कर्नाटक (Karnataka) में भाजपा की रणनीति पर कांग्रेस भारी पड़ी। इसके चलते वहां पर हर चुनाव में सत्ता परिवर्तन का रिवाज कायम रहा। इस हार से भाजपा ने दक्षिण में अपनी सत्ता वाले एक मात्र राज्य को खो दिया है।
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राज्य के बीते दो साल के हालात भाजपा की हार व कांग्रेस की जीत का रास्ता बताने की कहानी कहने के लिए काफी हैं। भाजपा को अब येदियुरप्पा के बिना आगे बढ़ने के लिए खुद को तैयार करना होगा।
दरअसल, कर्नाटक में भाजपा की राजनीति बीते कई साल से पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा के इर्द-गिर्द रही है। ऐसे में येदियुरप्पा को लेकर भाजपा नेतृत्व के फैसले और राज्य के नेताओं के आपसी टकराव ने पार्टी को दक्षिण के एक मात्र राज्य से भी सत्ता से बाहर कर दिया है।
कर्नाटक में भाजपा ने लगभग दो साल पहले भावी रणनीति के चलते अपने सबसे बड़े नेता बीएस येदियुरप्पा को हटाकर बसवराज बोम्मई को मुख्यमंत्री तो बना दिया, लेकिन वह अंदरूनी मतभेदों व विपक्षी चुनौतियों के मुकाबले काफी नहीं था।
कर्नाटक में गुजरात की तरह बड़ा व कड़ा कदम न उठाने से भाजपा वहां पर वह बदलाव नहीं ला सकी, जो सत्ता विरोधी माहौल की काट बनता और सामाजिक समीकरण उसके पक्ष में रहते। भाजपा ने गुजरात में चुनावों से साल भर पहले ही पूरी सरकार बदल दी थी।
कर्नाटक में मुख्यमंत्री भर बदला, जबकि उसका प्रभावी विकल्प पार्टी के पास नहीं था। इसके बाद पूरे दो साल भाजपा सरकार वहां पर खुद से जूझती रही। दूसरी तरफ कांग्रेस ने अपने नेताओं की एकजुटता बनाए रखी और भाजपा की कमजोरियों का लाभ उठाया।
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दूसरी तरफ, कांग्रेस ने बजरंग दल के खिलाफ जो वादा किया, उससे उसे राज्य के मुस्लिम समुदाय को साधने में मदद मिली और इसका सीधा नुकसान जद एस को हुआ। ऐसे में भाजपा का बजरंग बली वाला मुद्दा ज्यादा प्रभावी नहीं हो सका। आने वाले दिनों में भाजपा को कर्नाटक में अब नए नेतृत्व को सामने लाना होगा। क्योंकि येदियुरप्पा अब उम्र के उस पड़ाव पर हैं, जहां उनसे ज्यादा उम्मीद नहीं की जा सकती है।
कर्नाटक में राज्य सरकार पर चिपके भ्रष्टाचार के आरोपों का पार्टी प्रभावी जवाब नहीं दे सकी। साथ ही अपने समर्थक मजबूत लिंगायत समुदाय को भी बांध कर नहीं रख सकी। येदियुरप्पा के बाद मुख्यमंत्री बने बोम्मई भी लिंगायत ही थे, लेकिन इस चुनाव में वह चेहरे नहीं थे। भाजपा यह भी साफ नहीं कर पाई कि लिंगायत ही उसकी भावी सरकार का चेहरा होगा।
साथ ही उसने वोक्कालिगा समुदाय को साधने की ज्यादा कोशिश की। इससे भी लिंगायत समुदाय में गलत संदेश गया। पार्टी के कुछ प्रमुख लिंगायत नेताओं का जाना भी उसे भारी पड़ा। यही वजह है कि लिंगायत समुदाय के गढ़ों में भी उसे हार का सामना करना पड़ा।