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फर्जी इतिहास पढ़ाना देशद्रोह

    के. विक्रम राव

हायतोबा बड़ा मच गया फिर, जब हाल ही में सुर्खियों में खबर आई कि इतिहास की पुस्तकों में से मुगल काल हटा दिया गया है। यह वाजिब है क्योंकि अंग्रेजी राज में ही इतिहास लेखन की पीठिका गठी गयी थी जिसका ध्येय था कि इस्लामी कालखंड को सकारात्मक नजर से ही पेश किया जाए, ताकि भविष्य में ब्रिटिश सत्ता को भी भली दृष्टि से देखा जाए।

प्रमाण स्वरूप कुख्यात “कैंब्रिज स्कूल” का उदाहरण हैं।  इसके सदस्य गणमान्य इतिहासवेत्ता थे, जिनमें जैक गल्लाधर (ऑक्सफोर्ड के), रोनाल्डो ऐविनसन आदि रहे। उनमें ग्रन्थकार खास थे क्रिस्टोकर बेली। इनका एक ही लक्ष्य था। साम्राज्य का गुणगान करो। मूल सिद्धांत ही नजरअंदाज कर दिया गया कि इतिहास (History) शब्द के मायने हैं “इस प्रकार हुआ।” इस कैंब्रिज-स्कूल वालों का दावा था कि महात्मा गांधी और उनकी कांग्रेस पार्टी सीधी टकराहट के बजाए वार्ता और सौदेबाजी से आजादी लेना चाहते थे।

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बेली ने अपनी किताब “दि लोकल रूट्स ऑफ इंडियन पॉलिटिक्स इलाहाबाद 1880-1920” में इसका उल्लेख किया है। सारतत्व यही प्रचारित हुआ कि भारत का अतीत कभी भी गौरवशाली नहीं रहा। हजार साल तक गुलाम जो रहे। मगर इन श्वेत विश्लेषक को याद नहीं रहा कि उस इतिहास के लेखक कौन थे? वही वेतनभोगी अल बरूनी जैसे जिन्होंने ग्यारहवीं सदी में लिखा था “भारत भूखों, अनपढ़ों का मुल्क है।” इसी विषय, दृष्टिकोण तथा सोच को स्टुअर्ट मिल तथा विंसेंट स्मिथ ने फैलाया। हमारी पीढ़ी उन्हीं की किताबें पढ़कर स्नातक बनी। तो हम कैसे सुधरेंगे ?

इतिहास

इतिहास के पुनर्लेखन के विवाद पर केवल तर्कों और साक्ष्य से ही गौर करें। तब यह अवधारणा बलवती हो जाएगी कि भारत का इतिहास जैसे प्रस्तुत है, वह विकृत है। विसंगत है। प्रपंच है, स्वांग भी। इतिहासज्ञ केवल पराजय और आत्मसमर्पण को ही भारत का भाग्य मानते रहे हैं। मसलन हिमांताविश्व शर्मा, (असम के कांग्रेसी, अब भाजपाई मुख्यमंत्री) का अकाट्य उल्लेख है। उन्होंने लच्छित बडफूकन, असमिया सेनापति, का प्रसंग बताया। इस वीर ने मुगल सेना को परास्त किया था जिसके फलस्वरूप फिर कभी दिल्ली साम्राज्यवादियों ने पूर्वोत्तर पर हमला नहीं किया।

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इतिहास पुनर्लेखन की बात किसी हिंदूवादी ने नहीं, बल्कि गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने 1903 में शांतिनिकेतन में अपने संबोधन में कहा था : “भारत का इतिहास वह नहीं है जो हम परीक्षाओं के लिए पढ़ते और याद करते हैं। जैसे कि कुछ लोग बाहर से आए और सिंहासन के लिए पिता-पुत्र-भाई और स्वजनों की हत्या करते रहे। यह भारत का इतिहास नहीं है। क्या साहित्य, कला, लोक कला, विज्ञान, स्थापत्य, दर्शन, शिक्षा, जीवन-शैली आदि का इतिहास में कोई स्थान नहीं होना चाहिए था ?”

अब तनिक मनन, विचार, विश्लेषण करें कि आखिर पुनर्लेखन की मांग की तह में कारण कौन से हैं ? पिछली सदी के अंतिम दौर में मार्क्सवादियों का विकराल प्रभाव था इतिहास लेखन और पाठन पर। उन्होंने पोंगी पंथनिरपेक्षता की आड़ में नई सियासी प्रतिबद्धता का अनुसरण किया। इनमें जमीदार कुनबे में जन्में कम्युनिस्ट मियां मोहम्मद इरफान हबीब, सोवियत-मित्र रोमिला थापर और नेहरू के कीर्तिगायक विपिनचंद्रा खास थे। इतालवी कम्युनिस्ट चिंतक अंतनियों ग्रामस्की से सब प्रभावित थे। इन इतिहासकारों, जिनमें अधिकतर “सोवियत लैंड” के वजीफे पर पलते थे, ने आखिर मार्शल ज्योर्जी जुखोव द्वारा जनवरी 1957 में नेशनल डिफेंस अकादमी में सैनिक प्रशिक्षुओं के समक्ष दिए गए भाषण पर ध्यान क्यों नहीं दिया ?

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मार्शल जुखोव ने सेनाशास्त्र के सिद्धांतों के माध्यम से पुणे के अपने उद्बोधन मे प्रमाणित किया था कि झेलम तट पर सिकंदर को राजा पोरस ने बुरी तरह पराजित किया था। स्वयं ख्यात यूनानी इतिहासज्ञ पोंटस स्ट्राबो ने झेलम के इस युद्ध पर लिखा कि भारत पर लिखने वाले इतिहासज्ञ अधिकतर मिथ्यावादी थे। सिकंदर के बारे में तो खासकर। प्लुटार्क ने भी अनुमोदन किया था। मगर इसे मार्क्सवादी नहीं मानेंगे। तो ये मार्शल जुखोव कौन थे ? याद दिला दें कि वे जोसेफ स्तालिन के फौजी कमांडर थे।

लाल सेना के इस सेनापति ने दो हजार किलोमीटर नाजी सेना को स्तालिनग्राड से बर्लिन तक खदेड़ा था। हिटलर ने तभी अपने शरीर को जला डाला था। मार्शल जुखोव प्रतिबद्ध लेनिनवादी थे। अपने भाषण में मार्शल जुखोव ने सिकंदर और पोरस के युद्ध की विवेचना की। सिकंदर यूनान से चला था भारत फतह करने। ईरान को उसने कुचल दिया। पंजाब में देशद्रोही राजा आंभी को मिला लिया। पर पोरस से भिड़ने के बाद सिकंदर का साहस टूट गया। वह पाटलीपुत्र के घनानंद के वंश पर आक्रमण करने आया था। विजेता राजा हारे हुए की बहन-बेटी को अपने हरम या रनिवास में रखता है। मगर सिकंदर के सेनापति सेल्यूकस निकाटोर ने पुत्री हेलेन को चन्द्रगुप्त मौर्य को भेंट दी थी।

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रोमन-इतिहासज्ञ मार्क्स जस्टनियस ने लिखा था कि युद्ध में सिकंदर घोड़े पर से गिर गया था। पोरस के भाले की ठीक नोक पर था। भारतीय राजा ने मारा नहीं। घायल सिकंदर वापस मेसिडोनिया चला। पर राह में बेबीलोन (इराक) में दम तोड़ दिया। विश्वविजेता का सपना संजोनेवाला वह 33 वर्ष की आयु में ही चल बसा। किन्तु भारत के इतिहासवेत्ता पोरस को हारा हुआ दिखाते हैं। इन महाज्ञानियों को मेरे स्कूली गीत (1951) की लाइन बता दूं : “पोरस की वीरता का झेलम तू ही पता दे। यूनान का सिकंदर तेरे ही तट पर हारा।” मगर हीन भावना से ग्रसित थे भारतीय मार्क्सवादी इतिहासवेत्ता। वे भला राष्ट्रगौरव क्या समझें ?” इसीलिए पुनर्लेखन जरूरी है। ताकि सत्य अब और ज्यादा देर तक प्रछन्न न रहे।

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