बिहार में कला और संस्कृति के नाम मधुबनी पेंटिंग और भाषा के रूप में भोजपुरी विश्व पटल पर अपनी पहचान रखता है. आमतौर पर लोग भोजपुरी को केवल एक भाषा के तौर पर ही जानते हैं, जबकि कला के रूप में भी इसकी एक पहचान रही है. लेकिन वर्तमान समय में भोजपुरी भाषा का अस्तित्व कहीं खोता नजर आ रहा है. अलबत्ता, इसे फिल्मों के फूहड़ गानों तक सीमित कर इसे अश्लीलता की पहचान अवश्य दिला दी है जो किसी भी भाषा के अस्तित्व के लिए चिंता का विषय है.
जब भोजपुरी भाषा सीमित होती जा रही है, तो भोजपुरी पेंटिंग के बारे में लोगों को जानकारी हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता है. बहुत कम लोग ऐसे होंगे जो मधुबनी पेंटिंग की तरह भोजपुरी पेंटिंग से वाकिफ होंगे. हालांकि कुछ ऐसे कलाकार आज भी हैं जो इस विलुप्त कला को पहचान दिलाने में लगे हुए हैं. महिलाएं हमेशा से धरोहर की पक्षधर होती हैं और जहां तक संभव हो सके प्रकृति के संरक्षण में अपनी महती भूमिका निभाती रहती हैं. ऐसी ही एक महिला वंदना श्रीवास्तव हैं, जो भोजपुरी पेंटिग को एक अलग पहचान दिलाने में जुटी हुई हैं.
मूल रूप से राजस्थान के जोधपुर जिला की रहने वाली वंदना पूरे मनोयोग से भोजपुरी पेंटिंग बनाने का काम करती हैं. वंदना का जन्म स्थान भले ही राजस्थान रहा है, लेकिन शादी के बाद नालंदा बस जाने के बाद उन्होंने भोजपुरी पेंटिंग बनाना शुरू किया. उनका मानना है कि जिस प्रकार लोग मधुबनी पेंटिंग को मान-सम्मान देते हैं और उसे अपनी धरोहर मानते हैं, उसी प्रकार भोजपुरी पेंटिंग को भी अपनाना और मान सम्मान मिलनी चाहिए क्योंकि वह भी बिहार की एक पहचान है. हालांकि भोजपुरी भाषा के अस्तित्व पर विलुप्ति का साया मंडरा रहा है, मगर वंदना का मानना है कि पेंटिंग के माध्यम से भी इस भाषा के प्रति लोगों में रुचि जरूर जगने लगेगी और वे भी एक दिन अपनी संस्कृति की ओर लौटेंगे.
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वंदना ने इतिहास विषय में एम.ए किया है और वर्तमान में वे अपने पति के साथ बिहार के नालंदा जिला में रहती हैं. वंदना बताती हैं कि भोजपुरी पेंटिंग बिहार की लोक-कला है लेकिन आमजन जीवन में भोजपुरी पेंटिंग को नहीं शामिल करने के कारण लोगों को उसके बारे में जानकारी बहुत अधिक नहीं है. वह बताती है कि उनके लिए भोजपुरी पेंटिंग अभिव्यक्ति का साधन है, साथ ही आरा रेलवे स्टेशन पर भोजपुरी पेंटिंग बनाया जाना एक सकारात्मक कदम है, जिससे अनेक लोग लाभान्वित होंगे और कलाकारों को मौके मिलेंगे.
वंदना बताती हैं कि भोजपुरी पेंटिंग में मुख्य तौर पर गणित के विभिन्न आकारों को उकेरकर पेंटिंग बनाई जाती है, जिसमें तरह-तरह के ज्यातिमय आकार शामिल होते हैं और इन्हीं आकारों से बिहार की विभिन्न संस्कृति, देवी-देवताओं की आकृति को दर्शाया जाता है. साथ ही भोजपुरी पेंटिंग को लोकल त्योहारों, घर के मुख्य द्वार और अल्पना के तौर पर भी बनाया जाता है. साथ ही सारी पेंटिंग्स को समकालीन परिप्रेक्ष्य के अनुसार ही बनाया जाता है ताकि लोग पेंटिंग के महत्व को समझ सकें.
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वंदना अपनी पेंटिंग को सोशल मीडिया के जरिये भी लोगों तक पहुंचाने का काम करती हैं. साल 2010 और साल 2013 में उन्होंने दिल्ली में मैथिलि-भोजपुरी अकादमी की ओर से आयोजित होने वाले राष्ट्रीय एक्जिबिशन में भी भाग लिया था, जहां उन्होंने भोजपुरी पेंटिंग की किताब रंगपूर्वी को लोगों के समक्ष रखा था और लोगों ने भी उसे खूब सराहा था. अपने इस काम की वजह से वह दिल्ली साहित्य कला परिषद की सदस्य भी रह चुकी हैं. सोशल मीडिया आज उनके लिए लोगों तक अपनी पहुंच बनाने का बेहद सहज साधन बन गया है.
वंदना की बनायी पेंटिंग दिल्ली स्थित साहित्य एकेडमी की किताब अक्षर पर्व और भोजपुरी साहित्य सरिता मैगजीन के कवर पेज पर भी आ चुकी है. वंदना बताती हैं कि उनकी इच्छा अपनी सारी पेंटिंग्स को किताब के रूप में लाने की है, ताकि घर के हर एक कोने तक भोजपुरी पेंटिंग पहुंच सके. उनके इस काम में उनके पति परिचय दास का उन्हें हर कदम पर सहयोग मिलता है. वे स्वयं नव नालंदा महाविहार में हिन्दी विषय के प्रोफेसर हैं, जिनसे उन्हें बेहद प्रेरणा मिलती है कि वे भी अपनी ओर से भाषा के संरक्षण में अपनी भूमिका निभाएं.
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वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो लिखित रूप से भोजपुरी भाषा सीमित हो चुकी है, जिसके एक नहीं बल्कि कई कारण हैं. जैसे- भोजपुरी फिल्मों में अश्लील भाषा का उपयोग होना, पाठ्यक्रम में ऐच्छिक विषय के रूप में भी भोजपुरी का शामिल ना होना आदि महत्वपूर्ण हैं. हिन्दी को लेकर लोगों में थोड़ी जागरूकता है, लेकिन आम लोगों को भी समझना होगा कि भाषा संवाद का साधन है और जब साधन ही विलुप्त हो जाएगा तब संवाद की प्रक्रिया जटिल हो जाएगी.
समय के साथ चलना बुद्धिमानी जरुर है लेकिन जड़ों को छोड़ देना कहीं से भी सही नहीं है. छपरा में जन्मे भिखारी ठाकुर ने भोजपुरी भाषा को जो उपलब्धि प्रदान की है, उसे बचाए रखना हर नागरिक की जिम्मेदारी है. अगर लोग भाषा नहीं समझ पा रहे, तो कम से कम उन्हें पेंटिंग के जरिए दोबारा जोड़ने की प्रक्रिया तो की ही जानी चाहिए ताकि धीरे ही सही मगर बदलाव तो हो, ऐसे में वंदना की यह कोशिश सराहनीय है. इससे नई पीढ़ी को भोजपुरी भाषा को समझने और इससे जुड़ने का मौका भी मिलेगा. (चरखा फीचर)