सर्वतीर्थमयी माता सर्वदेवमयः पितामातरं पितरं तस्मात् सर्वयत्नेन पूजयेत्प
द्मपुराण/ सृष्टिखण्ड में माता-पिता के लिए लिखित श्लोक में माता-पिता के प्रति आस्था और कर्तव्य की परिभाषा स्पष्ट रुप से लिखी गई है कि, मनुष्य के लिये उसकी माता सभी तीर्थों के समान है, तथा पिता सभी देवताओं के समान पूजनीय है। अतः बच्चों का यह परम् कर्तव्य है कि वह् उनका आदर और सेवा करें। माता में ही सारे तीर्थ है व पिता में ही सभी देवता है। जो माँ बाप की सच्चे मन से सेवा करता है उसे किसी अन्य तीर्थ पर यात्रा की व अन्य किसी देवता की पूजा की आवश्यकता ही नहीं होती। क्योंकि माता पिता के रूप में उसके पास सब कुछ यहीं विद्यमान है। कृष्ण पक्ष पितर पक्ष कहलाता है। जो इस पक्ष तथा देहत्याग की तिथि पर अपने पितरों का श्राद्ध करता है उस श्राद्ध से पितर तृप्त हो जाते हैं।
यह सारी क्रियाएँ अपने पूर्वजों के प्रति स्नेह, विनम्रता, आदर व श्रद्धा भाव का प्रतीक है। यह पितृ ऋण से मुक्ति पाने का सरल उपाय भी है। कम से कम इसी बहाने अपने पूर्वजों और पितृओं को याद तो करते है। चलो ठीक है ये सब आत्म संतुष्टि के लिए, या प्रायश्चित के तौर पर करने में कोई गलत बात नहीं। करना भी चाहिए।
पर आज मृतात्मा के पीछे हो रहे श्राद्ध का महत्व न समझाते सजीव माता-पिता के प्रति कर्तव्य की बात को सही ढ़ंग से समझेंगे तब शायद श्राद्धकर्म की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। मरने के बाद ये दिखावा क्यूँ? श्राद्ध पक्ष के दिनों कुछ लोगों को पितृओं पर अचानक प्रेम उभर आता है, जीते जी जिनको दो वक्त की रोटी शांति से खाने नहीं दी उनके पीछे दान, धर्म करने का दिखावा करते है। किसीको शायद ये बातें बुरी लगे पर धार्मिक भावना दुभाने का इरादा नहीं, पर जिसने जीते जी माँ-बाप को खून के आँसू रुलाया हो उसे कोई हक नहीं बनता श्राद्ध के नाम पर माँ-बाप को याद करनेका भी।
सुना है क्या कभी की स्वर्ग के लिये कोई टिफ़िन सेवा शुरू हुई हो? या तो फिर क्या ऐसा संभव है की हम गाय और कौवों को खीर पूडी खिलाएँ और सालों पहले चल बसे हमारे माँ-बाप को पहुँचे और वह तृप्त हो जाएँ। कोई मरकर वापस नहीं आया जो हमें इन सारी चीज़ों का सही ज्ञान दें।
उपनिषद कहते हैं कि अधिकतर इंसान की मृत्यु के बाद तत्क्षण ही दूसरा शरीर मिल जाता है फिर वह शरीर मनुष्य का हो या अन्य किसी प्राणी का। पुराणों के अनुसार मरने के 3 दिन में व्यक्ति दूसरा शरीर धारण कर लेता है इसीलिए तीजा मनाते हैं। कुछ आत्माएं 10 और कुछ 13 दिन में दूसरा शरीर धारण कर लेती हैं इसीलिए 10वां और 13वां मनाते हैं। कुछ सवा माह में अर्थात लगभग 37 से 40 दिनों में। तो हम किसके लिए सालों साल श्राद्ध करते है?
ऐसी तथाकथित विधियों का अनुकरण करने से अच्छा है जब माँ-बाप ज़िंदा हो तभी उनको अच्छे से खिलाएँ-पिलाएँ और सन्मान से रखें। जिनके माँ-बाप, बेटे-बहू की सेवा पाकर तृप्त होकर गए हो उनका तो मोक्ष हो जाता है। उनके पीछे ये ढ़कोसला करने की जरूरत भी नहीं होती।
पर जिनको माँ-बाप की कद्र नहीं उनके लिए इतना ही कहना है की, किसी भगवान की फोटो का नहीं बल्कि माता-पिता के चश्मे का शीशा पोंछ दीजिए, खुशबूदार अगरबत्ती लगाईये पर किसी भगवान के आगे नहीं बल्कि माता पिता के कमरे में मच्छर वाली, माथा टेके पर किसी बेजान मूर्ति के आगे नहीं बल्कि अपने माता-पिता के चरणों में। जो आपके जन्मदाता है और भगवान से कम नहीं। अगर माँ बाप बिमार है तो दिल से उनकी सेवा कीजिए। खूब सारे पैसे देना दान में मत दीजिए बल्कि जीते जी अपने माता-पिता की हर जरुरत पूरा करने के लिए खर्च करें। समाज में वृध्धाश्रम एक कलंक है, क्यूँ ना इसे नश्तेनाबूद करें.!
याद रखिए बचपन में जितनी जरूरत हमें माँ बाप की होती है उतनी ही जरूरत माँ-बाप को बुढ़ापे में बच्चों की होती है।
जीते जी सहारा दीजिए, मरने के बाद श्राद्ध नहीं करोगे तब भी चलेगा। माँ-बाप के चले जाने के बाद पैसों से सबकुछ मिलेगा पर उनके जैसा नि:स्वार्थ प्यार कहीं नहीं मिलेगा। पूजा-पाठ, श्राद्ध कर्म, दान-पुण्य सब दिखावा और ढ़कोसला है। जिसका जीता जागता उदाहरण गणेश जी है। कार्तिकेय जी ने पृथ्वी की प्रदक्षिणा की और गणेश जी ने माता पिता की। माँ-बाप की सेवा करेंगे उन्हें खुश रखेंगे तो भगवान भी खुश होगा।