उत्तर प्रदेश की सियासत में इस समय दलितों को लेकर जबर्रदस्त गोलबंदी चल रही है। सभी दलों के नेता, दलितों को अपने पाले में खींचने के लिए एड़ी-चोटी का जोड़ लगाए हुए हैं। खासकर कांग्रेस और यूपी में पैर पसारने की कोशिश में लगी ‘आम आदमी पार्टी’ दलितों को लेकर कुछ ज्यादा ही एक्टिव हैं। विपक्ष ऐसे सभी मुद्दों को हवा देने में लगा रहता है जिससे दलित वोटरों को प्रभावित किया जा सकता हो। विपक्ष चाहता है कि पिछले तीन चुनावों से भाजपा के साथ खड़े दलित वोटरों को ‘साम-दाम-दंड-भेद’ किसी भी तरह से भाजपा के आभामंडल से बाहर निकाल कर लाया जाए। विपक्षी सियासत से सतर्क योगी सरकार एक पोर्टल बनाने जा रही है, जिससे दलित उत्पीड़न के शिकार लोगों को समय पर मुआवजा आदि दिया जा सकेगा। भाजपा नहीं चाहती है कि पिछले दो लोकसभा और एक विधान सभा चुनाव में भाजपा के साथ खड़े रहे दलित वोटर किसी और के पाले में जाए।
भारतीय जनता पार्टी ने 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव और 2017 के विधानसभा चुनाव में दलित वोटों को प्रभावित किया, लेकिन पिछले कुछ समय से उत्तर प्रदेश की योगी सरकार के लिए उस आकर्षण को बचाए रखना टेड़ी खीर साबित हो रहा है,जिसके बल पर नरेन्द्र मोदी ने देश की सियासत बदल दी थी। हाॅ, पूरे घटनाक्रम में दलितों को लेकर बहुजन समाज पार्टी सुप्रीमों मायावती की चुप्पी जरूर किसी के समझ नहीं आ रही है, जिनको आज की तारीख में भी दलितों का सबसे बड़ा नेता माना जाता है। करीब तीन दशकों से दलित बसपा का कोर वोटर है। प्रदेश में कांग्रेस के सिकुड़ते जनाधार के बीच करीब तीन दशक पूर्व दलित बसपा के साथ चले गए थे।
एक अनुमान के मुताबिक, उत्तर प्रदेश में करीब 22 फीसदी आबादी दलितों की है और प्रदेश की राजनीति में दलित जातियों की महत्वपूर्ण भूमिका है। राज्य की सियासत में 1950 से 1990 तक दलित राजनीति कई दौर से गुजरी है। दलितों को सरकारी नौकरियों, शिक्षण संस्थाओं में आरक्षण मिला और राजनीतिक संस्थाओं में संरक्षण। दलित नेतृत्व भी उभर कर आया। भूमि सुधारों और कल्याणकारी कार्यक्रमों से दलित जातियां आर्थिक रूप से लाभान्वित हुईं। आर्थिक उत्थान ने उन्हें(दलितोें को) राजनीतिक रूप से सशक्त बनाया। इससे पूर्व तक उत्तर प्रदेश की दलित जातियों में पारंपरिक रूप से राजनीति में भागीदारी और राजनीतिक जागरूकता काफी कम रही। बसपा के दलित चिंतक मान्यवर कांशीराम का तो राजनीति में दलितों की भागेदारी को लेकर बिल्कुल साफ दष्टिकोण था। वह कहा करते थे,‘जितनी जिसकी भागीदारी,उसकी उसकी हिस्सेदारी।’ इससे पूर्व उपनिवेशवादी काल में उत्तर प्रदेश में दक्षिण और पश्चिम भारत की तरह ब्राह्मण विरोधी आंदोलन नहीं हुआ। आजादी के तुरंत बाद दलितों के एक अभिजात्य वर्ग ने बाबा साहेब अम्बेडकर के विचारों से प्रभावित होकर रिपब्लिकन पार्टी के नेतृत्व में थोड़े समय के लिए दलितों को प्रेरित किया। समुदाय के अभिजात्य वर्ग को छोड़कर आर्थिक सुधारों का लाभ आजादी के बाद दलितों तक नहीं पहुंचा।
अस्सी के दशक के मध्य से जाति आधारित ध्रुवीकरण बहुजन समाज पार्टी के नेतृत्व में आरंभ हुआ, जिसकी स्थापना और कल्पना दलित चिंतक और नेता कांशीराम ने की थी। उत्तर प्रदेश में 1993 में पहली बार बसपा ने साझा सरकार बनाई फिर 1995 और 1997 में बसपा ने अपनी सरकार बनाई। 1995 में बसपा नेत्री सुश्री मायावती ने मुख्यमंत्री पद संभाला था। इस समय तक उत्तर प्रदेश की राजनीति में मायावती एक मजबूत स्तम्भ के रूप में स्थापित हो चुकी थी। 1997 में वह फिर मुख्यमंत्री बनी, लेकिन उनकी सरकार 6 माह तक ही चली। मई 2002 में वह फिर मुख्यमंत्री बनीं लेकिन सरकार अगस्त 2003 तक चली। फिर 13 मई 2007 को मायावती स्पष्ट बहुमत के साथ सत्ता में आई और सरकार 2012 तक चली। इस दौरान उत्तर प्रदेश की राजनीति में न केवल चैंकाने वाले घटनाक्रम सामने आये बल्कि राजनीति में व्यापक बदलाव भी आया। उत्तर प्रदेश की दलित जातियों में राजनीतिक चेतना जुड़ाव और पृथकता के दौर से गुजरी है। जुड़ाव का अर्थ कांग्रेस प्रभुत्व वाले दल से जुड़ना अथवा समर्थन देना स्वीकार करना और समझौता करना जैसे तत्व भी मौजूद रहे।
दलित चेतना बढ़ती गई तो दलितों ने ब्राह्मणवादी या अभिजात्य पार्टियों के विरुद्ध अपना वोट बैंक बना लिया। दलितों के बूते 2007 में बसपा सुप्रीमों मायावती ने और 2017 में बीजेपी ने पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई। साल 2012 में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने वाली एसपी ने भी बीएसपी के इस वोट बैंक में सेंध लगाई थी। साल 2017 में उत्तर प्रदेश विधानसभा में अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित 84 सीटों में से भाजपा को 69 सीटें मिलीं। साल 2007 में बसपा ने 62 और 2012 में समाजवादी पार्टी ने 58 सीटें जीती थीं। यूपी की 22 फीसदी आबादी हमेशा से सियासतदारों को लुभाती रही है। इसी लिए तमाम नेताओं की सियासी धुरी दलितों के इर्दगिर्द घूमती रहती है। हाथरस कांड को लेकर होने वाला हो-हल्ला इसकी सबसे बड़ी मिसाल है। उत्तर प्रदेश में इस समय हाथरस के अलावा बलरामपुर जिले में दलित युवती के साथ गैंगरेप और हत्या का मामला राजनीतिक दलों के लिए मुद्दा बना हुआ है। हाथरस में पुलिस अधीक्षक समेत पांच अधिकारियों के निलंबन और सीएम योगी आदित्यनाथ की ओर से मामले की सीबीआई जांच की सिफारिश के बाद भी विपक्ष इस मसले को छोड़ने को तैयार नहीं है।
बहरहाल, दलित वोट बैंक खिसक न जाए इसके लिए एक तरफ योगी सरकार दलितों के खिलाफ होने वाली घटनाओं की जांच में सख्ती एवं तेजी दिखा रही है तो दूसरी तरफ यूपी सरकार जल्द ही एक पोर्टल लॉन्च करने जा रही है,जिससे दलित उत्पीड़न के शिकार अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति एक्ट के तहत अपराध के पीड़ितों को मुआवजा मिलने की प्रक्रिया में तेजी आएगी। राजस्थान के बाद ऐसा पोर्टल लॉन्च करने वाला यूपी दूसरा राज्य होगा। गौरतलब हो, देशभर में एससी/एसटी के खिलाफ अपराधों के मामले सबसे अधिक संख्या में राजस्थान में दर्ज किए गए है, जिसके बाद यूपी का नंबर आता है। प्रदेश के एक बड़े अधिकारी ने बताया कि हाथरस जैसे कुछ मामले मीडिया में हाइलाइट हो जाते हैं तो मुआवजा जल्द मिल जाता है, लेकिन ज्यादातर मामलों में मुआवजा मिलने में देरी होती है। इसी लिए योगी सरकार एक पोर्टल लाॅच करने जा रही है ताकि मुआवजे की रकम और अन्य तरह की मदद पीड़ितों को जल्द से जल्द मिल जाए। हाथरस में पीड़ित परिवार को 08 लाख 25 हजार रुपये का मुआवजा महज तीन दिनों में ही मिल गया था। इसके साथ ही सीएम योगी आदित्यनाथ की तरफ से पीड़िता के परिजन को 25 लाख की अनुग्रह राशि के अलावा परिवार को घर और एक सदस्य को सरकारी नौकरी भी दी गई,परंतु सभी मामलों में ऐसा नहीं होता है।
एससी/एसटी केस में जांच करने वाले सर्किल ऑफिसर अपनी पूरी जांच रिपोर्ट ऊपर भेजते हैं, जिससे मुआवजे की प्रक्रिया शुरू हो सके। नियमों के अनुसार हत्या जैसे अपराधों में पीड़ित को 8 लाख 25 हजार रुपये का मुआवजा मिलता है। इसमें से आधी रकम पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट के बाद और बाकी कोर्ट में चार्जशीट दाखिल होने के बाद आती है। वहीं रेप या गैंगरेप जैसे अपराधों में मेडिकल रिपोर्ट की पुष्टि के बाद ही आधी राशि आ जाती है। चार्जशीट के बाद 25 प्रतिशत और बाकी की राशि केस के निपटारे के बाद आती है।कुल मिलाकर दलित वोट बैंक की सियासत में योगी सरकार अपना दबदबा खोने को तैयार नहीं है।