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कल्याण सिंह: आरएसएस सदस्य से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री तक

    दया शंकर चौधरी

उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा के दिग्गज नेता कल्याण सिंह ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। वह काफी दिन से बीमार चल रहे थे। कल्याण सिंह ऐसे नेता थे, जिन्होंने आरएसएस में सदस्य बनकर अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की और देश के सबसे बड़े सूबे यानी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। आइये जानते हैं कल्याण सिंह का राजनीतिक सफरनामा…।

बताते चलें कि उत्तर प्रदेश के छोटे-से कस्बे अतरौली से ताल्लुक रखने वाले कल्याण सिंह 35 साल की उम्र में पहली बार विधायक बने। सियासत में उनका सफर शुरू हुआ तो अपने क्षेत्र के साथ-साथ प्रदेश की राजनीति में भी सक्रिय हो गए। उन्होंने अतरौली में ऐसा जलवा कायम किया कि 1967 में पहला चुनाव जीत गये और 1980 तक उन्हें कोई चुनौती ही नहीं दे सका। जब 1980 के चुनाव में जनता पार्टी टूट गई तो कल्याण सिंह को हार का सामना करना पड़ा। जानकारों के मुताबिक, इससे पहले कल्याण सिंह जब विद्यार्थी थे, उस समय से ही आरएसएस के सदस्य बन गए थे। वह राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से ही जनसंघ में आए।

जब जनसंघ का जनता पार्टी में विलय हुआ और 1977 में उत्तर प्रदेश में जनता पार्टी की सरकार बनी तो रामनरेश यादव की सरकार में उन्हें स्वास्थ्य मंत्री बनाया गया। 1980 में कल्याण पहली बार चुनाव हारे, लेकिन उसी साल छह अप्रैल 1980 को भाजपा का गठन हुआ तो कल्याण सिंह को पार्टी का प्रदेश महामंत्री बना दिया गया। उन्हें प्रदेश पार्टी की कमान भी सौंप दी गई।

यह वह दौर था, जब उत्तर प्रदेश में अयोध्या आंदोलन की शुरुआत हो चुकी थी। उन्होंने अपनी गिरफ्तारी दी तो कार्यकर्ताओं में नया जोश आ गया और उनकी छवि रामभक्त की बन गई। उन्होंने तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह के खिलाफ बिगुल फूंका तो उत्तर प्रदेश सहित पूरे देश में भाजपा उभरकर आ गई। वहीं, जून 1991 में भाजपा ने उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई। इसमें कल्याण सिंह की अहम भूमिका थी, जिसके चलते उन्हें मुख्यमंत्री बनाया गया। हालांकि, उनकी सरकार के दौरान ही बाबरी ढांचा ढहा दिया गया। उन्होंने पूरे मामले का दोष खुद पर लिया और मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया।

शनिवार (21 अगस्त 2021) की रात 89 साल की उम्र में अंतिम सांस लेने वाले कल्याण सिंह को भारतीय राजनीति में हमेशा एक बड़े और ताकतवर नेता के तौर पर याद किया जाएगा। राम मंदिर आंदोलन में उनकी भूमिका, यूपी में पहली बार बीजेपी की सरकार बनाने में उनका योगदान, देश के सबसे बड़े राज्य का दो बार सीएम बनने का गौरव, कल्याण सिंह ने अपने राजनीतिक जीवन में सब कुछ पाया। 90 का दौर तो उनकी राजनीति के लिहाज से काफी खास रहा। उस दौर में कल्याण सिंह बीजेपी के एक दिग्गज नेता हुआ करते थे। ऐसे नेता जिन्हें अटल बिहारी वाजयेपी के बाद सबसे ज्यादा अहमियत दी जाती थी। उनका भाषण देने का अंदाज भी उन्हें लोगों के बीच लोकप्रिय बनाये रखता था। राजनीति में कल्याण सिंह का सफर बेहद उतार-चढ़ाव भरा रहा। वह हमेशा से आडवाणी खेमे के माने जाते थे।

साल 1999 आते-आते अटल और कल्याण के रिश्ते में कड़वाहट आ गई। कल्याण ने यहां तक कह दिया, ‘मैं भी चाहता हूं कि वो पीएम बनें, लेकिन उन्हें पीएम बनने के लिए पहले एमपी बनना होगा’। अटल से अदावत इतनी बढ़ गई कि भाजपा को ऊंचाइयां दिलाने वाले कल्याण सिंह को पार्टी से ही निकाल दिया गया।

ऐसे में कल्याण सिंह की राजनीतिक स्थिति खराब होती गई। कल्याण सिंह ने राष्ट्रीय क्रांति पार्टी का गठन किया और उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव अपने दम पर राष्ट्रीय क्रांति पार्टी से लड़ा। राष्ट्रीय क्रांति पार्टी के चार विधायक चुने गए थे। उस समय कल्याण सिंह ने बड़े स्तर पर पूरे प्रदेश में भाजपा को नुकसान पहुंचाया था। नतीजतन भाजपा और कल्याण सिंह दोनों उत्तर प्रदेश की राजनीति में हाशिये पर चले गए। 2004 में कल्याण सिंह ने पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के आमंत्रण पर भाजपा में वापसी तो कर ली लेकिन उनको वो पॉवर नहीं मिल सकी जो मंदिर आन्दोलन के समय उनके पास थी।

2004 के आम चुनावों में उन्होंने बुलन्दशहर की सीट पर भाजपा से पहली बार लोकसभा का चुनाव लड़ा और संसद पहुंचे। 2007 का उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव भाजपा ने कल्याण सिंह के नेतृत्व में लड़ा। कहने को भाजपा ने 2007 में कल्याण सिंह को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार तो बना दिया लेकिन नाम का, जिसके पास ना तो उमीदवार तय करने की पॉवर थी और ना ही उनके पास प्रदेश का चुनाव प्रबंधन था। इसलिए वे चुनाव में कुछ अच्छा नहीं कर सके। इसके बाद 2009 में फिर से अपनी उपेक्षा का आरोप लगाते हुए मतभेदों के कारण कल्याण सिंह ने भाजपा का दामन छोड़ दिया।

इसी समय सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव से नजदीकियां बढी तो 2009 के लोकसभा चुनाव में एटा लोकसभा क्षेत्र से मुलायम के सहयोग से कल्याण सिंह निर्दलीय सांसद चुने गये। लेकिन मुलायम और कल्याण की दोस्ती ज्यादा दिनों तक चल नहीं सकी। कारण था कल्याण सिंह की वजह से मुस्लिम समुदाय के लोग सपा से नाता तोड़ रहे थे। फलस्वरूप 2009 लोकसभा चुनाव खत्म होते ही मुलायम सिंह ने कल्याण से नाता तोड़ लिया।

अब बात उस समय की करते हैं जिस समय कल्याण सिंह के राजनीतिक सितारे बुलंदियों को छू रहे थे, तब बीजेपी के आज के दिग्गज नेता कहां थे? पीएम नरेंद्र मोदी 90 के दौर में क्या काम करते थे? गृह मंत्री अमित शाह को तब क्या जिम्मेदारी मिलती थी? बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा की तब राजनीति कैसी चलती थी? एक नजर डालते हैं तीनों नेताओं के तब के राजनीतिक सफर पर…

नरेंद्र मोदी : 90 के दौर में नरेंद्र मोदी बीजेपी के बड़े नेता बनने की ओर अग्रसर थे। वे पार्टी के लिए प्रचार करते थे, चुनावी रणनीति तैयार करते थे और जगह-जगह बीजेपी का विस्तार करने पर जोर देते थे। जब कल्याण सिंह पहली बार 24 जून 1991 को यूपी के सीएम बने थे, उस समय नरेंद्र मोदी बीजेपी नेता लाल कृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी संग काफी काम किया करते थे। एक तरफ उन्होंने आडवाणी संग 1990 की सोमनाथ-अयोध्या रथ यात्रा में सक्रिय भूमिका निभाई, तो वहीं बाद में उन्होंने अपने मिशन कश्मीर को भी धार देने का काम किया।

1990 की सोमनाथ-अयोध्या रथ यात्रा की बात करें तो उस समय लाल कृष्ण आडवाणी द्वारा नरेंद्र मोदी को समन्वय की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। 25 सितंबर, 1990 को गुजरात के सोमनाथ से शुरू हुई उस रथ यात्रा में मोदी लगातार आडवाणी संग थे। यहीं से उनका मंदिर आंदोलन से जुड़ाव शुरू हुआ था जो आने वाले कई सालों में और ज्यादा मजबूत होने जा रहा था। वैसे उस मंदिर आंदोलन के दौरान भी नरेंद्र मोदी को एक बड़े नेता के तौर पर देखा जाने लगा था। उस वक्त वे नेशनल इलेक्शन कमिटी के सदस्य हुआ करते थे।

अमित शाह : नरेंद्र मोदी की तरह अमित शाह भी काफी कम उम्र में राजनीति के साथ जुड़ गए थे। उनका चाणक्य वाला अंदाज भी कई साल पहले ही बीजेपी समझ चुकी थी। वे चुनावी रणनीतियां बनाने में सिर्फ आज माहिर नहीं हैं, बल्कि राजनीतिक प्रचार तो वे पिछले तीन दशक से काफी प्रभावी अंदाज में करते आ रहे हैं। जब 1991 में कल्याण सिंह को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया गया था, तब शाह यूपी से 1399 किलोमीटर दूर गुजरात में लाल कृष्ण आडवाणी के लिए चुनाव प्रचार कर रहे थे। बाद में 1996 में शाह ने अटल बिहारी वाजपेयी के लिए भी यही काम किया था।चुनाव प्रचार करते-करते अमित शाह खुद एक लोकप्रिय नेता में बदल गए और फिर उन्होंने अपना पहला चुनाव साल 1997 में लड़ा।

शाह ने गुजरात की सरखेज विधान सभा सीट पर उपचुनाव लड़ा था और उन्होंने पहली ही बार में जीत हासिल की।इसके बाद से शाह लगातार चार बार जीत दर्ज कर विधानसभा पहुंचे। उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन में अब तक हर चुनाव जीता है। 90 के दौर में तो उन्होंने इसकी सिर्फ एक झलक दिखाई थी। इसके बाद साल 1999 में अमित शाह को एक और बड़ी जिम्मेदारी मिल गई थी। वे अहमदाबाद डिस्ट्रिक्ट कोऑपरेटिव बैंक के प्रेसिडेंट बन गए थे। हमेशा जाति के दम पर जिस चुनाव को जीता जाता था, उस चुनाव में शाह ने फतेह हासिल की थी। उन्होंने सिर्फ एक साल के अंदर एक डूबते हुए बैंक को प्रॉफिट में ला दिया था। ये अलग बात रही कि तब विपक्ष आरोप लगाता था कि उस बैंक में ज्यादातर पदों पर सिर्फ बीजेपी के लोगों को ही जिम्मेदारी दी जाती थी।

जेपी नड्डा : बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने भी राजनीति में काफी लंबा और सफल सफर तय कर लिया है। अखिल भारतीय विद्यार्थी से अपनी राजनीति शुरू करने वाले नड्डा को साल 1991 में पहली बड़ी जिम्मेदारी मिली थी। वे भारतीय जनता पार्टी के युवा मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन गए थे। इसके ठीक दो साल बाद 1993 में जेपी नड्डा ने पहली बार चुनावी राजनीति में कदम रखा था। उन्होंने हिमाचल प्रदेश की बिलासपुर सदर विधानसभा सीट से चुनाव लड़ा और वे उसमें जीत गए। उन्हें तब नेता प्रतिपक्ष नियुक्त कर दिया गया था। अब नड्डा की उस जीत के मायने इसलिए भी काफी ज्यादा रहे क्योंकि 1993 के हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को करारी हार मिली थी।

वो ऐसी हार थी जिसमें सीएम खुद अपनी कुर्सी भी नहीं बचा पाए थे। लेकिन उस मुश्किल परिस्थिति में भी जेपी नड्डा ने अपनी चुनावी राजनीति का जीत से आगाज किया था। नड्डा ने 90 के दौर में अपनी चुनावी जीत का सिलसिला जारी रखा था। 1993 के बाद 98 के चुनाव में भी जेपी नड्डा विजयी रहे थे। तब बीजेपी ने प्रेम कुमार धूमल को मुख्यमंत्री बनाया था और नड्डा राज्य के स्वास्थ्य मंत्री बना दिए गए थे। 90 के दशक में जेपी नड्डा एक बड़े नेता के तौर पर जरूर उभर रहे थे, लेकिन क्योंकि उन्हें लो प्रोफाइल रहना पसंद रहता था, ऐसे में वे कभी ज्यादा सुर्खियों में नहीं रहे और बस पार्टी के निर्देशों पर चल काम करते रहे।

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