किसी भी देश के विकास के लिए यह आवश्यक है कि उसके सभी नागरिक समान रूप से शिक्षित और दक्ष हों. चाहे वह शहरी क्षेत्र से हों या ग्रामीण, पुरुष हों या महिला. सभी बिना किसी भेदभाव और बाधा के सभी क्षेत्र में पारंगत हों. इसका अर्थ है कि विकास के लिए महिलाओं एवं लड़कियों को भी शिक्षित होना बहुत जरूरी है. आज पूरे देश में महिलाओं में शिक्षा को लेकर काफी जागरूकता आई है. साइंस और टेक्नोलॉजी से लेकर ताइक्वांडो तक में लड़कियां अपना परचम लहरा रही हैं और अपने सपनों को पूरा कर रही हैं. पहले बचपन से ही उन्हें घर से बाहर निकलने नहीं दिया जाता था. परिणामतः उनके ख्वाब और उनकी सलाहियत घर की चारदीवारी के अंदर दम तोड़ देती थी.
लेकिन अब लड़कियां घर से बाहर निकल रही हैं, उच्च शिक्षण संस्थानों में दाखिला ले रही हैं और अपने सपनों को पूरा कर रही हैं. हरेक क्षेत्र में पुरुषों से कंधे-से-कंधा मिलाकर कीर्तिमान स्थापित कर रही हैं. सरकारी नौकरी, प्राइवेट नौकरी, व्यवसाय सहित जोखिम भरे सभी कामों को पुरुषों की तरह ही सफलतापूर्वक अंजाम दे रही हैं. इन सबके बावजूद घर-गृहस्थी की जवाबदेही भी बखूबी निभा रही हैं. आज इन्हें शिक्षा प्राप्त करने के लिए घर की चारदीवारी से निकलकर महानगरों में भी उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए किसी प्रकार की झिझक नहीं है.
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इन सबके बीच एक कड़वा सच यह है कि आज भी महिला शिक्षा के प्रति पितृसत्तात्मक समाज पूरी तरह से पुरुषों की तरह महिलाओं को शिक्षित करने में कमोबेश उदासीन रहता है. पुत्र और पुत्री के बीच अंतर आज भी व्याप्त है. यह खाई शहरों की अपेक्षा ग्रामीण क्षेत्रों में बहुत अधिक नज़र आता है. इन क्षेत्रों में बहुत कम परिवार ऐसा नज़र आता है जो पुत्र और पुत्रियों को बराबर का दर्जा देकर उन्हें शिक्षित करने में रुचि दिखाता है. अर्थात देश की आधी आबादी की लड़ाई आज भी जारी है.
स्वतंत्रता के उपरांत देश में महिला साक्षरता की दर मात्र 8.6 प्रतिशत से भी कम थी. लेकिन 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में महिला साक्षरता की दर 1951 के 8.6 प्रतिशत से बढ़कर 65.46 प्रतिशत हो गई है, हालांकि यह अभी भी पुरुष साक्षरता की दर 82.14 प्रतिशत और राष्ट्रीय औसत 74.04 प्रतिशत की तुलना में काफी कम है. यह अंतर देश के ग्रामीण इलाकों में काफी गंभीर है. जहां लड़कों की तुलना में कम लड़कियां विद्यालय जाती हैं. वहीं लड़कियों में ड्राॅप आउट की संख्या बेहद खतरनाक स्तर तक है. आंकड़े बताते हैं कि देश में अभी भी 145 मिलियन महिलाएं पढ़ने-लिखने में असमर्थ हैं.
भारत सरकार से लेकर विभिन्न राज्य सरकारें अपने अपने स्तर पर महिलाओं में शिक्षा और उनके कौसल को बढ़ावा देने के लिए विभिन्न कार्यक्रम चला रही हैं. इनमें सर्व शिक्षा अभियान, बालिका समृद्धि योजना, राष्ट्रीय महिला कोष, महिला समृद्धि योजना, रोजगार व आय सृजन प्रषिक्षण केंद्र (कौशल विकास), बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ, सुकन्या समृद्धि योजना, सिलाई मशीन योजना और प्रधानमंत्री समर्थ योजना प्रमुख है. लेकिन इसके बावजूद ग्रामीण क्षेत्रों में महिला एवं किशोरियों में शिक्षा का प्रतिशत उम्मीद से कम रह रहा है.
देश में महिला शिक्षा को सबसे अधिक कुपोषण, यौन उत्पीड़न व दुर्व्यवहार, बचपन में संक्रमण व प्रतिरक्षा शक्ति की कमी, सामाजिक प्रतिबंध, वर्जनाएं, घर में पुरुषों के आदेशों का पालन, सीमित शिक्षा प्राप्त करने की अनुमति, बाल विवाह, दहेज प्रथा, लिंगभेद, पितृसत्तात्मक समाज, सुरक्षा का अभाव और परंपरा एवं संस्कृति की रक्षा के नाम पर लड़कियों का स्कूल जाना बंद करवाना आदि ने प्रभावित किया है. लड़कियों के प्रति घर में ही माता-पिता का दोहरा चरित्र नज़र आता है.
पुत्र के लिए पूरी आजादी और पुत्रियों के लिए तय सीमा रेखा इसका एक उदाहरण है. बेटियों को दूसरे के घर की अमानत समझकर शिक्षा दी जाती है, तो वहीं बेटे को कमाऊ पुत्र समझा जाता है. बेटे को प्रदेश से बाहर पढ़ने की इजाजत होती है, तो बेटियों को मान-प्रतिष्ठा से जोड़कर अन्य राज्यों में पढ़ने जाने देने से रोका जाता है. दूसरी ओर दहेज जैसी कुप्रथा की वजह से भी उच्च शिक्षा के लिए माता-पिता पैसे खर्च नहीं करना चाहते हैं. हालांकि शहरों के लोगों की मानसिकता महिला शिक्षा के प्रति बहुत बदली है, जबकि ग्रामीण इलाकों में लड़कियों को शादी करने के लायक पढ़ाने का रिवाज आज भी जारी है.
बिहार के मुजफ्फरपुर जिला स्थित सरैया प्रखंड की रहने वाली विज्ञान से स्नातक कर रही रुबी कुमारी कहती है कि ‘मैं मेडिकल की तैयारी करना चाहती हूं, लेकिन पिताजी कोचिंग कराने के खर्च देने से बिलकुल इंकार करते हैं. वहीं छोटे भाई को बी फाॅर्मा की पढ़ाई कराने के लिए वह कर्ज भी लेने को तैयार हैं. जब इस बाबत कुछ भी कहती हूं तो घर में मुझसे कहा जाता है कि अब शादी होकर जाना और ससुराल में ही पढ़ाई करना.’ ऐसी सोंच की वजह से बेटियों की पढ़ाई उच्च माध्यमिक तक ही सिमट कर रह जाती है.
शादी के बाद ससुराल वालों पर निर्भर है कि वे बहू को पढ़ाते हैं या घरेलू कार्य व संतानोत्पति के बाद बच्चों की परवरिश में लगा देते हैं. ऐसे में किसी भी लड़की के लिए प्रोफेशनल व एकेडमिक शिक्षा को जारी रखना मुश्किल काम हो जाता है. शादी से यदि लड़की नौकरी करती है तो उसे कम संघर्ष करना होता है, जबकि शादी के बाद बच्चों की देखभाल के साथ पढ़ाई करना टेढ़ी खीर साबित होता है. कई लड़कियां ससुराल वालों का सहयोग नहीं मिलने के कारण पढ़ाई का ख्वाब छोड़ देती हैं.
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इस संबंध में शिक्षक सकलदेव दास कहते हैं कि ‘ग्रामीण क्षेत्र की लड़कियां पढ़ने में लड़कों से आगे हैं. मैट्रिक व इंटरमीडियट रिजल्ट से पता चलता है कि लड़कियां लड़कों से अधिक पढ़ने में गंभीर व मेधावी हो रही हैं. बावजूद सामाजिक रीति-रिवाजों व दहेज जैसी कुप्रथा की वजह से माता-पिता को शादी की चिंता अधिक सताती है. यही कारण है कि बहुत कम परिवार ऐसा है जहां लड़कियां एमए अथवा पीएचडी करते हुए मिल जाएंगी.
ग्रामीण क्षेत्रों में तो यह संख्या लगभग शून्य है.’ जिला के पारु प्रखंड स्थित देवरिया चौक के एक निजी कोचिंग संचालक राम नरेश इस क्षेत्र के लिए मिसाल हैं, जिन्होंने पढ़ लिख कर नौकरी करने के अपनी बेटी के ख्वाब को पूरा किया. जब तक उसे नौकरी नहीं हुई, तब तक उसकी शादी के लिए प्रयास भी नहीं किया. हाल ही में बिहार में शिक्षकों की बहाली के दौरान उनकी बेटी का भी चयन हो गया और अब लड़के वाले भी बिना दहेज के शादी के लिए रजामंद हैं. ऐसी बहुत सारी लड़कियां हैं जो इस बार की बहाली में शिक्षिका बनी हैं. बिहार सरकार भी बेटियों के लिए पंचायत चुनाव से लेकर शिक्षक बहाली तक 50 प्रतिशत आरक्षण देकर महिला सशक्तिकरण की दिशा में बेजोड़ पहल की है. (चरखा फीचर)