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मोदी सरकार देशहित में आंदोलनकारी किसानों के प्रति नरम रवैया छोड़े

    अजय कुमार

यह सही ही रहा कि केन्द्र सरकार ने आंदोलनकारी किसानों के सामने और घुटने न टेकने का मन बना लिया। आखिर आंदोलनकारी किसान यह कैसे भूल सकते हैं कि उनकी कोई भी मांग देश से ऊपर नहीं हो सकती हैं। तीनों नए कषि कानूनों को वापस लेने और न्यूनतम समर्थन मूल्य(एमएसपी) की कानूनन् गारंटी की जिद के चलते ही सरकार ने किसानों से बातचीत के दरवाजे बंद कर देना ही बेहतर समझा,तो इसमें कोई बुराई नहीं है। हो सकता है सरकार किसानों से बाचतीत के दरवाजे नहीं बंद करती, अगर यह किसान गणतंत्र दिवस की मर्यादा को बनाए रखने का वचन सरकार को देते,लेकिन इसके उलट किसान गणतंत्र दिवस को एक मौके के रूप में भुनाना चाहते थे।

जिससे देश-विदेश में न केवल मोदी सरकार को नीचा दिखाया जाता बल्कि देश को भी नीचा देखना पड़ता। इतना ही नहीं आंदोलनकारी किसान उन शक्तियों के हाथ का भी खिलौना बन गए जो किसानोें की आड़ लेकर मोदी सरकार को नीचा दिखाने में लगी रहती हैं। सरकार सही कह रही है कि पंजाब और हरियाणा के कुछ किसानों की जिद के चलते पूरे देश के किसानों के हितों की कुर्बानी नहीं दी जा सकती है।

धरना-प्रदर्शन या आंदोलन के नाम पर अगर कोई अपनी आजादी का हनन और दूसरे की आजादी में व्यवधान डालता है तो ऐसे आंदोलनों को जायज नहीं ठहराया जा सकता है। करीब दो माह से दिल्ली को घेरे बैठे कुछ किसान संगठनों के नेताओं ने पूरे दिल्ली को बंधक बना दिया है। ‘नया कृषि कानून वापस हो’ कि मांग को लेकर धरने पर बैठे किसान किसी की भी सुनने को तैयार नहीं हैं। यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट भी किसानों की जिद्द के आगे लाचार नजर आ रहा हैं, जिस तरह से किसान नेता सर्वोच्च न्यायालय की नियत पर सवाल उठा रहे हैं, वैसा कोई आम आदमी करता तो संभवता अब तक उसके ऊपर कोर्ट की अवमानना करने की कार्रवाई शुरू हो चुकी होती। उधर, इन सब बातों से बेफिक्र आंदोलनरत् किसानों को यही लगता है कि भीड़तंत्र के सहारे वह संसद से पास कानून को वापस करा लेने की ‘ताकत’ रखते हैं। वैसे आंदोलनकारी किसानों की यह सोच बेजा भी नहीं है। एक तरफ मोदी विरोधी खेमा किसानों को भड़काकर अपनी सियासत चमका रहा है तो दूसरी तरफ देश-विदेश में बैठी कुछ ताकतें भी किसान आंदोलन की आग को भड़काने के लिए दिल खोलकर पैसा खर्च कर रही हैं।

किसान आंदोलन को भी ठीक वैसे ही हवा दी जा रही है जैसे नागरिकता संशोधन कानून के विरोध के नाम पर ‘शाहीन बाग‘ जैसे तमाम धरनों को दी गई थी। तब भी आम आदमी का इस आंदोलन से कोई सरोकार नहीं था और आज भी किसानों के नाम पर चल रहे आंदोलन से आम किसान का दूर-दूर तक कोई सरोकार नहीं हैं। किसान आंदोलन, आंदोलन न होकर मोदी सरकार को नीचा दिखाने का मंच बन गया है, जिसको कांग्रेस, वामपंथी दलों, सपा,बसपा,राजद, आम आदमी पार्टी आदि दलों द्वारा हवा दी जा रही है। यहां तक की पंजाब की कांगे्रस सरकार भी इसमें अपनी सियासी रोटियां संेकने में लगी है। मोदी सरकार किसानों से बातचीत के लिए डेढ़ वर्ष तक नये कषि कानून पर रोक लगाने को तैयार हो गई है तो फिर आंदोलन की कोई वजह नहीं बनती है।

अच्छा होता कि मोदी सरकार द्वारा नये कृषि कानूनों पर डेढ़ साल तक के लिए अमल रोकने की बात कहे जाने और किसी निणार्यक स्थिति तक पहुंचने के लिए किसानों से जो बातचीत की पेशकश की गई थी, उस पर किसान संगठन सियासी गोटियां बिछाने की बजाए सकारात्मक रवैये का परिचय देते तो इससे किसानों का ही भला होता। इसके बजाए किसान नेताओं ने वही पुरानी मांग दोहरा दी कि उन्हें तीनों कृषि कानूनों की वापसी से कम और कुछ मंजूर नहीं। जिस तरह किसान संगठन गणतंत्र दिवस पर दिल्ली में ट्रैक्टर रैली निकालने पर अड़े हुए हैं, उससे इनके इरादों को लेकर सवाल उठना स्वाभाविक है।

दिल्ली पुलिस की असहमति के बावजूद किसानों द्वारा ट्रैक्टर रैली निकालने की जिद टकराव की राह पर चलते रहने का ही उदाहरण है। किसान नेताओं को सरकार की ओर से दिए गए प्रस्ताव को बीच का रास्ता निकालकर समस्या का समाधान करने की कोशिश के रूप में देखना चाहिए था। इसी के साथ ही उन्हें यह समझना चाहिए था कि कृषि सुधारों की दिशा में आगे बढ़ने के अलावा सरकार के पास और कोई रास्ता भी नहीं है। यदि कोई यह सोच रहा है कि अनाज खरीद की पुरानी व्यवस्था कायम रहने और कृषि उपज पर न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी जारी रहने से किसान समृद्ध हो जाएंगे तो यह एक छलावा ही है।

किसानों की हालत तब तक नहीं सुधर सकती जब तक वे बाजार के साथ तालमेल करने के लिए आगे नहीं आते। सरकारी सहायता पर आश्रित खेती उन समस्याओं से उबर ही नहीं सकती, जो आजादी के बाद से जारी हैं और जिनके चलते औसत भारतीय किसान तरक्की नहीं कर पा रहे हैं। यदि अन्य देशों के मुकाबले भारतीय किसानों की हालत में सुधार नहीं आ पा रहा है तो इसका एक बड़ा कारण कृषि सुधारों से दूरी बनाए रखना है। क्या किसान नेता इसकी अनदेखी कर सकते हैं कि पांच-छह प्रतिशत किसान ही एमएसपी का लाभ उठा सकने में समर्थ हैं? उन्हें इस तथ्य से भी मुंह नहीं मोड़ना चाहिए कि धान और गन्ना सरीखी अधिक पानी वाली फसलें उगाने के नुकसानदायक नतीजे सामने आ रहे हैं।

भूजल का स्तर लगातार घटता जा रहा है। यह कौन सा तर्क  है कि सरकारी गोदाम गेहूं और धान से भरे होने के बाद भी सरकार उनकी खरीद करती रहे। आज देश के गोदामों में इतना चावल मौजूद है कि वह पूरी दुनिया के लिए पर्याप्त है। किसान जिस न्यूनतम समर्थन मूल्य की बात कर रहे हैं, उससे सस्ता अनाज तो अंतराष्ट्रीय बाजार में उपलब्ध है, लेकिन सरकार किसानों के हितों को ध्यान में रखकर ऐसा नहीं कर रही है। अगर सरकार बाहर से अनाज आयात करने लगे तो मंहगाई भी घटेगी और सरकार की सब्सिडी भी बचेगी।

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