महाभारत में भीष्म पितामह एक ऐसे किरदार के तौर पर देखे जाते हैं जिनके कौरवों के पक्ष में युद्ध करने के बावजूद उनके सत्य के प्रति निष्ठा को लेकर कभी सवाल नहीं उठे। श्रीकृष्ण ने भी हमेशा उनका सम्मान किया लेकिन वे भीष्म की प्रतिज्ञा को लेकर हमेशा अपनी नाराजगी भी जताते रहे।
पूरे महाभारत में श्रीकृष्ण कई बार इस बात का जिक्र करते हैं कि अगर पितामह गलत होता हुआ देखकर अपनी चुप्पी को काफी पहले ही तोड़ देते तो युद्द की नौबत ही नहीं आती। भीष्म पितामह ने आजीवन विवाह नहीं करने और हस्तिनापुर की सत्ता का साथ देने की प्रतिज्ञा ली थी। यही कारण है न चाहते हुए भी उन्हें दुर्योधन और महाराज धृतराष्ट्र के फैसलों को मौन रहकर मानना पड़ा।
महाभारत का युद्ध 18 दिन चला। सभी इस बात से वाकिफ थे कि भीष्म पितामह को इच्छा मृत्यु का वरदान है और इसलिए दुर्योधन ने उन्हें अपना पहला सेनापति बनाया। भीष्म पितामह अकेले दम पर 9 दिन तक पांडवों की सेना को तबाह करते रहे। हालांकि, अपने ही बताये उपाय की वजह से उन्हें अर्जुन के बाणों ने असहाय कर दिया। कथा के अनुसार भीष्म पितामह 58 दिनों तक बाणों की सैय्या पर पड़े रहे और सूरज के उत्तरायण होने पर इच्छामृत्यु से अपने प्राण त्याग दिए।
महाभारत के आदि पर्व के अनुसार 8 वसु अपनी पत्नियों के साथ एक बार मेरु पर्वत पर भ्रमण कर रहे थे। भीष्म पितामह भी इन्ही 8 वसुओं में एक थे और इनका नाम द्यो वसु था। भ्रमण के दौरान उनकी नजर वशिष्ठ ऋषि के आश्रम पर पड़ी। वशिष्ठ ऋषि के आश्रम में नंदिनी नाम की गाय बंधी थी जिसे देखने के बाद उनके मन में लालच आ गया और उन्होंने उसे चुरा लिया। इस काम में दूसरे वसुओं ने भी उनकी मदद की।
महर्षि वशिष्ठ अपने आश्रम आए तो उन्होंने दिव्य दृष्टि से सारी बात जान ली। वसुओं के इस कार्य से क्रोधित होकर उन्होंने वसुओं को मनुष्य योनि में जन्म लेने का श्राप दे दिया। ये सुन सभी वसु क्षमा मांगने के लिए उनके आश्रम पहुंच गये और माफी की मिन्नतें करने लगे। महर्षि वशिष्ठ ने सात वसुओं को तो धरती पर जन्म लेते ही शाप से मुक्ति की छूट दे दी लेकिन द्यो वसु को लंबे समय तक पृथ्वी पर रहने का शाप बरकरार रखा।
हालांकि, साथ ही उन्होंने द्यो वसु से कहा कि उन्हें इच्छामृत्यु का वरदान प्राप्त होगा और वे जब चाहें अपनी मौत को गले लगा सकते हैं। द्यो वसु ने ही अगले जन्म में मां गंगा की कोख से जन्म लिया और आगे चलकर भीष्म पितामह कहलाए।