महाकुम्भ, भारत का एक प्रमुख धार्मिक उत्सव है। वार्षिक कुम्भ का आयोजन प्रतिवर्ष किया जाता है लेकिन प्रति 12 वर्षों में आयोजित किए जाने वाले महाकुम्भ को देश में चार विभिन्न स्थानों पर आयोजित किया जाता है। इनमें से एक स्थान है हरिद्वार…जहाँ पर पिछली बार जनवरी से अप्रैल 2010 तक महाकुम्भ मेला लगा था। यद्यपि हरिद्वार में लगने वाला यह मेला बहुत लोकप्रिय है और इसमे भागीदारी करने के लिए देश-विदेश से करोड़ों लोग आते हैं। लेकिन विश्व-प्रचलित हरिद्वार महाकुम्भ के साथ इतिहास का एक दुखदाई पहलू भी जुड़ा हुआ है। यह दुखदाई पहलू है, सन 1398 में मुस्लिम शासक तैमूर द्वारा हरिद्वार में एकत्रित हुए श्रद्धालुओं का बड़े पैमाने पर हुआ नरसंहार। ऐतिहासिक तथ्यों पर यदि गौर करें तो देखने को मिलेगा कि सन् 1196 में राजपूतों का प्रभुत्व समाप्त होने के बाद दिल्ली मुस्लिम शासकों के आधिपत्य में आ गई। सन् 1206 में मोहम्मद गौरी की मृत्यु हुई और उसके राज्यपाल कुतुबुद्दीन ऐबक ने स्वयं को दिल्ली का सुल्तान घोषित कर दिया। तब हरिद्वार क्षेत्र भी उसके राज्य का एक हिस्सा था।
‘रेस्तरां में अरुण जेटली से कहता था ऑर्डर आप ही दे दीजिए’, खान-पान के शौक पर पीएम ने सुनाया किस्सा
सन् 1217 में गुलाम वंश के सुल्तान शम्सुद्दीन अल्तमश ने मंडावर समेत शिवालिक क्षेत्र को अपने अधिकार में कर लिया। सन् 1253 में सुल्तान नसीरुद्दीन पंजाब की पहाडि़यों के राजाओं पर विजय प्राप्त करता हुआ सेना सहित हरिद्वार पहुंचा और कुछ दिन ठहरने के बाद गंगा पार कर बदायूं की ओर चला गया। अजमेरीपुर उत्खनन से प्राप्त सामग्री में इस काल के प्रमाण मिलते हैं।
इतिहास से ज्ञात होता है कि तैमूर ने अपने समय में कुम्भ के दौरान बड़े पैमाने पर नरसंहार किया था। गुलाम वंश के पश्चात कुछ काल के लिए यहां की स्थिति स्पष्ट नहीं है। जियाउद्दीन बनी द्वारा लिखित ‘तारीख-ए-फिरोज शाही’ के अनुसार मोहम्मद तुगलक ने शिवालिक पहाडियों तक गंगा-यमुना के दोआब पर अधिकार कर लिया था। तब प्रशासनिक व्यवस्था की दृष्टि से सहारनपुर नगर का निर्माण करवाया गया, जो सन् 1379 में सुल्तान फिरोजशाह के अधीन आ गया। सन् 1387 में फिरोजशाह तुगलक दोबारा यहां आया। सहारनपुर गजेटियर में इतिहासकार नेबिल लिखते हैं कि देहरादून के जंगलों में उसने शिकार किया।
तुगलक सुल्तानों के राज्यकाल में खुरासन के अमीर जफर तैमूर ने हिंदुस्तान पर हमला किया और सन् 1398 में दिल्ली को ध्वस्त कर गंगा के किनारे-किनारे हरिद्वार तक पहुंच गया। तैमूर अपनी आत्मकथा ‘तुजक-ए-तैमूर’ या ‘मलफूजात-ए-तैमूर’ में लिखता है, ‘जब मलिक शेख पर विजय प्राप्त करने के बाद मुझे मेरे खुफिया लोगों ने समाचार दिया कि यहां से दो कोस की दूरी पर कुटिला घाटी में बड़ी संख्या में हिन्दू लोग अपनी पत्नी एवं बच्चों के साथ एकत्र हुए हैं, उनके साथ बहुत धन-दौलत एवं पशु इत्यादि हैं, तो यह समाचार पाकर मैं तीसरे पहर की नमाज अदा कर अमीर सुलेमान के साथ दर्रा-ए-कुटिला की ओर रवाना हुआ’।
तैमूर का इतिहासकार शरीफुद्दीन याजदी अपनी किताब ‘जफानामा’ में ‘दर्रा-ए-कुटिला’ को ‘दर्रा-ए-कुपिला’ लिखता है और गंगाद्वार की स्थिति दर्रा-ए-कुपिला में बताता है। वह कहता है कि गंगाद्वार से निकलकर गंगा कु-पि-ला घाटी में बहती है। पुरातत्ववेत्ता कनिंघम ‘कु-पि-ला’ को ‘कोह-पैरी’ अर्थात् ‘पहाड़ की पैड़ी’ मानकर ‘हरि की पैड़ी’ का उल्लेख मानते हैं।
तैमूर व उसके इतिहासकार शरीफुद्दीन, दोनों ही के बयान से स्पष्ट है कि महाभारत में उल्लेखित कपिल तीर्थ या कपिल स्थान का नाम किसी न किसी रूप से चौदहवीं सदी में प्रचलित था। जहां तक नरसंहार का प्रश्न है शरीफुद्दीन का वर्णन तैमूर के वर्णन की कही तस्वीर है। गंगाद्वार की स्नान महत्ता एवं पितृश्राद्ध संबंधी वर्णन युवान-च्वांग [ह्वेनसांग] एवं महमूद के इतिहासकार अतवी के वर्णन के ही अनुरूप है। इस वर्णन से स्पष्ट है कि तैमूर स्नान पूर्व वैशाखी पर हरिद्वार आया था। नरसंहार के साथ-साथ उसने तत्कालीन नगर मायापुर में बरबादी मचा दी थी। बारह वर्ष के अंतराल पर संपन्न होने वाले कुम्भ पर्व की गणना के अनुसार तैमूर द्वारा किया गया यह नरसंहार आज से 600 वर्ष पूर्व सन् 1398 में घटित हुआ। यह कुंभ पर्व का ही समय था।
सांस्कृतिक परंपराओं को संरक्षित करने के लिए शुरू की गई संतों की पेशवाई
प्रयागराज में महाकुंभ-2025 मेले का आयोजन किया गया है। इस भव्य समारोह की तैयारियां जोरों-शोरों से चल रही हैं। यह कुंभ मेला 45 दिनों तक चलेगा। इस महाकुंभ मेले में देशभर से लोग आस्था के साथ स्नान करने आएंगे। इस धार्मिक पर्व के दौरान प्रयागराज के संगम समेत प्रमुख घाटों पर स्नान के लिए साधु-संतों का जमावड़ा लगेगा। महाकुंभ के दौरान अखाड़े की पेशवाई निकलती है जो बेहद खास मानी जाती है। आइए जानते हैं कुंभ मेले के दौरान अखाड़े की पेशवाई का क्या मतलब है? इस अखाड़े की पेशवाई में कौन भाग ले सकता है?
सबसे बड़ा धार्मिक त्योहार
महाकुंभ मेला दुनिया का सबसे बड़ा धार्मिक त्योहार है। ऐसा माना जाता है कि इससे बड़ा कोई धार्मिक त्योहार नहीं है। सांस्कृतिक परंपराओं को संरक्षित करने और धर्म को समाज से जोड़ने के लिए महाकुंभ का आयोजन और उत्सव बड़े उत्साह से किया जाता है। ऋषि-मुनि महाकुंभ के वाहक माने जाते हैं। इन संतों ने विपरीत परिस्थितियों में भी धर्म की रक्षा की और उसे मजबूत किया। साथ ही जरूरत पड़ने पर ये संत धर्म और देश की रक्षा के लिए हथियार उठाने से भी नहीं हिचकिचाते थे।
अखाड़े का पेशवा क्या है?
अखाड़े के साधुसंत शाही ठाट-बाट के साथ कुंभ मेले में आते हैं। तब उन्हें “पेशवा” कहा जाता है, राजा-महाराजाओं की तरह हाथी, घोड़ों और रथों पर साधु-संतों का शाही जुलूस निकलता है। इस समय वहां मौजूद श्रद्धालु संतों का स्वागत करते हैं। ये संत अपने-अपने अखाड़ों के झंडे अपने हाथों में रखते हैं। साधु संत हाथ में ध्वजा लेकर पूरे समारोह के साथ अपनी सेनाओं के साथ नगर से निकलते हैं। कुंभ में दुनिया भर से लोग ऋषि-मुनियों के दर्शन के लिए आते है। 2025 में महाकुंभ मेला 13 जनवरी से शुरू होकर 26 फरवरी तक चलेगा।
मुगलों की पाबंदी के प्रतिशोध में निकली थी पेशवाई, रोचक है इसका इतिहास
कुंभ और महाकुंभ के पहले निकलने वाली संतों की पेशवाई का अद्भुत और अलौकिक स्वरूप देखने को मिलता है। यह आयोजन मुगल काल से चला आ रहा है जब संतों ने जहांगीर की सेना का सामना कर मेला क्षेत्र में प्रवेश किया था। पेशवाई में अखाड़ों का वैभव संतों का समर्पण और पुरुषार्थ देखने को मिलता है।
जहांगीर की सेना को परास्त कर शुरू हुई पेशवाई की परंपरा
ध्वज-पताका, बैंडबाजा, अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित संतों का जत्था अर्थात पेशवाई (छावनी प्रवेश)। इसका अद्भुत, अलौकिक स्वरूप कुंभ और महाकुंभ के ठीक पहले देखने को मिलता है। समस्त अखाड़े अपना वैभव प्रदर्शित करने के लिए पेशवाई निकालते हैं, जिसमें सनातनी वैभव और सामर्थ्य की तमाम गाथा सिमटी है।
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया… के भाव के साथ चलने वाले संत जनमानस को एहसास कराते हैं कि संपत्ति और ऐश्वर्य से किस तरह निर्लिप्त रहा जाता है। इस बात का भी एहसास कराते हैं कि-धर्म सर्वोपरि है। धर्म व संस्कृति पर आंच आयी तो उसका सामना करते हुए कड़ा प्रतिशोध किया।
यह आयोजन उसी का प्रतिफल है। हम बात कर रहे हैं मुगल काल की, जब 16वीं शताब्दी में जहांगीर ने सनातनियों को कुंभ के प्रति हतोत्साहित करके मेला को बाधित करने का प्रयास किया। संतों को एकजुट हाेने पर पाबंदी लगा दी। तब नागा संतों ने जहांगीर की सेना से मोर्चा लेकर उन्हें परास्त किया। इसके बाद एकजुटता से मेला क्षेत्र में प्रवेश करने की परंपरा आरंभ हुई।
अकबर के बाद उसके बेटे जहांगीर ने 1605 ईसवीं में सत्ता की बागडोर संभाली। प्रयागराज (तब इलाहाबाद) में उसने सिंहासन पर आसीन होकर मुकुट धारण किया। अपना प्रभुत्व दिखाने के लिए अपने नाम का सिक्का भी चलवाया। जहांगीर ने सत्ता संभालने के बाद सनातन धर्मावलंबियों को प्रताड़ित करना शुरू कर दिया। यमुना तट पर बने किला के अंदर स्थित अक्षयवट वृक्ष को कई बार कटवाया व जलवाया।
यह बात और है कि उसके बावजूद अक्षयवट कुछ समय बाद पुराने स्वरूप में आ जाता था। उस दौर में अखाड़ों के संत समूह के बजाय छोटी-छोटी टुकड़ी में कुंभ क्षेत्र में प्रवेश करते थे। इतिहासकारों के अनुसार जहांगीर के राज में प्रयागराज में कुंभ मेला लगा तो उसकी सेना ने टुकड़ी में आने वाले संतों पर हमला करना शुरू कर दिया।
इसमें लगभग 60 संतों की मृत्यु हो गई। इसकी सूचना अखाड़ों में पहुंची तो नाराजगी बढ़ गई। फिर समस्त अखाड़ों के संत एकजुट होकर हाथी-घोड़े, बग्घी व बैलगाड़ी पर सवार होकर प्रयागराज पहुंचे। उन्हें कौशांबी क्षेत्र में रोकने का प्रयास हुआ। तब नागा सहित समस्त संतों ने जहांगीर की सेना पर जोरदार हमला बोला।
लगभग 15 दिनों तक चले युद्ध में साधु-संत जहांगीर की सेना को पीछे ढकेलते हुए आगे बढ़ते हुए संगम क्षेत्र तक आ गए। इसके बाद जहांगीर को हार स्वीकार करनी पड़ी, ये अलग बात है कि इतिहासकारों ने इस घटना की अनदेखी की। वह मुगलों का गुणगान करते रहे, लेकिन नागा संतों की वीरता, समर्पण का उल्लेख नहीं किया।
दौर बदला, आयी भव्यता
19वीं शताब्दी तक पेशवाई का स्वरूप साधारण रहता था। अखाड़े का ध्वज, आराध्य की पालकी लेकर संत डुगडुगी, मजीरा व शंख बजाते चलते थे। ब्रिटिश शासनकाल से देश को आजादी मिलने के बाद पेशवाई का स्वरूप भव्य होने लगा। अखाड़े के आचार्य महामंडलेश्वर व मंडलेश्वर बग्घी में सवार होकर चलने लगे। वाद्ययंत्र भी धीरे-धीरे बेहतर होने लगे।
वैभव के साथ दिखता है पुरुषार्थ
सनातन धर्म व संस्कृति का इतिहास समृद्ध व गौरवशाली है। उसके आधार अखाड़े हैं, परंतु इतिहासकारों ने उन्हें अपेक्षा के अनुरूप महत्व नहीं दिया। पेशवाई की परंपरा उसी से जुड़ी है। पेशवाई का मतलब ऐसी शोभायात्रा जिसमें साधु-संत राजा-महाराजों की तरह घोड़ों और रथों पर बड़े-बड़े भव्य सिंहासनों पर बैठकर निकलते हैं।
इसके जरिए अखाड़े अपना राजसी वैभव दिखाते हैं। इनके साथ नागा संत युद्ध का कौशल दिखाते चलते हैं। इसका अभिप्राय यह है कि राजसी वैभव उन्हें भिक्षा में नहीं मिला, बल्कि उसे अपने पुरुषार्थ से प्राप्त किया है। शस्त्रुओं से युद्ध करके धर्म की रक्षा करने के साथ वैभव प्राप्त किया है। बताते हैं कि अखाड़ों के संतों का जीवन जल की तरह प्रवाहमान रहता है।
हर संत भ्रमणशील हैं। जो अलग-अलग क्षेत्रों में रहकर धर्म व संस्कृति का प्रचार-प्रसार करते हैं। कुंभ व महाकुंभ ऐसा पवित्र आयोजन है, जिसमें 13 अखाड़ों के समस्त संत एक स्थान पर एकत्र होते हैं। खासकर प्रयागराज के कुंभ-महाकुंभ में सभी आना चाहते हैं। जब संतों का विशाल समूह कुंभनगरी में आता है तो सनातन धर्मावलंबी उनका स्वागत करते हैं। राजसी ठाट-बाट व वैभव के साथ कुंभ क्षेत्र में अखाड़ों के संत प्रवेश करते हैं।
औरंगजेब की सेना से हुआ भीषण युद्ध
1664 ई. में औरंगजेब ने वाराणसी स्थित बाबा विश्वनाथ के मंदिर पर हमला किया था। उस समय नागा संत वाराणसी में प्रवास कर रहे थे। शस्त्र लेकर उन्होंने औरंगजेब की सेना से मोर्चा लिया। नागा संतों ने भीषण युद्ध में औरंगजेब की सेना को खदेड़ दिया।
सन 1757 ईं. में अहमद शाह अब्दाली की अफगान सेना ने भारत में आक्रमण किया। उसकी सेना मथुरा पहुंची तो नागा संतों ने उसका वीरता से सामना किया। तलवार, भाला से युद्ध करते हुए अफगानी सेना को परास्त किया। इसमें लगभग दो हजार नागा संतों की मृत्यु हुई।
पेशवाई के अभिन्न अंग
अखाड़े के आराध्य की पालकी सबसे आगे चलती है। इसके जरिए संत आराध्य के समक्ष अपनी कृतज्ञता व्यक्त करते हैं। अखाड़े के चिह्न व आराध्य के निशान वाले ध्वज चलते हैं। ध्वज से अखाड़ों की पहचान होती है। इसलिए उसे जमीन पर नहीं छूने दिया जाता। -पेशवाई में शस्त्र का प्रदर्शन होता है। जो अखाड़ों के पुरुषार्थ का प्रतीक है। छत्र-चंवर अखाड़े की संपन्नता दर्शाते हैं। आचार्य महामंडलेश्वर व मंडलेश्वर का सिंहासन राजसी वैभव का प्रतीक है।