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भारतीय विचारों के अनुरूप विकास

भारतीय व पाश्चात्य चिंतन में मूलभूत अंतर है। इस कारण व्यक्ति समाज सुख और अर्थव्यवस्था आदि सभी के संबन्ध में दृष्टिकोण भी बदल जाते है। पश्चमी देशों ने उपभोगवादी चिन्तन के अनुरूप विकास किया। इसमें बड़ी सफलता भी मिली। लेकिन यही विकास उनकी परेशानी बढा रहा है। परिवार व समाज में संकट है। प्रकृति के अत्यधिक दोहन से पर्यावरण का संकट है।

इनसे बाहर निकलने का अब उनके पास कोई मार्ग नहीं है। भारत को भी आत्मनिर्भर बनाने की आवश्यकता है। लेकिन पश्चिमी जगत की नकल से भविष्य वैसी ही परेशानी यहां भी दिखाई देगी। इस लिए भारतीय चिंतन के अनुरूप ही विकास के मार्ग पर बढ़ना चाहिए।स्वतंत्रता दिवस पर मुंबई के राजा शिवाजी विद्यालय में ध्वजारोहण के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने इन्हीं विचारों की प्रेरणा दी। कहा कि भारतीय अर्थव्यवस्था विकेंद्रित और आत्मनिर्भर बननी चाहिए।

आत्मनिर्भरता ही पूर्ण स्वतंत्रता की बुनियाद है। दुनिया में पूंजीवाद और कम्युनिज्म ऐसे दो ही रास्ते हैं। लेकिन भारत में अर्थव्यवस्था से जुड़ा तीसरा विकल्प मौजूद है। हमारा आर्थिक विचार हजारों वर्षों की कसौटी पर खरा उतरा है। नतीजतन इसमें अधूरापन नहीं बल्कि पूर्णता है। मौजूदा समय के बदलावों के साथ तालमेल बनाते हुए भारत को प्राचीन आर्थिक विचार को स्वीकारना होगा। व्यक्ति, परिवार के साथ-साथ समाज की आर्थिक उन्नति सर्वांगीण समृद्धि कहलाती है। भारत में छोटे और कुटीर उद्योगों के आधार पर बड़े उद्योगों का संचालन होना चाहिए। यह ध्यान रखना चाहिए कि हमारी व्यवस्था धन नहीं बल्कि व्यक्ति केंद्रित होनी चाहिए। देश स्वाधीन हो गया। किंतु पूरी तरह आत्मनिर्भर नहीं हुआ है।

उन्होंने विकेंद्रित एवं आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था को अपरिहार्य बताया। कहा कि विदेशों में व्यक्ति इकाई होता है। वहीं भारत में परिवार सामाजिक एवं आर्थिक इकाई है। भारतीय मनीषियों ने सुख को भौतिक नहीं बल्कि आंतरिक भावना करार दिया। संतोष पर ही सुख निर्भर होता है। सुख बांटने से संतोष की प्राप्ति होती है। सभी के सुख की कामना करने पर ही हम खुद सुखी होते हैं। चाणक्य सुख का मूल धर्म,धर्म का मूल अर्थ और अर्थ का मूल इंद्रीय जय है। हमारे यहां कमाने से अधिक बांटना महत्वपूर्ण है। हमारी सभ्यता में धर्म के अनुशासन में अर्थ चलता है।

इसके चलते हमारी आर्थिक व्यवस्था में शोषण नहीं,बल्कि आवश्यक आवश्यकता की पूर्ति के लिए दोहन होता है। उत्पादन खर्च पर आधारित लाभ हमारी संकल्पना है। इस लाभ से निर्मित संपत्ति का न्यायपूर्ण वितरण हमारी संकल्पना में निहित होता है। व्यवसाय में पूंजी,श्रम, संसाधन,ग्राहक और राज्य सभी की भूमिका महत्वपूर्ण होती है।स्वदेशी का मतलब दुनिया को ठुकराना नहीं होता। हम दुनिया से खरीदते समय अपनी शर्तों पर खरीद सकें, हमारी स्थिति ऐसी होनी चाहिए। उसके लिए आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था होनी चाहिए।

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