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शिक्षक दीपक शिष्य है बाती, बढ़ते चलना संघ संघाती…

एक शिक्षक के लिए उसके छात्र के हित से बड़ा कुछ नहीं। यह कहावत दीपा मैडम ने सार्थक कर दिखाया। वह एक ऐसे स्कूल को बदलने का बीड़ा उठा कर चली जिसके लिए कई दशकों से किसी ने सुधार का एक कदम भी नहीं बढ़ाया था। लोग कहते-क्या यह विद्यालय ठीक हो सकता है? बच्चों का भविष्य बदल सकता है? समाज के इस सवाल पर दीपा मैडम मजबूत कदमों से आगे बढ़कर अकेली सभी जिम्मेदारी अपने सिर पर ले लेती हैं। वह जानती थी, यह कोई मामूली जिम्मेदारी नहीं जिसे वह करने के लिए अपने कदम आगे बढ़ा रही हैं।

शायद वह अपने बचपन के उस विद्यालय की झलक को आज तक नहीं भूल पाई थी। सरकारी स्कूल की बदहाली का वह नज़ारा उनके दिमाग में घर कर गया था। उन्हें वह गंदे बच्चे, ज़मीन में जानवरों के पास बैठे खाना खाते आज भी याद कर के दुख होता था। उन्होंने तभी से यह प्रण लिया था कि एक ऐसे #विद्यालय का निर्माण करूंगी जहां का कोना, कोना अपने आप पर गुमान करेगा। बच्चों में सीखने की प्रतिस्पर्धा होगी। वह हर दिन कुछ नया सीखेंगे। शहर के सबसे खराब विद्यालय को बदलने में वह दिन रात एक कर लगी रही।

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सालों साल एक भी छुट्टी न ली। बच्चों को दुलार, प्यार से सिखाने लगी। समाज को अपने विद्यालय से जोड़कर विद्यालय को एक पहचान दिलाई। दीपा ने हर बच्चे के हुनर को आगे बढ़ाया।एक जौहरी की तरह बच्चों को तराशा। विद्यालय के बच्चों पर कोई आँच न आए इसके लिए वह ढाल बनकर सामने खड़ी रही। धीरे-धीरे विद्यालय का यश जनपद और पूरे प्रदेश में फैल गया। लोग उनके विद्यालय की मिसाल देने लगे। विद्यालय के बच्चे बड़े-बड़े कॉलेजों में एडमिशन लेते अपनी पहचान बनाते।

विद्यालय के स्थानीय लोग जो पहले उनके काम में बाधा बनते थे आज उनकी तारीफ करते न अघाते। सात, आठ वर्ष बाद मैडम की कड़ी मेहनत व लगन से प्रभावित हो चुके थे। आसपास के गांवों में जाकर खुले दिल से विद्यालय की प्रशंसा और सहयोग की बातें करते। मैडम इन सभी चीजों से अपने बच्चों के लिए और बेहतर प्रयास करती। कुछ लोग उसे दिन-रात जलते मैडम को अपनी बातों से परेशान करते। लेकिन उनका कुछ बिगाड़ न पाते। दीपा मैडम का यही कहना था, “छात्र हित से बढ़कर मेरे लिए कुछ भी नहीं” कुछ राक्षसी प्रवृत्ति के लोग ईर्ष्या वश् उनके विद्यालय को नुकसान पहुंचाने की कोशिश करते। साजिशें करते क्योंकि समाज जल्दी किसी भी ईमानदार व्यक्ति को आगे बढ़ता देख नहीं पाता।

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यही मैडम के साथ भी हुआ। लोगों ने उनसे ईर्ष्या करनी शुरू कर दी। उनके खिलाफ़ झूठी बातें और साजिश सी होने लगी लेकिन उनके स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं हुआ ।वह अपने दुश्मनों को भी चाय नाश्ता करवाती। उनसे प्यार से बात करती। हजारों साजिशों को पार करके वह कैसे बाहर निकल जाती यह बात लोगों को समझ में नहीं आती। इसकी वजह उनका दृढ़ संकल्प और बच्चों के प्रति असीम प्यार था। मैडम दीपा बाकी शिक्षकों के लिए एक मिसाल थी। लगातार 10 वर्षों तक उसी जगह छात्र हित के लिए काम करती रही। छात्रों के हित के साथ-साथ उनके माता-पिता और अभिभावकों का भी हित करती। उन्हें पढ़ाती, रोजगार से जोड़ती।

मैडम एक समाज सेविका के रूप में खड़ी हुई। उनके मजबूत इरादे लोगों को बहुत परेशान करते, वह मजबूत चट्टान की तरह होती चली गई, और सही बात के लिए वह किसी अधिकारी से बात करने से भी नहीं डरती। बस कभी-कभी कुछ बातें उन्हें अंदर से कमजोरी महसूस कराती। ईश्वर का ध्यान कर आगे की शुरुआत करती। अपना तन मन धन लगाने के बाद भी अधिकारियों का सहयोग न पाने के कारण वो दूसरे स्थान पर जाने की ठान लेती है। शांत बैठने की आदत तो उनमें कभी थी ही नहीं। वह हमेशा कुछ नया करने की सोचती रहती।

दीपा मैडम अब वहां न रुक कर एक नए स्थान में जाकर काम की शुरुआत करती हुई छात्र हित के लिए अपना जीवन निछावर कर देती हैं। जिस जगह वो आज हैं पहले से ज्यादा खुश है। कहते हैं न जहां हमारी कदर न हो हमे वहां से हट जाना चहिए। इंसान अपने हालत से नही फैसले से बदलता है। दीपा मैडम आज भी छात्र हित के लिए बड़े बड़े काम करती समाचार पत्रों में दिखाई देती है।

जहाँ रहेगा वहीं रोशन लुटाएगा, किसी चराग का अपना मकां नहीं होता।

     आसिया फारूकी

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