किसान आंदोलन व उसके द्वारा की जा रही मांगे राजनीति से प्रेरित है। यह तर्क तो बेहद हास्यास्पद है कि सरकार किसानों की जमीन भी छीनकर निजी पूँजीपतियों को सौंपना चाहती है। ऐक्ट में स्पष्ट कहा गया है कि कान्ट्रेक्ट खेती में सौदा फसल के लिए होगा न कि जमीन के लिए। एक फसल के लिए कान्ट्रेक्ट होगा जिसके लिए फसल की कीमत का भुगतान अग्रिम तौर पर किसानों को करना होगा तथा भविष्य में किसी प्राकृतिक आपदा की स्थिति में भी किसानों के भुगतान में कमी कर सकना सम्भव नहीं होगा।
सरकार का प्रयास इस तरह निजी निवेश को कृषि क्षेत्र की ओर आकर्षित करना है जिसका लाभ किसानों को भी मिल सके। छोटी जोत वाले किसान आपस में मिलकर निजी कंपनी से फसल का करार कर सकते हैं तथा कंपनी के सहयोग से उन्नत प्रौद्योगिकी, बीज एवं खाद का प्रयोग कर उत्पादकता एवं आय बढ़ा सकते हैं। यह मेरी समझ से परे है कि इसमें क्या गलत है और क्यों विपक्ष एवं आन्दोलनरत किसान इन्हें काला कानून बताकर इनकी वापसी को लेकर अड़े हैं। यदि पुरानी व्यवस्था ही इतनी लाभप्रद थी तो किसानों की आत्महत्या एवं ऋणग्रस्तता के क्या कारण है।
विपक्ष का यह दोहरा चरित्र है कि वह सरकार पर किसानों की दयनीय हालत एवं आत्महत्या रोकने के लिए कुछ नहीं करने का इल्ज़ाम भी लगाती है और सरकार द्वारा उठाए कदमों के विरुद्ध षडयंत्र करने से भी बाज नहीं आती। यह भी देखने की बात है कि एम एस पी का लाभ देश के ६%किसानों को ही मिलता है, वह भी तब जब मोदी सरकार के कार्यकाल में सरकारी खरीद २०१४ की तुलना में कई गुणा अधिक की गई है। २०१४ के पहले एम एस पी से लाभान्वित किसानों की संख्या मात्र तीन प्रतिशत थी। ९४% किसान आज भी मण्डियों में फसल बेचने को मजबूर हैं जहाँ अनाप शनाप खर्चे, कटौती एवं कारगुजारियों के चलते किसान का भरपूर शोषण होता है।
सरकार ने कानून बनाकर किसानों को एक विकल्प एवं अवसर दिया है कि वे सीधे व्यापारियों को भी फसल बेच सकते हैं। सरकार एवं विशेषज्ञों का मानना है कि इससे मंडियों के एकाधिकार पर एवं मनमानी पर अंकुश लगेगा तथा निजी व्यापारियों से प्रतिद्वंद्विता के चलते किसान को बेहतर कीमत मिल सकेगी। हकीकत में परेशान यही आढ़तिया एवं मंडी मालिक हैं जो वर्तमान व्यवस्था में हजारों करोड रुपए बिना किसी मशक्कत सालाना कमाते हैं पंजाब में अधिकांश नेता इन मंडियों से जुड़े हैं, अतः वे किसानों को भड़काकर अपना हित साधने में लगे हैं। पंजाब के किसानों का यह आन्दोलन पूरी तरह से राजनीति प्रेरित है।
कांग्रेस एवं अकाली दल किसानों को भ्रमित एवं गुमराह कर रहे हैं। जिन कानूनों का कांग्रेस विरोध कर रही है, वही वादे उसने अपने २०१९ के घोषणा पत्र में किए थे जैसे एपीएमसी ऐक्ट में संशोधन, कृषि में निजी निवेश को बढ़ावा। विशेषज्ञों की भी यही राय है कि यह सुधार दशकों से अपेक्षित थे जिन्हें मोदी सरकार ने लागू किया है और यह सुधार कृषि एवं कृषकों की माली हालत सुधारने में दीर्घकाल में मील का पत्थर साबित हो सकते हैं। विरोध शंका के आधार पर किया जा रहा है कि सरकार एम एस पी एवं मंडी समाप्त करना चाहती है जो बेबुनियाद है तथा मोदी जी एवं कृषि मंत्री ने सदन एवं बाहर बार बार कहा कि सरकार का ऐसा कोई इरादा नहीं है।
जहाँ तक एम एस पी का सवाल है, कानून में कहीं भी एक शब्द इस विषय में नहीं कहा गया है कि एम एस पी भविष्य में नहीं रहेगी। सरकार चाहकर भी ऐसा नहीं कर सकती क्योंकि पीडीएस एवं बफर स्टाक के लिए सरकारी खरीद करनी ही होगी जो एम एस पी पर ही होगी। कृषि लागत एवं मूल्य आयोग १९६५ से एक विधिक संस्था के रूप में हर फसल के पूर्व सरकार को २२ फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्यों की सिफारिश करता है जिसे सरकार कमोबेश स्वीकार कर घोषणा करती है।
एम एस पी के विषय में मोदी सरकार ने स्वामीनाथन समिति की सिफारिश को एक हद तक मानते हुए मौद्रिक लागत के डेढ़ गुना समर्थन कीमत घोषित की थी जबकि समिति ने मौद्रिक एवं अदृश्य लागतों को जोड़कर उसके डेढ़ गुना समर्थन कीमत की सिफारिश की थी। ऐसा भी १९६५ के बाद पहली बार हुआ कि फसलों के समर्थन मूल्य में एक फार्मूला के तहत इतनी वृद्धि की गई हो। आन्दोलनकारियों की दो ही मुख्य मांगे है कि तीनों काले कानून वापस लो और एम एस पी को कानून का रुप दिया जाय।
एम एस पी पर कानून की मांग कालान्तर में यह जानकर जोड़ी गई कि ऐसा करना सरकार के लिए न तो संभव है और न ही अर्थव्यवस्था एवं किसानों के लिए लाभदायक। यह मांग उन तत्वों के दिमाग की उपज है जो देश में स्थिरता, शान्ति एवं विकास के विरोधी हैं एवं किसानों के हितों के स्थान पर उनका ऐजेंडा मोदी एवं सरकार को किसान विरोधी साबित करना अधिक है। एम एस पी की शुरुआत देश में १९६५ में हुई जब देश अनाज संकट से जूझ रहा था। सरकार ने कृषि लागत एवं मूल्य आयोग १९६५ में बनाया तथा उसकी सिफारिश पर मुख्य फसलों गेहूँ, धान के लिए समर्थन मूल्य घोषित करने की शुरुआत की जिससे इन फसलों के उत्पादन को प्रोत्साहित किया जा सके एवं देश में खाद्य सुरक्षा को मजबूत किया जा सके।
सरकार इस समर्थन मूल्य पर बफर स्टाक के लिए एवं पी डी एस के लिए खरीद करती थी जिसका लाभ उस समय मात्र तीन प्रतिशत किसानों को मिलता था। मोदी जी के आने के बाद अधिक सरकारी खरीद किए जाने के कारण एम एस पी का लाभ छः प्रतिशत किसानों को दिला सकना सम्भव हो पाया है। शेष फसल आज भी बाजार के सहारे बिकनी है जिसमें ए पी एम सी के तहत मंडियों के आढ़तिया एवं कमीशन एजेंट अपनी मनमानी करते हैं और कृषक की मंडी में ही बेचने की मजबूरी एवं अपने एकाधिकार का फायदा उठाते हुए कृषकों का भरपूर शोषण करते हैं जिससे किसानों को वह दाम भी नहीं मिलता जो खुले बाजार में व्यापार करने से मिल सकता है।
तथाकथित इन तीन काले कानूनों में एक किसानों को इसी बंदिश एवं शोषण से मुक्ति दिलाने के लिए उन्हें मंडी से बाहर निजी व्यापारियों को राज्य की सीमा के बाहर भी या निजी मंडियों को भी अपनी फसल बेचने का एक विकल्प उपलब्ध कराता है।इससे मंडियों का एकाधिकार एवं वर्चस्व कम होगा और स्वस्थ प्रतियोगिता बढ़ने से किसानों को उचित कीमत मिल सकना सम्भव होगा ।यह कानून कृषकों के लिए बाध्यताकारी नहीं है। किसानों को यह अधिकार है कि वे जहाँ उचित कीमत मिले वहाँ अपनी फसल बेचें। ए पी एम सी ऐक्ट के तहत इन सुधारों की बात माननीय अटल जी के कार्यकाल से ही चल रही थी और यू पी ए के समय में भी शरद पवार जी ने राज्यों से इस दिशा में काम करने के बारे मे पत्र लिखा परन्तु इसे अंजाम न दिया जा सका। कांग्रेस ने तो २०१९ के चुनाव घोषणा पत्र में भी इसका वादा किया।
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज मोदी विरोध में वही कांग्रेस किसानों को गुमराह करने में लगी है। अर्थ एवं कृषि विशेषज्ञों की भी यही राय है कि मोदी सरकार ने बहुप्रतीक्षित कदम उठाया है।कृषकों को यह अधिकार एवं स्वतंत्रता तो मिलनी ही चाहिए वे अपना उत्पाद अपनी मर्जी से अपनी शर्त पर जहाँ चाहे बेंच सकें। मजाक देखिए मोदी विरोधियों के दिमाग दिवालियापन कि महामहिम राष्ट्रपति महोदय से मिलने जो विपक्षी नेता इन कानूनों की वापसी की गुज़ारिश करने गए उनमें एक केरल के सांसद हैं और दो वामदलों के नेता जिनकी केरल में सरकार है जहाँ ए पी एम सी ऐक्ट है ही नहीं और कृषि उत्पादन विपणन का पूरा दारोमदार निजी क्षेत्र के हवाले है। वहाँ अडानी,अम्बानी या निजी उद्योगपतियों ने कृषि क्षेत्र पर कब्ज़ा कर किसानों का शोषण नहीं किया। यदि मोदी सरकार किसानों को एक विकल्प देते हैं तो यह झूठा प्रलाप क्यों कि मोदी अब कृषि भी अपने दोस्तों एवं उद्योगपतियों को सौंपना चाहते हैं एवं किसानों को नष्ट करना चाहते हैं ।