
भारत समेत दुनिया के लगभग सभी विकासशील और गरीब देश एक अजीव आर्थिक दुष्चक्र में फंसते जा रहे हैं। विश्व व्यापार संगठन (WTO) की छत्रछाया में कारपोरेट कंपनियां इन देशों के प्राकृतिक संसाधनों पर बड़ी ही चालाकी से कब्ज़ा करती जा रही हैं। कारपोरेट कंपनियां किसानों और मजदूरों समेत आम लोगों को अच्छे भविष्य का सपना दिखाकर उनके खेतों, हुनर और जेब पर भी कब्जा कर रही हैं। उदाहरण के तौर पर अभी कुछ ही दशकों पहले भारत समेत पूरी दुनिया में लागत शून्य, प्रकृति आधारित जैव विविधतापूर्ण खेती सहयोग व सहकार युक्त एवं बाज़ार मुक्त होती थी। किसानों को बीज और खाद आदि बाज़ार से क्रय नहीं करना पड़ता था, लेकिन आज किसान बीज तक के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर निर्भर है। यही हाल अन्य क्षेत्रों का भी है। कारपोरेट कंपनियों का दखल धीरे धीरे हमारे तीज त्योहारों से लेकर जन्म और मृत्यु संस्कारों में भी होने लगा है। कहने का मतलब आज जीवन का कोई क्षेत्र नहीं हैं, जहां पर इन कारपोरेट कंपनियों का दखल नहीं है। मतलब कि हम सब कारपोरेट कंपनियों के सशक्त हथियार बाज़ारवाद एवं उपभोक्तावाद की गिरफ्त में फंस चुके हैं।
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इन हालातों के लिए खासतौर से विश्व व्यापार संगठन ( डब्ल्यू टी ओ ) और उसके द्वारा विकासशील देशों की सरकारों पर दबाव बनाकर थोपी गयी जन विरोधी नीतियां हैं। विश्व व्यापार संगठन की मुख्य ताकत कारपोरेट कंपनियां हैं, जो बाज़ारवाद एवं उपभोक्तावाद के माध्यम से मानव गरिमा एवं अवसर की समानता को धीरे धीरे खत्म कर रही हैं। कारपोरेट फार्मिंग, कारपोरेट लॉ कारपोरेट टैक्स (जीएसटी), कारपोरेट ला एवं जस्टिस, कारपोरेट लेवर लॉ (कांट्रैक्ट/आउटसोर्स लेवर) और कारपोरेट करेंसी (क्रिप्टो करेंसी), कारपोरेट बैंकिंग, कारपोरेट मेडिकल, कारपोरेट शिक्षा, कारपोरेट ट्रांसपोरेशन, कारपोरेट टूरिज्म, कारपोरेट राजनीति तथा कारपोरेट सुचना एवं प्रचार तंत्र आदि शोषणकारी नवव्यवस्थायें इन्हीं की उपज हैं।
एनजीओ एवं कारपोरेट मीडिया भी कारपोरेट कल्चर की ही उपज है। इन नवव्यवस्थाओं ने तमाम बीमारियों, तरह तरह के प्रदूषण के साथ ही जैव विविधता को भी संकट में डाल दिया है। यही नहीं कारपोरेट कल्चर के चलते आपसी व्यवहार, परस्पर के प्रसार के साथ ही सहयोग एवं परस्पर विश्वास भी क्षरित हुआ है। इससे सत्यम शिवम सुंदरम एवं जियो और जीने दो की हमारी सनातन भावना भी कमजोर हुई है।
कारपोरेट कल्चर के मुख्य केंद्र शहर हैं, इसलिए शहरीकरण को बढ़ावा दिया जा रहा है। गावों का भी तेजी से शहरीकरण हो रहा है। कारपोरेट कल्चर ने गावों की सुदृढ़ खानपान की परंपरा को भी बुरी तरह से प्रभावित्त किया है।
आज शर्वत की जगह ब्रांडेड कोल्ड ड्रिंक और बोतलबंद पानी का सेवन तेजी से बढ़ा है। इसी तरह पहनावे भी बदले हैं। परंपरागत शिल्पकारी धीरे धीरे लुप्त होने लगी हैं। ब्रांडिंग के चलते हमारे आत्मनिर्भर गांव कारपोरेट कंपनियों पर निर्भर हो चुके हैं।
इसी तरह जल, जंगल और जमीन सभी प्रभावित हो रहे हैं। वनाधिकार कानून के माध्यम से जंगलों का विनाश किया जा रहा है। इससे तमाम बहुमूल्य जड़ी बूटियां और वनस्पतियां लुप्त होती जा रही हैं। यही नहीं कारपोरेट कंपनियों द्वारा परंपरागत औषधियों का अन्धाधुंध व्यापार किया जा रहा है। इससे आदिवासियों का परंपरागत व्यवसाय ठप हो गया है। इसी तरह भूगर्भ जल के अंधाधुंध दोहन से भूगर्भ जल स्तर गिरता जा रहा है। तमाम तरह के रसायनों के प्रयोग से भूगर्भ जल प्रदूषित ही हो चुका है। तमाम शहरों में यह जल पीने योग्य भी नहीं रह गया है।
इसी तरह नदियों का प्रवाह भी बाधित हुआ है। नदियों की निर्मलता भी खत्म हुई है। जबकि सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसले में कहा था कि अविरलता और निर्मलता नदियों का मौलिक अधिकार है। इन सबका दुष्परिणाम परिवार व समाज में विखराव, टूटते विश्वास, तनावग्रस्तता और आपसी वैमनष्य के रूप में परिलक्षित हो रहा है।
कारपोरेट कल्चर के दुष्परिणाम हमें वैश्विक महामारी कोरोना के समय में देखने को मिला। कोरोना काल में अधिकाँश देशों की सरकारें कारपोरेट कंपनियों के इशारे पर ही फैसले ले रही थी। लाकडाउन भी उन फैंसलों में अहम था, जिससे आम नागरिक को एक तरह से बंधक बना लिया गया था।
बीमारियों से ग्रसित तमाम लोग लॉकडाउन के चलते अस्पताल नहीं पहुँच सके। लोगों को आवश्यक दवाएं तक नहीं उपलब्ध हो रही थी। हालांकि संकट के उस समय भी देसी इलाज ही काम आया। कोरोना से पीड़ित मरीजों को अस्पतालों में भी काढ़े आदि दिए जा रहे थे। इस तरह कारपोरेट अर्थव्यवस्था पूरी तरह से नाकाम साबित हुई और परंपरागत स्वदेशी व्यवस्था से लोगों के जीवन की रक्षा हो सकी।
कारपोरेट कल्चर मानव गरिमा के विरुद्ध है, इसलिए इससे मुक्ति के उपाय सोचने होंगे। महात्मा गांधी ने स्वतन्त्रता संग्राम के समय स्वदेशी, स्वावलंबन और ग्राम स्वराज को श्रेष्ठ अर्थव्यवस्था, स्वास्थ्य, सुरक्षित एवं स्वतंत्र जीवन का आधार बताया था। चरखा को हथियार बनाने के पीछे गांधी जी की यही अवधारणा थी। भारत के प्राचीन ग्राम गणराज्यों की सफलता के पीछे उपरोक्त अवधारणाएं ही थी। हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था इतनी मजबूत थी कि बार बार राजनितिक परिवर्तनों के बाद भी उसमे बदलाव नहीं हुआ।
ये व्यवस्थाएं आजादी के बाद तक चलती रही। कारपोरेट कल्चर के दुष्परिणामों से आजिज भारत अपने प्राचीन ग्राम गणराज्यों, सरकार मुक्त, आत्मनिर्भर समाज व्यवस्था को अपनाकर कारपोरेट कल्चर के दुष्परिणामों से पीड़ित विश्व समुदाय के लिए मुक्ति का नायाब उदाहरण बन सकता है।