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झोपड़ी के लाल कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न

भारत सरकार ने बिहार के प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी और समाजवादी नेता जननायक कर्पूरी ठाकुर (Karpoori Thakur) को देश का सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न दिए जाने की घोषणा की है। यह घोषणा उनकी जन्मशती की पूर्व संध्या पर की गई। वह सर्वोच्च नागरिक सम्मान पाने वाले बिहार के पांचवे व्यक्ति होंगे। उनसे पहले प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद और लोकनायक जयप्रकाश नारायण, विधान चंद्र राय तथा बिस्मिल्लाह खां को भारत रत्न (Bharat Ratna) से नवाजा जा चुका है। यह निर्णय देशवासियों को गौरवान्वित करने वाला है। पिछड़ों व वंचितों के उत्थान की उनकी अट्ट प्रतिबद्धता व दूरदर्शी नेतृत्व ने देश के सामाजिक-राजनीतिक परिदृय पर अमिट छाप छोड़ी है।

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उनका संबंध नाई समाज, यानी समाज के एक अति पिछड़े वर्ग से था। अनेक चुनौतियों को पार करते हुए उन्होंने अपने संघर्षशील जीवन में कई उपलब्धियों को हासिल किया और जीवन भर समाज के उत्थान के लिए काम करते रहे। जननायक कर्पूरी ठाकुर जी का पूरा जीवन सादगी और सामाजिक न्याय के लिए समर्पित रहा था। वे अपनी अंतिम सांस तक सरल जीवनशैली और विनम्र स्वभाव के चलते आम लोगों के साथ बहुत गहराई से जुड़े रहे।

झोपड़ी के लाल कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न

निचली जातियों में समानता के आग्रहों के स्फुरण के लिए कर्पूरी ठाकुर को भारत रल की उपाधि से सम्मानित करना वस्तुतः समता और समानता के अति आवश्यक संघर्ष को सम्मानित करना है। यहां इस सम्मान का महत्त्व इसलिए और बढ़ जाता है कि कर्पूरी ठाकुर आज के कथित जन नेताओं के विपरीत सरलता और ईमानदारी की प्रतिमूर्ति थे। उनकी ईमानदारी के अनेक किस्से बिहार के सार्वजनिक जीवन में प्रचलित हैं।

जननायक कर्पूरी ठाकुर को बिहार ही नहीं, संपूर्ण भारत की सियासत में सामाजिक न्याय की अलख जगाने वाले प्रथम नेता के रूप में याद किया जाता है। इसी कारण बिहार की जनता ने उन्हें भीड़ का आदमी, बिहार का गांधी, झोपड़ी का लाल, घर का आदमी, शोषितों-वंचितों का मसीहा के सम्मान से नवाजा है। कमजोर वर्गों को सशक्त बनाने की दिशा में उनके सफल प्रयासों के अलावा, विधायी व्यवस्था में उनका हस्तक्षेप काफी प्रभावशाली और सराहनीय रहा है।

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कर्पूरी ठाकुर जी की चुनावी यात्रा 1950 के दशक के प्रारंभिक वर्षों में शुरू हुई और वे राज्य की विधानसभा में एक ताकतवर नेता के रूप में उभरे। वे श्रमिक वर्ग, मजदूर, छोटे किसानों और युवाओं के संघर्ष की सशक्त आवाज बने। इसी कारण सामाजिक संरचना की बेहद कमजोर जातियों ने इतना सम्मान दिया कि आजीवन चुनाव जीतते रहे।

झोपड़ी के लाल कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न

एक साधारण व्यक्ति एवं एक जन नेता के रूम में कर्पूरी ठाकुर, बुद्ध, कबीर, नानक, रैदास, फुले दंपति, फातिमा शेख, नारायण गुरु, पेरियार, संत गाडगे महाराज, महात्मा गांधी एवं डॉ भीमराव अंबेडकर जैसे समाज सुधारकों द्वारा शुरू किए गए सामाजिक परिवर्तन की परंपरा को आगे लेकर बढ़े। कर्पूरी ठाकुर ने महात्मा गांधी के अंत्योदय से सर्वोदय के सिद्धांत को अपनाया। लालू प्रसाद यादव, राम विलास पासवान, नीतीश कुमार जैसे दिग्गज नेताओं को कर्पूरी ठाकुर ने आगे बढ़ाया। लालू यादव और नीतीश कुमार जैसे पिछड़ी जातियों से आने वाले नेताओं की बिहार में मजबूत सत्ताएं स्थापित हुईं तो इसकी पृष्ठभूमि में कर्पूरी ठाकुर के प्रयासों और संघर्षों का बड़ा योगदान है।

कर्पूरी ठाकुर उत्तर भारत के वह पहले मुख्यमंत्री थे जिन्होंने मंडल आयोग के गठन से पूर्व 1978 में पिछड़ी, अति पिछड़ी तथा अति निचली जातियों के लिए सरकारी सेवाओं में 26 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था लागू की थी। उनके इस कदम का कथित सवर्ण जातियों के प्रभुत्व वाले बिहार में उग्र विरोध भी हुआ था। लेकिन कर्पूरी ठाकुर ने कभी भी डगमगाहट नहीं दिखाई। पिछड़ों और अति पिछड़ों के उत्थान के प्रयासों के चलते ‘जननायक’ की उपाधि प्राप्त करने वाले कर्पूरी ठाकुर की पिछड़ों की राजनीति में बिहार में भारी परिवर्तन पैदा किया। बिहार सहित अन्य राज्यों में भी भारी बदलाव की लहर पैदा की।

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5 मार्च 1967 को बिहार के उप-मुख्यमंत्री बने और शिक्षा मंत्रालय का कार्यभार मिला। शिक्षा एक ऐसा विषय था, जो कर्पूरी जी के हृदय के सबसे करीब था। उन्होंने अपने पूरे राजनीतिक जीवन में गरीबों को शिक्षा मुहैया कराने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। वे स्थानीय भाषाओं में शिक्षा देने के बहुत बड़े पैरोकार थे, ताकि गांवों और छोटे शहरों के लोग भी अच्छी शिक्षा प्राप्त करें और सफलता की सीढ़ियां चढ़े। मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने बुजुर्ग नागरिकों के कल्याण के लिए अनेक बड़े फैसले लिए। मैट्रिक परीक्षा में अंग्रेजी की अनिवार्यता खत्म किया।

बिहार में शिक्षा को और अधिक सुलभ बनाते हुए कमजोर आर्थिक पृष्ठभूमि वाले बच्चों के लिए मैट्रिक तक पढ़ाई मुफ्त कर दी। वहीं, राज्य के सभी विभागों में हिंदी में काम करने को अनिवार्य बना दिया तथा उर्दू को राज्य की भाषा का दर्जा दे दिया। इससे बिहार में विवाद हुआ और उनकी खूब आलोचना की गई लेकिन इससे वंचित वर्गों के लिए शिक्षा के दरवाजे हमेशा के लिए खुल गए। इस नीति से उत्तीर्ण होने वाले अभ्यर्थियों का ‘कर्पूरी डिवीजन’ के रूप में मजाक बनाया गया।

झोपड़ी के लाल कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न

उन्होंने अपने कार्यकाल में गरीबों, पिछड़ों और अति पिछड़ों के हक में ऐसे तमाम काम किए जिनसे बिहार की सियासत में आमूलचूल परिवर्तन आ गया। इसके बाद कर्पूरी ठाकुर की राजनीतिक ताकत में जबरदस्त इजाफा हुआ और वो बिहार की सियासत में समाजवाद का बड़ा चेहरा बन गए। 31 जनवरी, 1968 को उप-मुख्यमंत्री पद के साथ ही शिक्षा मंत्री पद से भी हटे। राजनीतिक खींचतान के शिकार हुए।

इन्होंने राज्य में पहली बार, अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) को सरकारी नौकरी में 26 फीसदी आरक्षण दिया। इसी, सरकार में महिलाओं व आर्थिक आधार पर आरक्षण की व्यवस्था की। ठाकुर ने सीएम बनने के बाद मुंगेरीलाल आयोग की सिफारिशों को लागू किया। इसके बाद 90 के दशक में केंद्र में वीपी सिंह की सरकार बनने के बाद केंद्रीय स्तर पर पिछड़ा आरक्षण लागू किया गया।

उनसे जुड़े ऐसे कई किस्से हैं, जो उनकी सादगी की मिसाल हैं। उनके साथ काम करने वाले लोग याद करते है कि कैसे वे इस बात पर जोर देते थे कि उनके किसी भी व्यक्तिगत कार्य में सरकार का एक पैसा भी इस्तेमाल नहीं पाए। ऐसा ही एक वाकया बिहार में उनके मुख्यमंत्री रहने के दौरान हुआ था। तब राज्य के नेताओं के लिए एक कॉलोनी बनाने का निर्णय हुआ था, लेकिन उन्होंने अपने लिए कोई जमीन नहीं ली। जब भी उनसे पूछा कि आप जमीन क्यों नहीं ले रहे हैं, जो ये बस विनम्रता से हाथ जोड़ लेते थे। साल 1988 में जब उनका निधन हुआ, तो कई नेता श्रद्धांजलि देने उनके गांव गए। कर्पूरी जी के घर की हालत देखकर उनकी आंखों में आंसू आ गए थे कि इतने ऊंचे पद पर रहे व्यक्ति का अपना घर इतना साधारण कैसे सकता है।

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सामाजिक न्याय जननायक कर्पूरी जी के मन में रचा-बसा था। उनके राजनीतिक जीवन को एक ऐसे समाज के निर्माण के प्रयासों के लिए जाना जाता है, जहां सभी लोगों के संसाधनों का समान रूप से वितरण से और अवसरों का लाभ मिले। उनके प्रति भारतीय समाज में पैठ बना चुके को दूर करना भी था।

लोकतंत्र के लिए उनका समर्पण भाव, भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान ही दिख गया था, जिसमें उन्होंने अपने- आपको झोंक दिया था। उन्होंने 1970 के दशक में देश पर जबरन थोपे गए आपातकाल का भी पुरजोर विरोध किया था। लोकनायक जयप्रकाश नारायण, डॉक्टर राम मनोहर लोहिया और चौधरी चरण सिंह जी जैसी राजनीतिक विभूतियां भी उनसे काफी प्रभावित हुई थी। उनके नेतृत्व में ऐसी नीतियों को लागू किया गया, जिससे एक ऐसे समावेशी समाज की मजबूत नींव पड़ी, जहां किसी के जन्म से उसके भाग्य का निर्धारण नहीं होता हो। वे समाज के सबसे पिछड़े वर्ग से थे, लेकिन उन्होंने समाज के सभी वर्ग के लिए पूरे समर्पण भाव से काम किया। इनमें किसी के प्रति रत्ती भर भी कड़वाहट का भाव नहीं था और यही गुण उन्हें महानता की श्रेणी में ले आता है।

         डॉ नन्दकिशोर साह

1942 में समाजवादी छात्र राजनीति में सक्रिय रहे। भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल हुए, आजादी की लड़ाई के दौरान करीब 26 महीने जेल में रहे। 1947 देश की आजादी के बाद गांव के स्कूल में शिक्षक भी रहे। 1952 में बिहार विधानसभा के सोशलिस्ट पार्टी सदस्य के चुने गए। श्रमिकों के हित में सदैव सक्रिय रहते थे। 1960 में केंद्र सरकार के कर्मचारियों के एक आंदोलन का नेतृत्व करने की वजह से गिरफ्तार किए गए।

1970 में श्रमिकों के हित में 28 दिन तक आमरण अनशन किया। पूरे देश में चर्चा हुई। 22 दिसंबर, 1970 को बिहार के पहले गैर-कांग्रेस सोशलिस्ट मुख्यमंत्री बने। बिहार में शराबबंदी लागू किया । 2 जून, 1971 को मुख्यमंत्री पद से हटे, फिर एक बार राजनीतिक जोड़-तोड़ के शिकार हुए। 1975 के संपूर्ण क्रांति में आला नेताओं में शामिल लोकनायक जयप्रकाश नारायण के खास सहयोगी थे। 24 जून, 1977 को दूसरी बार बिहार के मुख्यमंत्री बने। जनता पार्टी के नेतृत्व में मौका मिला। 1978 बिहार में पिछड़ी जातियों के लिए पहली बार सरकारी सेवाओं में आरक्षण की शुरुआत की वजह से बहुत विरोध भी झेला। 21 अप्रैल, 1979 को मुख्यमंत्री पद चला गया। जनता पार्टी टूट गई, चौधरी चरण सिंह के गुट के साथ कर्पूरी ठाकुर गए। 1985 अंतिम बार विधानसभा चुनाव जीते, उनकी लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आई थी।

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दुर्भाग्य से, 17 फरवरी, 1988 को 64 की उम्र में विधायक रहते निधन हो गया। हमने उन्हें तब खोया, जब देश को उनकी सबसे अधिक जरूरत थी। आज भले ही वे हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन जन-कल्याण के अपने कार्यों की वजह से करोड़ों देशवासियों के दिल और दिमाग में जीवित हैं। राजनेता रहते वह एक मकान तक नहीं बनवा पाए। एक सच्चे जननायक थे। भारतीय राजनीति में सामाजिक न्याय के पुरोधा और प्रेरणादायक शख्सियत थे। यह सम्मान समाज के वंचित वर्ग के उत्थान में कर्पूरी ठाकुर के जीवनभर के योगदान और सामाजिक न्याय के प्रति उनके अथक प्रयासों को श्रद्धांजलि है।

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