विपिन आधारविहीन दरख्त के समान आँगन के मध्य बाँस-बल्लियों पर लेटे थे। सातों बच्चे, उनके जीवनसाथी तथा युवा-किशोर पोता-पोती, नाती-नातिन बार-बार पछाड़ें खाते उनके निष्प्राण शरीर पर गिरे जा रहे थे। देरी होने का हवाला देकर परिवारजन विपिन को लेकर चले गए। लंबे वैवाहिक जीवन में वह न के बराबर मायके गई थी। बस वह, विपिन, यह पुश्तैनी मकान और एक किराने की दुकान। बच्चों के साथ रहने भी कभी कहाँ जा पाई, यदा-कदा वही आते जाते रहे। तेरहवीं खत्म हुईं, समान पैक, परिवार के साथ प्रस्थान की कवायद शुरू, चलते हैं माँ।…..पर मैं यहाँ अकेले?”
बुआ जी अभी रहेंगी अनिमेष के साथ। बोर्ड की परीक्षा देकर आया है। तुम्हारा हमारे घरों में मन भी नहीं लगेगा माँ! तुम्हें बड़े घर की आदत है। शाम तक घर पूरा खाली! ओऽहहह! क्या करेगी वह? ननद भी पोते के साथ कुछ दिनों में चली ही जाएगी। उसके बाद क्या?
उसे चिंता में देख ननद नें आश्वासन दिया, भाभी!…भैया के पुराने सहायक की मदद से तुम दुकान संभाल पाओगी? कुछ कमरे किराए पर उठाओ, सन्नाटा कम होगा। वक्त बेवक्त का सहारा भी रहेगा। तुम्हारे संभलने तक मैं अनिमेष के साथ यहीं हूँ।
इतना बड़ा परिवार मेरे किसी काम का नहीं! विपिन जी देखकर दुखी होते होंगे, रुलाई फूट पड़ी उसकी। यह समय अनुकूल नहीं है भाभी! पर कहूँगी, तुम्हारा और भैया का अथाह प्रेम, कोई प्लानिंग नहीं, बच्चों की फौज खड़ी हो गई। शिक्षा भी कहाँ पूरी हो पाई उनकी। कोई आईए तो कोई बीए। उनके पास न अच्छी नौकरियाँ हैं, न अच्छे घर। खर्चे भी कहाँ पूरे हो पाते हैं। गाहे-बगाहे भैया ही मदद किया करते थे उनकी।
माँ-बाप की जवाबदेही न लेने का आरोप लगाना आसान है पर अपनी सीमित क्षमताओं के साथ वे अगली पीढ़ी को कामयाब बनाने में दिन रात जुटे तो हैं। बिस्तर से लग जाऊँगी तो मुझे मिलजुल कर थामने अवश्य आगे आएँगे। दिल के अच्छे हैं बेचारे, उसके उद्गार थे। हाँ भाभी! मैं भी यही समझाना चाहती थी।