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दलबदल फायदे का सौदा या फिर नुकसान का: इतिहास के आइने में दलबलुओं का सूरते हाल

   दया शंकर चौधरी

उत्तर प्रदेश में कड़कड़ाती ठंड के साथ इन दिनों दलबदल का मौसम भी है। टिकटों का बंटवारा शुरू होते ही पिछले एक हफ्ते में दो बड़े मंत्रियों समेत 15 से ज्यादा विधायक ‌भाजपा छोड़ सपा में और सपा के कई विधायक और नेता भाजपा का दामन थाम चुके हैं। अभी हाल ही में (19 जनवरी) सपा संस्थापक मुलायम सिंह यादव की बहू अपर्णा यादव ने भाजपा का दामन थामा है। सभी दलबदलू फिर से विधायक बनने का सपना संजोए बैठे हैं, लेकिन पिछले 10 चुनावों के आंकड़े कुछ और ही कहानी कह रहे हैं। इसके मुताबिक 100 दलबदलुओं में से 15 से कम ही चुनाव जीत सके हैं।

इस आंकड़ेबाजी का एक जरूरी पहलू और भी है। अगर दल बदलने वाला मौसम वैज्ञानिक है। यानी, यदि उसे यह पता है कि चुनावी लहर किस ओर चल रही है तो उसकी जीत की संभावना बढ़ जाती है। अगर दलबदलू ने अपना ठिकाना उस पार्टी को बनाया, जो चुनाव बाद सरकार बना लेती है तो उसकी जीत की उम्मीद 84 प्रतिशत हो जाती है। पिछले तीन चुनाव तो कम से कम यही बता रहे हैं। ऐसे में आइए जानते हैं कि उत्तर प्रदेश में अब तक पाला बदलने वाले नेता कितने फायदे में रहे, या पाला बदलना नेताओं के लिए कितना घातक सिद्ध हुआ है।

चुनाव से पहले जीत की लहर को समझने वाले नेता हमेशा से फायदे में रहे हैं। दलबदल करने वाले ऐसे नेताओं का विनिंग फैक्टर भी काफी ज्यादा होता है। 2017 के विधानसभा चुनाव से पहले स्वामी प्रसाद मौर्य का पाला बदलकर बसपा से भाजपा में आना फायदे का सौदा साबित हुआ। उन्होंने चुनाव में जीत दर्ज की और कैबिनेट मंत्री भी बने। दारा सिंह चौहान भी 2015 में भाजपा से जुड़े। इसके बाद भाजपा ने उन्हें अन्य पिछड़ा वर्ग मोर्चा का अध्यक्ष बनाया। साथ ही 2017 में चुनाव जीतने के बाद कैबिनेट मंत्री बनाया गया। आंकड़े भी इसी ओर इशारा करते हैं। 2017 में भाजपा ने चुनाव जीता और सरकार भी बनाई। इसका फायदा पाला बदलकर भाजपा में आए नेताओं को भी हुआ। ऐसे 80 प्रतिशत नेताओं ने चुनाव में जीत दर्ज की। नेताओं को पाला बदलने के लिए एक और फैक्टर मजबूर करता है। वो है पहली बार चुनाव लड़ने वाले नेताओं के जीतने की दर का अधिक होना। इसमें 1996 के बाद से लगातार वृद्धि देखने को मिल रही है। ऐसे में यह फैक्टर पार्टियों को दो बार से ज्यादा चुनाव लड़ चुके नेताओं को फिर से मौका देने से रोकता है। यही कारण है कि चुनाव से पहले दलबदल करने वाले नेताओं की संख्या बढ़ जाती है। क्योंकि ऐसे नेताओं को अपने टिकट कटने का खतरा महसूस होने लगता है।

2002 में पहली बार चुनाव लड़ने वाले 268 नेताओं ने जीत दर्ज की थी। जबकि दूसरी बार चुनाव लड़ रहे सिर्फ 82 लोगों ने जीत दर्ज की। तीसरी बार लड़ने वाले मात्र 32 लोग चुनाव जीत सके। वहीं, 2017 में पहली बार चुनाव लड़ने वाले 314 लोग विधायक बने और दूसरी बार चुनाव लड़ने वाले 68, जबकि तीसरी बार चुनाव लड़ने वाले मात्र 15 लोग ही विधायक बन सके। आज के समय में पार्टियों के पास ज्यादा विकल्प मौजूद हैं। ऐसे में मौजूदा विधायकों और मंत्रियों के सामने टिकट पाने की चुनौती भी होती है। इसका प्रमुख कारण पिछले चार चुनावों को देखने से समझ में आता है। इस दौरान सभी पार्टियों ने सिर्फ 40 प्रतिशत मौजूदा विधायकों को ही दोबारा पार्टी से टिकट दिया है। ऐसे में मौजूदा विधायकों के टिकट कटने का खतरा ज्यादा होता है। इसलिए कई मौजूदा विधायक चुनाव के दौरान टिकट पाने के लिए पार्टी बदलने तक को तैयार हो जाते हैं। साथ ही सत्ता में रहने वाली पार्टियां सत्ता विरोधी लहर को कम करने के लिए भी मौजूदा विधायकों और मंत्रियों को कम संख्या में टिकट देती हैं।

कांग्रेस से पिछले 7 वर्षों में सबसे अधिक सांसदों, विधायकों, और उम्मीदवारों ने अलग होकर दूसरे दलों का दामन थामा है और इसी अवधि में बीजेपी सबसे अधिक फायदे में रही। क्योंकि सबसे ज्यादा नेता उसके साथ जुड़े। एडीआर की एक रिपोर्ट में यह कहा गया है। एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले 7 सालों में 1133 उम्मीदवारों ने दल-बदल किया। इसके अलावा 500 सांसदों विधायकों ने भी पाला बदला। सबसे ज्यादा नुकसान कांग्रेस और बीएसपी को हुआ, जिसे छोड़ने वाले नेताओं की तादाद ज्यादा रही। इसी तरह सबसे ज्यादा फायदे में बीजेपी रही। दूसरे दलों के ज्यादातर नेताओं ने उसका दामन थामा।

चुनावी राजनीति पर नजर रखने वाली संस्था ‘असोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स’ (एडीआर) की ओर से उम्मीदवारों के चुनावी हलफनामों का विश्लेषण करने से पता चलता है कि 2014 से 2021 के दौरान कुल 222 उम्मीदवार कांग्रेस छोड़कर दूसरी पार्टियों में शामिल हो गए। इसी दौरान 177 सांसदों और विधायकों ने भी देश की सबसे पुरानी पार्टी का साथ छोड़ दिया। इन सात वर्षों में कई दलों के 115 उम्मीदवार और 61 सांसद-विधायक कांग्रेस में शामिल भी हुए। एडीआर की रिपोर्ट में कहा गया है कि साल 2014 से बीजेपी से भी 111 उम्मीदवार और 33 सांसद-विधायक अलग हुए, हालांकि इसी अवधि में 253 उम्मीदवार और 173 सांसद एवं विधायक दूसरे दलों को छोड़कर बीजेपी में शामिल हुए। रिपोर्ट के अनुसार, सात साल में कुल 1133 उम्मीदवारों और 500 सांसदों विधायकों ने पार्टियां बदलीं और चुनाव लड़े।

कांग्रेस के बाद बहुजन समाज पार्टी दूसरी ऐसी पार्टी रही जिसे सबसे अधिक उम्मीदवारों और सांसदों-विधायकों ने छोड़ा। पिछले सात वर्षों के दौरान 153 उम्मीदवार और 20 सांसद-विधायक बसपा से अलग होकर दूसरी पार्टियों में चले गए। इसी के साथ, कुल 65 उम्मीदवार और 12 सांसद-विधायक भी बसपा में शामिल हुए। रिपोर्ट में कहा गया है कि 2014 से समाजवादी पार्टी से 60 उम्मीदवार और 18 सांसद विधायक अलग हुए। इस दौरान 29 उम्मीदवार और 13 सांसद विधायक उसके साथ जुड़े।

इसी तरह कुल 31 उम्मीदवारों और 26 सांसदों एवं विधायकों ने तृणमूल कांग्रेस का साथ छोड़ा। इस दौरान 23 उम्मीदवार और 31 सांसद विधायक उसमें शामिल भी हुए। एडीआर की रिपोर्ट के अनुसार, जनता दल (यू) के 59 उम्मीदवारों और 12 सांसदों विधायकों ने दल बदला। इस दौरान 23 उम्मीदवार और 12 विधायक एवं सांसद उसमें शामिल हुए।

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