किसी भी देश की शिक्षा व्यवस्था वहां के परिवेश के अनुकूल होनी चाहिए। इसमें उसकी भाषा, सभ्यता,संस्कृति,
सामाजिक मूल्यों को समुचित स्थान मिलना चाहिए। ऐसी शिक्षा नीति ही राष्ट्रीय स्वाभिमान का जागरण करती है। अंग्रेजों द्वारा भारत में शुरू की गई शिक्षा राष्ट्रीय स्वाभिमान को हीनता में बदलने वाली थी। शिक्षा केवल बाबू बनाने के लिए होगी,तो उससे व्यक्ति, समाज और राष्ट्र का अपेक्षित लाभ नहीं हो सकता। मानवीय द्रष्टिकोण का भाव भी होना चाहिए।
भारत में तो जीवन का अंतिम लक्ष्य मोक्ष बताया गया। उसी के अनुरूप सभी कार्यों का संदेश दिया गया। आधुनिक युग में होने वाले सकारात्मक बदलाव की स्वीकार करना अनुचित नहीं। लेकिन यह सब अपनी महान विरासत के प्रतिकूल नहीं होना चाहिए। विदेशी आक्रांताओं से कोई अपेक्षा नहीं थी। लेकिन स्वतन्त्र भारत की शिक्षा नीति में परिवेश के अनुकूल परिवर्तन की उम्मीद थी। यह नहीं हो सका। वर्तमान सरकार ने इस दिशा में कदम उठाया है। तीन दशकों बाद केंद्र में शिक्षा नाम प्रतिष्ठित हुआ। मानव संसाधन इसका विकल्प नहीं था।
शिक्षा स्वयं में बहुत व्यापक अनुभूति का शब्द है। व्यक्ति समाज व राष्ट्र के सम्पूर्ण संचालन को यह प्रभावित करने वाला शब्द है। नाम में सुधार के साथ समय के अनुकूल व्यापक सुधार किए गए है। अगले दशक तक पूर्व विद्यालय से माध्यमिक स्तर तक की शिक्षा का सार्वभौमिकरण किया जाएगा। स्कूल से दूर रह रहे दो करोड़ बच्चों को फिर से मुख्य धारा में लाएगा। प्राथमिक शिक्षा में बड़े बदलाव किए जाएंगे। स्कूली पाठ्यक्रम को व्यवहारिक बनाया जाएगा। बुनियादी योग्यता को महत्व दिया जाएगा। कच्छा छह से व्यावसायिक शिक्षा प्रारंभ हो जाएगी। पांचवीं कक्षा तक मातृभाषा क्षेत्रीय भाषा में पढ़ाई होगी। उच्च शिक्षा में अवसर बढ़ाये जाएंगे।
इसके पाठ्यक्रम में विषयों की विविधता होगी। ट्रांसफर ऑफ क्रेडिट की सुविधा के लिए अकादमिक बैंक ऑफ क्रेडिट की स्थापना की जाएगी। संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए राष्ट्रीय अनुसंधान फाउंडेशन की स्थापना की जाएगी। महाविद्यालयों को पन्द्रह वर्षों में चरणबद्ध स्वायत्तता के साथ संबद्धता प्रणाली पूरी की जाएगी। नई शिक्षा नीति स्कूली और उच्च शिक्षा दोनों में बहुभाषावाद को बढ़ावा देती है। पाली, फारसी और प्राकृत के लिए राष्ट्रीय संस्थान, भारतीय अनुवाद और व्याख्या संस्थान की स्थापना की जाएगी।
डॉ दिलीप अग्निहोत्री