भारतीय राजनीति में दल बदल सहज प्रक्रिया के रूप में समाहित है। कोई भी राजनीतिक दल इससे मुक्त नहीं है। सभी को इस आवागमन का पर्याप्त अनुभव है। सभी पार्टियों में निष्ठावान लोग भी होते है। जो सुख दुख सम्मान अपमान में समान रूप से पार्टी के साथ रहते है। कोई भी प्रलोभन इन्हें विचलित नहीं करता। निराश होते हैं,तो मौन और निष्क्रिय हो जाते है। दूसरी तरफ दल बदल में माहिर नेताओं की भी कमी नहीं। इन्हें किसी भी झंडे और टोपी से कोई परहेज नहीं रहता। इनके लिए विचारधारा वस्त्रों की भांति होती है,जिन्हें कभी भी बदला जा सकता है। ये खुद नहीं जानते कि कब और कहां इनका दम घुटने लगेगा,कब इनकी घर वापसी होगी,कब ये अपना घर छोड़ देंगे,आदि। ऐसे प्रत्येक अवसरों के लिये इनके पास बयान तैयार रहते है। इनके माध्यम से अपनी मासूमियत छिपाने का प्रयास किया जाता है। इनका लगता है कि इनकी सभी बातों पर जनता विश्वास करेंगी।
ऐसा लगता है कि गरीबों वंचितों किसानों दलितों पिछड़ों का इनसे बड़ा कोई हमदर्द नहीं है। इस कारण ये सदैव बेचैन रहते है। इसके लिए बार बार पार्टी बदलने का कड़वा घूंट इन्हें पीना पड़ता है। कोई यह नहीं कहता कि उन्हें अपने बेटे बेटी को टिकट दिलानी है। विपरीत ध्रुवों को नाप लेने की इनमें क्षमता होती है। जिस पार्टी में जब तक रहते है उसका गुणगान करते है। उसके नेतृत्व में आस्था व्यक्त करते है। उसकी नीतियों पर न्योछावर हो जाते है। विरोधी पार्टी पर दलित वंचित पिछड़ा गरीबों किसानों की उपेक्षा का आरोप लगाते है। इधर पार्टी बदली,उधर बयान को घुमा दिया। इसके साथ ही दूसरी पार्टी गरीब वंचित दलित पिछड़ा किसान विरोधी घोषित हो जाती है। कई बार उनका यह ज्ञान पांच वर्ष तक सत्ता भोग के बाद जागृत होता है। विधायक या सामान्य नेता का पार्टी बदलना अलग विषय है। लेकिन जब पांच वर्ष तक मंत्री रहने वाले पाला बदलते है तो कई संवैधानिक प्रश्न उठते है।
संविधान निर्माताओं ने भारत में संसदीय शासन व्यवस्था स्थापित की है। इसमें मंत्रिपरिषद सामूहिक उत्तर दायित्व की भावना से कार्य करती है। इसके अनुरूप मंत्री बनने के लिए पद के साथ गोपनीयता की शपथ लेनी पड़ती है। यदि विधानमंडल किसी एक मंत्री के विरुद्ध निंदा प्रस्ताव पारित कर दे तो पूरी मंत्री परिषद को त्यागपत्र देना होता है। यह संसदीय प्रणाली के सामूहिक उत्तर दायित्व का तकाजा है। मंत्रिमंडल के निर्णय सामूहिक उत्तर दायित्व के अनुरूप ही सार्वजनिक किए जाते है। यह संविधान की व्यवस्था व भावना है। मंत्रीगण इस संवैधानिक प्रावधान से बंधे होते है। किंतु उनका एक अधिकार अवश्य सुरक्षित रहता है। वह किसी भी समय अपने मंत्री पद से त्याग पत्र दे सकते है।
इस पर कोई प्रतिबंध नहीं होता है। यदि मंत्री को लगता है कि सरकार गरीब वंचित दलित पिछड़ा किसान विरोधी है,या उसके विचारों को महत्व नहीं मिल रहा है,तो वह मंत्री परिषद से अपने को अलग कर सकता है।जिसने पांच वर्षों तक ऐसा नहीं किया,उसे सरकार के कार्यों पर कुछ भी कहने का नैतिक अधिकार नहीं हो सकता। वह पांच वर्ष मंत्री रहा,इसका मतलब है कि वह सरकार के कार्यों से सहमत था। उसके कार्यों में बराबर का सहभागी था। यह कहने से काम नहीं चलेगा कि उसने प्रतिकूल परिस्थिति में कार्य किया। सच्चाई यह है कि मंत्री पद के मोह को वह छोड़ना नहीं चाहता था। इसमें उसका स्वार्थ था। मतदान तारीख के अट्ठाइस दिन बाद उसने मंत्रिपरिषद से त्यागपत्र दिया। इसमें में उसका स्वार्थ था। जब स्वार्थ सर्वोच्च है,यह राजनीतिक जीवन का साध्य है,तब गरीब पिछड़ा दलित किसान की बातें स्वतः बेमानी हो जाती है।
ऐसे लोगों की बताना चाहिए कि उन्हें चुनाव के ठीक पहले क्यों लगा कि सरकार जनविरोधी थी। ऐसे लोग पिछले विधानसभा चुनाव के पहले भाजपा में शामिल हुए थे। उस समय ये विपक्ष के नेता हुआ करते थे। वह मंत्री नहीं थे। इसलिए संवैधानिक उत्तरदायित्व से मुक्त थे। उस समय इनके निशाने पर सत्तारूढ़ सपा हुआ करती थी। तब ये सपा को दलित किसान विरोधी बताया करते थे। यह सब पैतरे उनके व्यक्तिगत हो सकते है। लेकिन पांच वर्ष मंत्री रहने के बाद इन्हें संविधान से संबंधित प्रश्नों का जबाब देना होगा। ये प्रश्न उनका पीछा करते रहेंगे। प्रश्न यह कि सरकार की नीतियां गलत थी तो ये पांच वर्ष उसके साथ क्यों रहे,क्यों अनगिनत बार सरकार की नीतियों व नेतृत्व की सराहना करते रहे। मंत्री पद और भाजपा छोड़ने वालों के तर्क दिलचस्प है। एक ने कहा कि अलग विचारधारा के बावजूद सरकार में रहकर उन्होंने पूरी निष्ठा के साथ काम किया। प्रदेश की सेवा की है। योगी आदित्यनाथ के मंत्रिमंडल में श्रम सेवायोजन एवं समन्वय मंत्री के रूप में विपरीत परिस्थितियों और विचारधारा में रहकर भी बहुत ही मनोयोग के साथ उत्तर दायित्व का निर्वहन किया है।
दलितों, पिछड़ों, किसानों, बेरोजगारों, नौजवानों एवं छोटे, लघु एवं मध्यम श्रेणी के व्यापारियों की घोर उपेक्षात्मक रवैया के कारण उत्तर प्रदेश सरकार के मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे रहा हूं। यदि इनकी बात पर एक पल को विश्वास करें तो यह भी मानना पड़ेगा कि इसके लिए वह बराबर के दोषी है। मंत्री रहते हुए वह अपने दायित्व का उचित निर्वाह नहीं कर सके। उन्हें यह भी बताना चाहिए कि इतनी प्रतिकूल परिस्थिति थी तो वह पांच वर्ष खामोश क्यों रहे। ऐसे ही दूसरे नेता कहते है कि मैंने इसलिए बीजेपी छोड़ी, क्योंकि मेरी किसी भी तरह की बात नहीं सुनी गई। इन्होंने करीब तीन वर्ष पहले की घटना का उल्लेख किया। कहा कि एक सौ चालीस विधायकों ने जब धरना दिया था तब सब धमकाए गए थे। तभी सबने तय किया था कि उसका मुंहतोड़ जवाब देंगे। आश्चर्य यह कि इनको भी चुनाव के अट्ठाइस दिन पहले ही दर्द का अनुभव हुआ। इन्होंने भी उस सरकार पर दलित पिछड़ा किसान विरोधी होने का आरोप लगाया,जिसमें ये पांच वर्षों तक सहभागी थे।
इतना ही नहीं मंत्री पद व भाजपा छोड़ने के कुछ घण्टे पहले तक इनकी निष्ठा नहीं बदली थी। इन्होंने कहा था कि ‘मेरे बड़े भाई’ ने इस्तीफा क्यों दिया,इसकी जानकारी नहीं है। पता चला है कि जो उन्होंने सपा में जाने वालों की सूची दी है,उसमें मेरा भी नाम है। उन्होंने यह मेरे से पूछे बिना किया। जो गलत किया। मैं इसका खंडन करता हूं। मैं भाजपा में हूं और भाजपा में ही रहूंगा। इसके बाद अगला बयान आया कि सरकार में दलितों पिछड़ों किसानों की उपेक्षा हो रही थी। इसलिए मंत्री पद व भाजपा छोड़ रहे है। इस्तीफा देने वाले एक मंत्री का कुछ समय पहले दिया गया बयान गौरतलब है।
उनका कहाना था कि 2009 से 2017 तक केवल 36 लाख श्रमिकों का पंजीयन व सात लाख को योजनाओं का लाभ मिला था। योगी सरकार ने साढ़े चार साल में एक करोड़ 20 लाख श्रमिकों का पंजीयन कराते हुए 77 लाख श्रमिकों को योजनाओं का लाभ दिलाया है। कोरोना काल में सरकार श्रमिकों व प्रवासी मजदूरों के साथ खड़ी रही। मुफ्त राशन व धन लगातार वितरित हो रहा है। सामूहिक विवाह के आयोजन फिर शुरू होने जा रहे हैं। प्रदेश सरकार श्रमिक एवं उनके परिवार के कल्याण के लिए तथा उनके जीवन स्तर को उन्नतिशील बनाने का प्रयास कर रही है। इसके लिए श्रम विभाग द्वारा श्रमिकों के लिए अठारह कल्याणकारी योजनाएं संचालित की जा रही हैं। पता नहीं उनके किस बयान पर विश्वास किया जाए।
रिपोर्ट-डॉ. दिलीप अग्निहोत्री