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राजनीति में विलासितावादी का होना 

सभी को अमीर होने का एक जुनून चढ़ा है सभी को कुर्सी पर ताबीज होना है और फिर बंदरबांट का खेल खेलना है।यह आज की राजनीति और उनके चरित्र हैं।

ताजा उदाहरण हम सबने बिहार में देखा।जहां नैतिकता और शिष्टाचार का पतन चरम सीमा पर है।यह कैसी ओछी परिदृश्य भारतीय राजनीति में उभर रही है। जहां दो पार्टीयों का गठबंधन सूर्य अस्त होने के साथ टूटता है और सूर्य उदय होने पर एक नया गठबंधन बनता है।यह कैसी राजनीति और कैसी विकास? लोगो का विकास या अपना विकास?
सच कहा सिर्फ अपना विकास! आज के राजनीतिक चेहरे को देखें और नब्बे के दशक को याद करें तो आज जो लोग अपने आपको इस लूटरूपी राजनीति का पंडित मानते है उन लोगो ने बीते तीन दशक से बिहार की जनमानस के पैसो का बंदरबांट और हजारो घोटाले ने इन लोगो को इतना शक्तिशाली बना दिया है कि दिन रात ये नैतिकता पीने हैं, ईमानदारी बेचते है और झूठ फरेब पाजामे के कुर्ता बंदी के पाकेट में भरते हैं। जनमानस के प्रति व्यवहारिकता और जिम्मेदारी बची ही नहीं।
विरोधी के आगे नतमस्तक होते देखना शायद आज की नई राजनीति का हुनर है जिसमें हमारे बिहार के श्रेष्ठ माननीय माहिर हो गये हैं। गांठ रूपी रस्सी पर चढने से रस्सी टूटने का डर समाया रहता है लेकिन जीवन की यह छोटी सी बात हमारे माननीय नही जानते। पुनः गिरना और पुनः लिपटना लगता है वे मौसम बरसात ! इस सावन भादो में नई सरकार का गठन एक वैसे मुख्यमंत्री के द्वारा जिनके पास अनुभव ही अनुभव है।यह निर्णय उस वक्त लिया गया,जब पहले ही दो वर्षो से कोरोना की बंदी, मंदी और वेतहाशा मंहगाई झेल रहे लोगो को और अधिक कष्टो में डालने जैसा प्रतीत हो रहा है।
अभी तो सिर्फ चलती हुई योजना पर ध्यान देने की  जरूरत थी। लोग दो साल से कोरोना की मंदी झेले है बाढ सूखा मंहगाई झेल रहे हैं ऐसे समय में केन्द्र को नाराज कर नई सरकार बनाने का क्या औचित्य? जब सारी योजनाएं सुस्त पड़ जाएंगी विकास रूकेगा और लोग और ज्यादा वेरोजगार होगें।
बिहार जो 2005 से लगातार विकास की पटरी पर दौड रहा था । आज पहली बार महसूस हो रहा शायद बिहार एक बार फिर रूक गया है। क्योंकि केन्द्र और राज्य के बीच तालमेल में कमी को आगे न प्रदर्शित हो इससे कतई इन्कार नही किया जा सकता। आज की परिदृश्य में देखा जाय तो उन राज्य की स्थिति वेहतर मानी जा रही जहां केन्द्र और राज्यों के बीच सम्बन्ध मधुर हैं।

वैसे तो राजनीति के घोर विरोधी भी जब कहीं मिलते है तो दुआ सलाम और कुशल क्षेम आदर भाव के साथ गले मिलकर पूछते नजर आते हैं। लोकतंत्र की यह अनोखी तस्वीर शायद अब विरले ही देखने को मिलते हैं।

देश और क्षेत्र की समस्या दोनो अलग अलग चीजे है। राज्यो में क्षेत्रीय पार्टीयो का चलन बीते कुछ दशको से ज्यादा है और बढता ही रहा है जिसके फलस्वरूप आज विकासयोजनाएं भी दुर्गंम इलाके तक सरलता से पहुंच रही है। बिहार और बिहार की जनमानस तो हमेशा यही चाहेगी कि उनका लोकतंत्र और  प्रगाढ़ हो। लेकिन बिहार का परिदृश्य भिन्न है और मानसिकता पृथक सब अपने आप में सुपर बाॅस है। सबकी सिर्फ महत्वाकांक्षा है। जनता के प्रति उनकी नैतिकता कहीं बची ही नहीं  यह वैसी क्रीड़ा है जिसमें यह जिस डाल पर बैठता है उसी को काटता भी है।
वैसे यह चूहे बिल्ली का खेल तो पहले भी होता था लेकिन इस कदर हावी न था लोग पर्दे के पीछे इन तमाम चीजों को अंजाम देते थे।आज विलासिता में डूबे लोगो पर नशा इस कदर हावी है कि वह इन सारी मर्यादाओं को भूल चुके हैं। आदिकाल की बात हो या वेद पुराण की अथवा ग्रंथों की सत्ता के लिए दकियानूसी चाल होती रही है जिसका उदाहरण महाभारत से लिया जा सकता है जिसमें एक ओर छल, कपट, हत्या, द्वेष व  घृणा के अनेक  उदाहरण है तो दूसरी ओर ज्ञान,मर्यादा, राजधर्म, धर्म और गीता के उपदेश भी हैं।
सवाल यह उठता है कि हम किस ओर जाएं और समाज को किस ओर ले जा रहे हैं जाहिर है व्यक्ति से ही समाज है। जब देश की पार्टीयां अगर मर्यादा का पालन नही करेगी तो फिर उस देश का क्या होगा और वह किस ओर जाएगी। विगत आठ दशक से हम स्वतंत्र है लेकिन आज भी वही ढाक के कितने पात को परिभाषित कर रहे हैं। आखिर क्यों? इस देश को कभी भी साफ सुथरा राजनीतिक माहौल नही मिला जिसकी परिकल्पना सरदार पटेल,और लालबहादुर शास्त्री जी जैसे नेताओं ने की थी।सबके सब अपने आप को चमकाने में और कुर्सी बचाने में लगे रहे हैं। आज यह विकट परिस्थिति भी विलासितावादी राजनीति में वर्चस्व का एक ओछी उदाहरण हमारे सामने परिलक्षित की गयी जिसे कोई भी ज्ञानी मानव अच्छा नही कह सकता।
      आशुतोष

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