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दोहरे मापदंड क्यों ?

बात सीता मैया की हो या दुनिया की किसी और औरत की, मेरे अनुसार सभी के लिए किसी भी पैमाने को मापने का एक जैसा ही मापदंड होना चाहिए। भगवान श्री राम और माता सीता भी मनुष्य श्रेणी में ही आते थे,उनके अच्छे कर्मों के लिए ही उन्हें ईश्वरीय उपाधि दी गई। कहने का तात्पर्य यह है कि इंसान अपने अच्छे कर्मों की वजह से ही राक्षसी और दैवीय श्रेणी में गिना जाता है।

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आज के आयोजन के सवाल यदि यह हो कि क्या समाज में स्त्री और पुरुषों के लिए दोहरे मापदंड होना उचित है ,तार्किक है, तो मेरे हिसाब से यह सर्वथा अनुचित है, सरासर गलत है। स्त्री व पुरुष दोनों ही ईश्वर द्वारा बनाई गई कृतियां हैं सृष्टि को चलायमान रखने के लिए लिंग भेद करना अनिवार्य था, बस इसीलिए ईश्वर ने पूरी सृष्टि को लिंग भेद के आधार पर रचा।

इस बात से हम सभी सरोकार रखते हैं कि ईश्वर ने भी लिंग भेद के अतिरिक्त किसी अन्य भेद को महत्व नहीं दिया और सृष्टि का निर्माण किया तो फिर हम मनुष्य कौन होते हैं लिंग भेद के आधार पर समाज में दोहरे मापदंड अपनाने वाले,समाज का बंटवारा करने वाले।

यह सच है कि समाज नियमों पर चलता है, यदि समाज में नियम ना हों तो अराजकता फैलने का भय रहता है। यदि यह नियम स्त्री और पुरुष दोनों पर समान रूप से लागू किए जाते हैं तो समाज निर्बाध गति से आगे बढ़ता रहता है। किंतु यदि पुरुषों को स्त्रियों की अपेक्षा अधिक महत्व दिया जाए और स्त्रियों को कमतर आंका जाए तो यह स्थिति कदापि स्वीकार्य नहीं होगी। गलती किसी से भी हो, वह अनुचित ही होगी।

भगवान श्री राम हो या कोई साधारण मनुष्य यदि उनके द्वारा किया गया कोई भी कार्य नैतिकता और प्रकृति की इच्छा के विरुद्ध है तो निसंदेह उसका बहिष्कार किया जाना चाहिए। मां सीता ने श्री राम का साथ तब दिया जब उन्होंने अपने यौवन की दहलीज में प्रवेश किया ही था। बनवास की सजा उन्हें नहीं मिली थी परंतु पत्नी धर्म निभाते हुए उन्होंने अपने पति का साथ दिया और नैतिकता का मान रखा। चाहती तो वह भी श्री राम की अनुपस्थिति में अयोध्या की स्वामिनी बन कर रह सकती थी, किंतु उन्होंने अपने सारे सुख वैभव तज कर पति के साथ वन गमन करना अपना परम कर्तव्य माना,और उसे पूरे मन से निभाया भी।

पिंकी सिंघल

वर्तमान परिप्रेक्ष्य की यदि बात की जाए, तो आज भी अनेक पुरुष ऐसे हैं जो महिलाओं को अपने से कमतर समझते हैं,उन्हें आगे बढ़ने से रोकते हैं और उन पर जबरदस्ती के नियम लादते हैं। पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं की स्थिति आज भी दयनीय बनी हुई है। बाहर खुले में सबको दिखाने के लिए महिला सशक्तिकरण के बड़े-बड़े नारे प्रतिदिन लगाने वाले पुरुष भी अपने घरों में महिलाओं को चारदीवारी के अंदर कैद रखना चाहते हैं। समाज के इस बड़े वर्ग के अपने लिए अलग नियम होते हैं और उसी समाज में रह रही महिलाओं के लिए अलग।

अपने आप को आधुनिक कहलाने वाला समाज का पुरुष वर्ग आज भी महिलाओं की स्वतंत्रता एक सीमा तक ही सहन करता है। उस सीमा के बाहर जाते ही वह महिलाओं को प्रताड़ित करना शुरू कर देता है, उसके चरित्र पर उंगलियां उठाना शुरू कर देता है। कभी-कभी तो स्थिति इतनी अधिक खराब हो जाती है कि वह महिलाओं से अपने रिश्ते तक तोड़ने के लिए तैयार हो जाते हैं। यह स्थिति उस वक्त अधिक असहनीय हो जाती है जब कोई पुरुष किसी अन्य के कहने पर स्त्री पर लांछन लगाना शुरू कर देता है, उसके चरित्र पर शक करने लगता है और उस से अपने रिश्ते समाप्त कर लेता है।

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मां सीता के साथ भी तो यही हुआ था। मां सीता भी तो श्रीराम पर यह लांछन लगा सकती थी कि जब वह रावण की लंका में कैद थी तो उनकी अनुपस्थिति में श्रीराम भी वन वन भटके होंगे और ना जाने कितनी ही महिलाओं के संपर्क में आए होंगे, परंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया और अपने पति पर पूरा विश्वास रखा और वनवास काटने के पश्चात उनके साथ वापस अयोध्या लौट आई।

पुरुष ही नहीं समाज में कई स्त्रियां भी स्त्रियों की दुश्मन होती हैं और अपने से कमजोर स्त्रियों पर अपनी हुकूमत चलाती हैं और उनके लिए आजादी की सीमाएं तय करती हैं। वे खुद एक स्त्री होने के बावजूद भी दूसरी स्त्री का दर्द नहीं समझती और उस पर अत्याचार करती है तथा स्वयं को उससे श्रेष्ठ दिखने की चाह में उनकी स्वतंत्रता को छीनने से भी बाज नहीं आतीं।

महिला हो अथवा पुरुष समाज में दोनों के लिए एक जैसे मापदंड होने चाहिएं। दोहरे मापदंड होने की स्थिति में आपसी मतभेद शुरू होने लगते हैं और संबंधों में दरार पड़ने लगती है ,एक दूसरे के प्रति विश्वास की भावना कम होने लगती है,और बस फिर शुरुआत होती है रिश्तों के अपघटन की ,क्षय की,ह्रास की।

             पिंकी सिंघल

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