंगुर होती है। लेकिन बेकल साहब की शायरी न केवल आने वाली कल को बयान करती है बल्कि इतिहास से सीख भी लेने को बाध्य करती है। उर्दू के अजीमोशान समीक्षक प्रो० अबुल कलाम कासमी ने बेकल साहब की ग़ज़लों को इंफरादियत के तौर पर देखे जाने की पेशकश करते हैं और बेकल साहब को ग़ज़ल के नए लहजे की पहचान का माकूल शख़्सियत मानते हैं। बेकल साहब की अज़ीम ग़ज़लों और उनकी बेहद ही अदबी पहचान को यूँ समेटा जा सकता है –
“सूना है ‘मोमिन’-ओ-‘ग़ालिब’ न मीर जैसा था
हमारे गाँव का शायर ‘नज़ीर’ जैसा था
छिड़ेगी दैर-ओ-हरम में ये बहस मेरे बाद
कहेंगे लोग कि बेकल ‘कबीर’ जैसा था”